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शनिवार, 30 अप्रैल 2011

मजदूर दिवस पर अशोक कुमार पाण्डेय की कविता

मई दिवस पर एक जनगीत


दुनिया बदली

सत्ता बदली

बदले गांव जवार

पर गरीब का हाल न बदला

आई गई सरकार



तो भैया

सोचो फिर एक बार

मिटेगा कैसे अत्याचार



कैसी तरक्की किसकी तरक्की

कौन हुआ खुशहाल

सौ में चालीस अब भी भूखे

और साठ बेकार

फैक्ट्रियो में ताले लग गये

देते जान किसान

कारों के पेट्रोल की खातिर

खाली हो गई थाल



तो भैया

सोचो फिर एक बार

रहेगा कब तक ऐसा हाल

मिटेगा कैसे अत्याचार



टीवी सस्ती सस्ता फ़्रिज है

सस्ती हो गई कार

रंग बिरंगे सामानों से

अटा पड़ा बाजार

फिर रोटी क्यूं मंहगी इतनी

फिर क्यूं मंहगी दाल

उनकी किस्मत में एसी है

अपना हाल बेहाल



तो भैया

सोचो फिर एक बार

चलेगा कब तक ये व्यापार

मिटेगा कैसे अत्याचार



लाखों के पैकेज के पीछे

जीवन बना मशीन

रूपये पैसे की दरिया में

डूबे ख्वाब हसीन

जिसको देखो भाग रहा है

सिर पर रखे पांव

चेहरे पर तो मुस्काने हैं

दिल में गहरे घाव



तो भैया

सोचो फिर एक बार

भरेगा कैसे दिल का घाव

मिटेगा कैसे अत्याचार



धर्म जाति की गहरी खाई

गहराती ही जाये

बिजली पानी छीन के हमसे

रामसेतु बनवायें

जनता की इन सरकारों से

अब तो राम बचाये

क्यूं ना इनकी कब्र खोदकर

अपना राज बनायें



तो भैया

सोचो फिर एक बार

बनेगा कैसे अपना राज

मिटेगा कैसे अत्याचार


बुधवार, 27 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे का देशव्यापी दौरा शुरू

आखिरकार अन्ना हजारे का देशव्यापी अभिया शुरू हो गया. सबसे पहले वे ऊतार प्रदेश का दौरा करेंगे. दिल्ली के करीब होने और सबसे बड़ा राज्य होने के कारण ही यह फैसला लिया गया. वैसे भी वहाँ के लोग मायावती के मनमाने राज से विरक्त हो चुके हैं. इसीलिए इस अभियान को अच्छे समर्थन की उम्मीद की जा रही है.

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे की तोप का मुंह अब उत्तर प्रदेश की ओर है. वे इसी शुक्रवार को बनारस से अपनी मुहिम शुरू करेंगे. अन्ना हजारे का काफिला बनारस से सुल्तानपुर होते हुए रविवार पहली मई को लखनऊ में सभा करेगा.

मायावती ने अन्ना हजारे से सीधे मोर्चा लेते हुए प्रस्तावित जन लोक पाल विधेयक की मसौदा समिति में दलित प्रतिनिधि न होने के लिए उन्हें गुनहगार बता दिया है. साथ ही समिति के संदिग्ध सदस्यों से दूरी बनाने की सलाह भी दी है.

मायावती की आपत्ति और सलाह अपनी जगह. लेकिन इस बात से कौन इनकार करेगा कि उत्तर प्रदेश पिछले कई सालों से लगातार भ्रष्टाचार में डूबता जा रहा है. मायावती ने स्वयं हाल ही में अपने दो मंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोप में हटाया है.

हर जुबान पर चर्चा है कि उत्तर प्रदेश में सरकारी विभागों से अवैध वसूली के आरोप लगते रहे हैं. और यह भी किस तरह दो बिजनेस परिवार यहाँ हर सरकारी ठेका पा रहे हैं.

इससे पहले जो सरकार थी उस पर भी दो चार बिजनेस घरानों को ही फायदा पहुंचाने के आरोप लगते रहे हैं. पूर्ववर्ती सरकार के साथ कम कर चुके दो पूर्व मुख्य सचिवों को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाना पड़ा.

सीबीआई सुप्रीम कोर्ट में कई बार कह चुकी है कि वर्तमान मुख्यमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में उसकी चार्जशीट तैयार है.

सुप्रीम कोर्ट के ही आदेश पर सी बी आई इनसे पहले वाले मुख्यमंत्री के खिलाफ भी आय से अधिक मामले की जांच कई साल से कर रही है.

सरकार जनता के पैसे से चलती है. सरकारी सेवक और जन प्रतिनिधि जनता के टैक्स के पैसे से वेतन और तमाम सुख सुविधाएँ पाते हैं. लेकिन वही नागरिक जब किसी काम से, मसलन राशन कार्ड , जाति प्रमाणपत्र, जन्म- मृत्यु प्रमाणपत्र , पासपोर्ट और ड्राइविंग लाइसेंस आदि के लिए सरकारी दफ़्तर जाता है तो उसे परेशानी का सामना करना पड़ता है.

कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश की जनता भी भ्रष्टाचार से आजिज है. लोगों को अन्ना हजारे से बहुत उम्मीदें भी हैं. उनके दो-एक साथियों के खिलाफ दुष्प्रचार की हवा निकाल जाने से अन्ना आन्दोलन की विश्वसनीयता बढ़ी है. और अमर सिंह तथा दिग्विजय सिंह जैसों की साख और अधिक खराब हुई है.

रविवार, 24 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे पर कृष्ण राघव की कलम

गांधी बनाम अण्णा हजारे

कृष्ण राघव


यह तब की बात है जब मैंने अण्णा हजारे को लेकर एक वृत्तचित्र बनाया था, वर्ष 1996 ! आधे घंटे की इस फिल्म का हिंदी में नाम था, 'अगम्य की खोज' और अंग्रेजी में ‘इन सर्च ऑफ यूटोपिया’. प्रसिद्ध महिला पत्रकार सुश्री दीपा गहलोत ने इस विषय को मुझे सुझाया था, इस पर शोध किया था और इसकी पटकथा लिखी थी. मैं अण्णा से तब से जुड़ा हुआ हूं. इस फिल्म को बनाने के लिए मैंने किसी धनकुबेर यानी फाइनेन्सर या स्पांसर का सहारा नहीं लिया था.

anna_hazare_gandhi

यह मेरा अपना पैसा था क्योंकि अण्णा के काम ने मुझे इस कदर प्रभावित किया था कि मैं उसे फिल्म में ढालना चाहता था और फिल्म सराही भी गई, दूरदर्शन ने उसे दिखाया, दो-तीन अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में गई-सराही गई...तब मुझे अण्णा, लाल बहादुर शास्त्री जैसे लगे थे...तब मुझे अण्णा, लाल बहादुर शास्त्री जैसे लगे थे, छोटे कद के बड़े आदमी...तब भी वह मंदिर में वहीं रहते थे.

दरअसल वह मंदिर बनवाया ही इन्होंने था. फौज से जब एक बार छुट्टी पर आए तो गांव के ‘देवस्थान’ की दुर्दशा देखी और दुखी हो गए,जर्जर हो गया था. गांव की आय का प्रमुख साधन एक कुटीर उद्योग था-शराब की भट्टियां...पानी की कमी के कारण खेती का कोई भरोसा न था.जवान पीढ़ी को पढऩे-लिखने के बाद भी काम नहीं था,

लिहाजा अधिकतर लोग अपने गांव व आस-पास के लिए इसी कुटीर उद्योग की ओर मुड़ गए. वे मंदिर की छत से लकडिय़ां निकाल ले जाते और भट्टियों में झोंक देते. अपनी कुंठा से छुटकारा मिलता और जेब में पैसे भी आते. ऐसे में खेमकरण सीमा का वाकया हुआ…भारत-पाकिस्तान युद्ध की विभीषका में इनके सारे साथी मोर्चे पर मारे गए, केवल यह और इनकी क्षत-विक्षत जीप बची जिसके यह ड्राइवर थे. वहां इन्हें एहसास हुआ कि ईश्वर ने यदि केवल इन्हीं को बचाया है तो कोई न कोई कारण अवश्य होगा !

छुट्टी मिली तो रेलवे प्लेटफार्म पर विवेकानंद मिल गए…स्वामी विवेकानंद…एक पुस्तक में. उन्हें पढ़ा और अण्णा बदल गए. गांव की दुर्दशा देखी तो फौज को त्यागपत्र दे दिया. कुछ हजार रकम(शायद बीस हजार थी) लेकर घर आए तो सोचा शुरूवात कहां से हो ? गांव का मिलन स्थल मंदिर ही होता है, सो उसी को सुधारने की सोची. कोई साथ आने को तैयार नहीं किंतु जब अपने ही पैसे से मुट्ठी भर आदमियों के साथ अण्णा को मंदिर के जीर्णोद्धार में जुटे देखा तो गांव वाले चौंक गए, प्रभावित हुए और अण्णा से जुड़ गए. श्रमदान के लिए एक घर से एक व्यक्ति मांगा गया और मंदिर तो बना ही (जिसके एक कमरे में आज भी अण्णा रहते हैं) गांव की सड़कें भी बनी, उनमें ‘अंडर ग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम’ भी बने, यहीं कारण कि रालेगण-सिद्धी की गलियां गीली नहीं रहतीं, उन पर कीचड़ नहीं रहता जो हमारे समूचे भारत के गांवों की गलियों का ‘प्रतीक चिह्न’ हुआ करता है. गलियों में सौर-ऊर्जा से जलने वाले बिजली के खंभे हैं…इत्यादि… और हां, गांव के घरों में हमने ताले लगते नहीं देखे, सारे घर चौबीस घंटे खुले ही रहते हैं.

श्रमदान के असली महत्व का फल ग्रामीणों ने तब चखा, जब ऊपर के पहाड़ों से लेकर गांव की बाहरी सीमा तक अण्णा ने कई छोटे-छोटे बांध बना दिए. गांव का पानी बहकर, बरसात में, अत्यंत वेग से, दूसरी जगहों पर चला तो जाया ही करता था, अपने साथ गांव की मिट्टी भी बहा ले जाता था; बांध बने तो गांव का पानी और मिट्टी, दोनों रूक गए. कुंओं में जल-स्तर बढ़ा, गांव में पानी आया और फसल महकने लगी. सिंचाई के पानी की मांग इतनी बढ़ी कि अण्णा को राशन कार्ड बनाने पड़े. फसल हुई तो पेट भरे, पेट भरे तो अण्णा ने गांव वालों के सामने एक प्रश्न फेंका, खेतों में पानी आ गया और आंखों पानी नहीं आया तो वह मर्द कैसा? मैंने उनके स्कूल के एक बड़े हॉल में एक आदमकद आइने में ऊपर की ओर यह सुक्ति भी लिखी देखी, ‘तेरे दया-धरम नहिं मन में, मुखड़ा क्या देखे दर्पण में!’

इस प्रश्न के उत्तर में गांव वालों के सहयोग से उन्होंने ग्राम-वासियों के लिए एक ‘ग्रेन-बैंक’ खोला. हर घर में हर फसल पर थोड़ा-थोड़ा अन्न इकट्ठा करना प्रारंभ किया जो जरूरतमंदों को ऋण अथवा अनुदान के रूप में मिलने लगा. यहां तक कि आस-पास के गांव वाले भी आने लगे. आज इस ‘ग्रेन बैंक’ में अनाज के बोरों पर बोरे अटे पड़े हैं.
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शनिवार, 23 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे पर कृष्ण राघव - भाग-२

अंध विश्वासों पर भी अण्णा ने काम किया. एक आदमी जो अपने शरीर पर देवी बुलाकर ग्रामीणों को ठगा करता था, उसकी सरे-आम किसी पौधे की हरी संटियों से पिटाई कर उसकी पोल खोली और गांव वालों को अंध विश्वास से मुक्त किया. एक होली पर सबने मिलकर निश्चित किया (उस समय गांव की सरपंच एक महिला ही थी) कि होली में गांव की दुकानों का सारा तंबाकू और सिगरेट-बीड़ी इकट्ठा कर उसकी होली जलाई जाए और उस होली के बाद गांव में तंबाकू आदि नहीं बिकता, न कोई पीता-खाता.

तभी अण्णा ने एक विद्यालय और छात्रावास भी खोला जो महाराष्ट्र के ऐसे बच्चों के लिए था जिन्हें कहीं और दाखिला नहीं मिलता, मसलन शरारती, अपराधी वृत्ति वाले अथवा लगातार फेल होते रहने वाले बच्चे
. पढ़ते हुए बच्चे तो हमने नहीं देखे किंतु कोई बच्चा हमने रोगी अथवा अस्वस्थ नहीं देखा. तंदरूस्त, चाक-चौबंद बच्चे दिन निकलने से पहले उठकर सामूहिक व्यायाम करते, परिसर की सफाई करते,पौधों और वृक्षों में पानी लगाते और अभ्यास के लिए अपने-अपने वृक्ष के नीचे बैठ जाते क्योंकि हर बच्चे के पास देखभाल के लिए एक वृक्ष था. सौर-ऊर्जा से उनके नहाने के लिए गर्म पानी मिलता, उनके दाल और चाववल पकते, कमरों उजाला होता…सब्जी और ज्वार की भाखरी(रोटी)नीचे महिलाएं मिट्टी के तेल की भट्टियों पर बनातीं जिससे लकडिय़ों की आवश्यकता न पड़े. बच्चों के लगाए हुए वृक्षों से, इसीलिए रालेगण-सिद्धी आच्छादित था…इन सभी कार्यों के लिए अण्णा ने आर्थिक सहायता भी अपने ग्राम के लिए जुटाई.

ये थे तब के अण्णा. लालबहादुर शास्त्री से मिलते-जुलते अण्णा. विवेकानंद से प्रभावित अण्णा. गांधी का स्वप्न साकार करते अण्णा.

आज के अण्णा ने बहुत बड़ा दायित्व-बोझ संभाल लिया है…संभाल पाएंगे क्या-समय बताएगा किंतु गांव एवं शहर की युवा-पीढ़ी की आंखों में आई-चमक से भय लगता है. उनके स्वप्न भंग होने का भय लगता है. आसपास के स्कूलों से कतार बांध कर आए स्कूली बच्चों के उत्साह और आश्चर्य से भय लगता है…युवा-पीढ़ी द्वारा अण्णा में विश्वास का कारण जानकर और भी भय लगता है, वे कहते हैं-‘’ हमने गांधी को तो नहीं देखा किंतु वह कैसे होंगे, हम अण्णा को देखकर जान सकते हैं.’’ या फिर उन तालियों और नारों पर भी नजर दौड़ जाती है जिन पर लिखा है या जिन्हें सुना है-
"अण्णा नहीं आंधी है-आज का गांधी है."

अण्णा के लिए शुभकामनाएं, अच्छा लगता है किंतु यह देश की भावी पीढ़ी की आंखों में बस गए निर्दोष, निष्पाप और सच्चे सपनों का सवाल है. ये स्वयं उस कच्ची उम्र के हैं, जिन्हें कच्चे घड़े की तरह पानी में ढहते देर नहीं लगती. उम्रवालों की मुझे परवाह नहीं, वे राजनीतिज्ञ हों कि सामाजिक कार्यकर्ता अथवा खासोआम इंसान. इन्होंने बहुत से आंधी-तूफान देखे हैं, न जाने कितने सावन आए और ये औंधे घड़ों की तरह पड़े रहे. अधिकतर जैसे थे-वैसे ही हैं किंतु ये मासूस, मुलमुले. आंखे खोलते ही ये ‘अण्णा-गांधी’ को देख रहे हैं मानो वेद-पुराण में ‘यदा-यदा हि धर्मस्य...’ वाले अवतार के बारे में पढ़ा हो और अचानक वह इनके सामने आ खड़ा हो.

अण्णा के उपवास छोडऩे के बाद से ही जो नाटक हो रहे हैं, उनके बारे में तो आप जानते ही होंगे-‘कमेटी में ये क्यों नहीं, ये क्यों...?‘, ‘एक जन-लोकपाल के बन जाने से कुछ नहीं होने वाला’, ‘भ्रष्टाचार के बिना, काले-धन के बिना, अण्णा पार्टी चला के दिखाएं’, ‘अण्णा कहीं भी-किसी भी चुनाव में शरद पवार को हरा कर दिखाएं‘, ‘अण्णा ने कुछ मुख्यमंत्रियों की तारीफ क्यों कर दी’ आदि-आदि.

गांव बसते ही लुटेरे आने प्रारंभ हो गए हैं. मैं स्वयं भविष्य को लेकर शंकित हूं. बिसात बिछ गई है, पासे पड़ चुके हैं, जाने कौन जीते. मैं भी देख रहा हूं, देश की भावी-पीढ़ी, नौजवान लडक़े-लड़कियां, स्कूली बच्चे सभी टकटकी लगाए देख रहे हैं. सब अण्णा के सद-उद्देश्य के साथ हैं किंतु ईमानदारी से कहूँ तो मेरे जैसे न जाने कितने हैं जिनके मन में यह प्रश्न भी है, ‘’ देखे क्या होता है ! "

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

भूषणों को इस्तीफा देने की ज़रूरत नहीं

चन्दन जी,

मनमोहन सरकार ने एक विधेयक तैयार किया है. उसमें इतने छेद रखे गए हैं कि ए. राजा और कलमाड़ी जैसे भ्रष्ट भी बच निकलेंगे. इसीलिए अन्ना हजारे के नेतृत्व में किरण बेदी सहित समिति के पाँचों सदस्यों ने मिलकर एक जन-लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार किया है. जिसे आम जानता के लिए जारी भी कर दिया गया है. आप अपने अन्य सही किस्म के मित्रों के लिंक पर जाएं या इंडिया अगेंस्ट करप्शन के लिंक पर जाएंगे तो इन सारी बातों का खुलासा हो जाएगा. आप जैसे जिज्ञासु मेरे ब्लॉग kiranshankarpatnaik.blogspot.com से भी कुछ जानकारी पा सकते हैं.

जिन लोगों ने जन-लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार किया है, वे लोग ही समिति के नागरिक सदस्य हैं. जब तक ये लोग जन-लोकपाल बिल का मसौदा तैयार कर रहे थे, तब तक किसी भी अमर या दिग्गी या नवाब मालिक या रघुवंश प्रसाद या रीता या सिब्बल जैसों को कोई तकलीफ नहीं थी. क्योंकि ऐसे मसौदे बना लेने से भ्रष्टाचारियों पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. लेकिन जब इन भ्रष्टों को लगा कि करोड़ों लोगों के समर्थन से यह मसौदा विधेयक और फिर क़ानून बन जाने वाला है तब इन्होने साजिश शुरू की. इसीलिए ये सारे चरित्र हनन अभियान चलाये जा रहे हैं. यहां किसी दल को समर्थन करने या विरोध करने का सवाल नहीं है. लेकिन चूंकि कांग्रेस सत्ता में है और उसके शासन में अंधाधुंध भ्रष्टाचार चल रहा है, इसीलिए उसका ही नाम लिया जाता है. भ्रष्टाचार से कोई दल बच नहीं पाया है. लेकिन इस वक्त भ्रष्टाचारियों की अगुआई कांग्रेस कर रही है. इसीलिए कांग्रेस का नाम आना लाजिमी है.

तमाम भ्रष्टों में एका कायम हो गया है. देखना कुछ दिनों बाद भाजपा का भी कोई नेता अन्ना आंदोलन के विरुद्ध अनाप-शनाप बकता हुआ नज़र आ जाएगा. भ्रष्टों की इस शक्तिशाली जमात को देश के बड़े उद्योगपतियों का भी सर्रक्षण प्राप्त है. क्योंकि इन दिनों राजा सहित कई अरबपति तिहाड की हवा खा रहे हैं. इससे तमाम भ्रष्टों की नींद हराम हो गयी है. अगर कोई कठोर क़ानून बन गया तो इन सबकी खैर नहीं. कई तिहाड बनाने पड़ेंगे. इसीलिए अन्ना आंदोलन को तोड़ने , बदनाम करने की गहरी साजिश रची गयी है और इसमें मीडिया के बड़े-बड़े पत्रकार भी शामिल हो गए हैं.

मीडिया पर करोड़ों रुपए पानी की तरह खर्चे जा रहे हैं. झूठ को असली बनाने के लिए अर्णब गोस्वामी, बरखा दत्त, विनोद शर्मा, सरदेसाई, आदि अनेकानेक बड़े चेहरों को लगा दिया गया है. तथाकथित बड़े अखबार भी पूरी तरह से बिके हुए हैं. क्योंकि इनके मालिक भी बड़े पूंजीपति हैं. और अरबों रुपए कमाने के लिए कितने भ्रष्टाचार करने पड़ते हैं, इसकी जानकारी सबको है. टाटा, अंबानी को भी जेल जाना पड़ सकता है, अगर सही माने में कठोर क़ानून बन गया और उसे लागू किया गया तो. इससे देश के भ्रष्टों को कुछ तो करना है. सो यह स्वाभाविक है कि वे साजिश करके आंदोलन को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन जब तक जनता सावधान है. ऐसी कोई साजिश सफल नहीं होगी.

जहां तक भूषणों का सवाल है. जांच बिठा दी जाय. लेकिन चूंकि उन पर लगने वाले आरोप ऐसे समय में आये हैं जब समिति की पहली बैठक शुरू होने वाली थी, इसीलिए इसे साज़िश ही कहा जाएगा. और भूषणों को किसी भी हालत में समिति से बाहर आने की जरूरत नहीं. जन-लोकपाल विधेयक बन जाने के बाद वे चाहे जो करें. जांच चले. यही बात अन्य सदस्यों (नागरिक) पर भी लागू होती है. विधेयक बनाना पहला लक्ष्य है. इसे किसी भी हाल में प्राप्त करना ही होगा.

कुछ लोगों का यह कहना है कि मंत्रियों पर अगर आरोप लगते तो क्या हम उनसे इस्तीफे की मांग नहीं करते. जरुर करते. और शक्तिशाली पद पर बैठे व्यक्ति से तुरंत इस्तीफा देने को कहते. क्योंकि वह जांच पर प्रभाव डाल सकता है. जैसे कि अभी भी अनेक मामलों को दबाने की कोशिश की जा रही है. लेकिन भूषण कोई मंत्री या बड़े नौकरशाह नहीं हैं. उनके खिलाफ जांच को वे प्रभावित नहीं कर सकते. उलटे सरकार ही उनकी जांच को प्रभावित कर सकती है. जैसे कि एक झूठी सीडी को सरकारी एजेंसी ने सच बता दिया. यह सरकार के दबाव पर ही तो किया गया है. ऐसे में भूषणों के खिलाफ कोई न्यायिक जांच शुरू करवाना ही पर्याप्त होगा. उन्हें समिति से इस्तीफा देने की जरुरत नहीं.

फिलहाल इतना ही.

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

शेखर कपूर की एक कविता (अन्ना हजारे के लिए)

एक रोटी हमें भी दो

एक रोटी हमें भी दो
कुछ जीने का हक तो हमें भी दो

नहीं मांगते हम आपकी ऊंची इमारतें
थक जायेंगे जहाँ
अपने आप को ही ढूँढ़ते ढूँढ़ते
छू लेंगे हम भी आसमान को
अपनी ही औकात से

लेकिन

एक रोटी हमें भी दो
कुछ जीने का हक तो
हमें भी दो

आपके बच्चे फलें फूलें
विदेश जाके खूब घूमें
चेहरे पे उनके मुस्कराहट रहे
हमारे बच्चे तो चीखते रहे

एक रोटी हमें भी दो
कुछ जीने का हक तो

हमें भी दो

यह सुनामी जो लाये हैं
हमारे अन्ना
देश को बह ले जाएंगे
हमारे अन्ना
यह हवा जो चली है तूफ़ान बनकर
कहीं पेड़ को ही उखाड़ न दे
उसे जकड़ कर

इससे पहले कि हम सब बह जाएँ

एक रोटी हमें भी दो

कुछ जीने का हक तो
हमें भी दो

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

मीडिया का शीर्षासन - भाग- ४

सरकारी सदस्यों पर मीडिया "मेहरबान" क्यों??

एक बात आम लोगों की समझ से परे है कि जन-लोकपाल विधेयक संबंधी समिति के सरकारी सदस्यों के प्रति मीडिया क्यों इतनी मेहरबान है. जबकि इनमें से दो-तीन सदस्यों पर कभी न कभी भ्रष्टाचार के आरोप लग चुके हैं. उनसे क्यों नहीं इस्तीफा माँगा जा रहा??

अमर सिंह जैसे दलाल किस्म के लोगों की बात जाने दें. ऐसे लोग अपने तथा अपने "मालिकों" के निहित स्वार्थों के लिए तथा भ्रष्टाचार को दबाने के लिए अन्ना विरोधी मुहिम में लगे हुए हैं. ऐसे लोगों या शक्तियों से भ्रष्ट मंत्रियों से इस्तीफे की मांग किये जाने की उम्मीद करना बेकार बात है. लेकिन अन्ना के आंदोलन को लगभग पूरी मीडिया द्वारा अपना समझौताविहीन समर्थन देने के बाद अब उसी मीडिया का एक हिस्सा आखिर क्यों भ्रष्ट मंत्रियों से इस्तीफे की मांग नहीं कर रहा, उलटे समिति सदस्यों पर कीचड उछालने की साजिश में शामिल हो गया है!!??

दिल्ली के कुछ बड़े अखबारों ने बाकायदा समिति सदस्यों के खिलाफ महा-अभियान छेड़ दिया है. कई चैनल भी सिर के बल खड़े दिखायी दे रहे हैं. ऐसा क्या हो गया? कल तक जो मीडिया शांतिभूषण और प्रशांत भूषण की तारीफ़ में ख़बरें प्रकाशित किया करती थी, वही मीडिया रातों -रात भूषणों के खिलाफ कैसे चली गयी? आम आदमी के पास इन सवालों का सीधा जवाब है, लेकिन मीडिया के पंडित इन्हें तवज्जो देने को तैयार नहीं. क्यों? इस का जवाब भी आम लोग जानते हैं.

सभी जानते हैं कि लगभग सारे बड़े अखबार और अधिकांश चैनल आम जनता के हितों के बजाय मुख्यतः बड़े सेठों के निहित स्वार्थों के लिए काम किया करते हैं. ये अखबार और चैनल इन्हीं महासेठों के दिये विज्ञापन से ही चला करते हैं. और इन अखबारों-चैनलों को चलाने वाले अधिकांश मालिक खुद बड़े सेठ हैं. इन दिनों भ्रष्टाचार के कुछ मामलों में कुछ उद्योगपतियों को तिहाड जेल जाते देख इन सबकी रूह फना हो गयी है. अगर अभी यह हाल है तो जन-लोकपाल क़ानून के बन जाने के बाद क्या होगा?

इसीलिए सारे बड़े सेठों, सत्ताधारी दलों-वर्गों और उनके दलालों ने एक मज़बूत चांडाल चौकड़ी बना ली है. जिसका एकमात्र लक्ष्य है, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को बदनाम करना और उसे कमजोर बनाना. इसी सिलसिले में सबसे पहला निशाना भूषणों को बनाया गया है. उसके बाद एक-एक कर तमाम वरिष्ठ सदस्यों को झूठे आरोपों से बदनाम केने की कोशिश की जाएगी. हालांकि अभी से अन्ना के खिलाफ भी मनगढंत कहानी-किस्से सुनाये जाने लगे हैं. दिग्विजय सिंह के बयानों से इसकी पुष्टि हो जाती है.

महासेठों का यह मीडिया हर हाल में भूषणों से इस्तीफा चाह रहा है. कहा जा रहा है कि देश में और भी अनेक अच्छे वकील हैं, उन्हें समिति में रखा जाय. इसकी क्या गारंटी है कि उन वकीलों के खिलाफ यह चांडाल चौकडी चरित्र हनन अभियान नहीं चलाएगी? वैसे एक जस्टिस हेगड़े को छोड़कर बाकी सब पर कीचड उछालना शुरू हो गया है.

जारी....

मीडिया का शीर्षासन - भाग-३

शीशे के घर की बरखा दत्त

विवादों से घिरी एनडीटीवी पत्रकार बरखा दत्त को नैतिकता के सवाल पूछते देख देख बड़ी हैरानी हुई. वे स्वामी अग्निवेश और जस्टिस संतोष हेगड़े से एक परिचर्चा के दौरान नैतिकता से ओतप्रोत सवाल दागे जा रही थीं, जबकि इन दोनों की पूरी पृष्ठभूमि पूरी तरह स्वच्छ है, कोई दाग नहीं. दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में भ्रष्टाचार के विरुद्ध लगातार संघर्ष करते रहे हैं और अभी भी कर रहे हैं. जबकि खुद बरखा दत्त पर अभी कुछ महीने पहले ही पत्रकारिता पेशे का दुरूपयोग करने और सत्ता की दलाली के संगीन आरोप लग चुके हैं.

उन पर आरोप लगा है कि उन्होंने कुख्यात नीरा राडिया के साथ मिलकर सत्ता के दलाल की भूमिका अदा की है. यह वही नीरा राडिया है, जो २ जी घोटाले में भी फंसी हुई हैं. इस मामले को दबाने की तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया ने पूरी कोशिश की थी. लेकिन भला हो सामाजिक यानि इंटरनेट मीडिया का, जिसने इसे जीवित रखा और आखिरकार "बड़े अखबारों" और विभिन्न समाचार चैनलों को भी इस खबर को प्रमुखता से छापनी पड़ी. और दुनिया से मुंह छिपाने वाली बरखा को भी सामने आकार अपनी सफाई में बहुत कुछ कहना पड़ा. यह और बात है कि कुछ लोगों को छोड़ आम लोगों सहित उनके पत्रकार बंधुओं ने भी उनका यकीन नहीं किया. अपने ही चैनल में वे बड़ी उद्दंडता के साथ अन्य निषपक्ष पत्रकारों का मुंह बंद करती नज़र आयीं.

इतने बड़े कांड के बाद भी उन्होंने अपने पदों से इस्तीफा देना ठीक नहीं समझा. जबकि उसी तरह के आरोपों के कारण कुछ अन्य पत्रकार अपने स्थान से हट गए या हटा दिये गए. अब भी वे बड़ी ढिठाई के साथ उसी काम को बदस्तूर चलाये जा रही हैं और उनका चैनल भी कांग्रेस की तरफदारी में लगा हुआ है.

अब वही बरखा दत्त एक सरासर झूठे और बदमाशी की नीयत से लगाए जाने वाले आरोपों के मद्देनज़र शांति भूषण तथा प्रशांत भूषण से जन-लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने वाली समिति से इस्तीफा देने का दबाव बनाती दिख रही हैं. इससे भी यही साफ़ होता है कि वे और उनका चैनल अब भी भ्रष्ट सत्ता की दलाली में व्यस्त हैं.

बरखा दत्त और अमर सिंह

स्वामी अग्निवेश ने उनसे जब किसी पत्रकार की नैतिकता के बारे में पूछ लिया तो वे तिलमिला उठीं. उन्होंने उसी ढिठाई और उद्दंडता के साथ उसका जवाब दिया जो कि स्पष्ट नहीं था और उससे उनकी स्थिति साफ़ नहीं होती. बरखा दत्त को अब भी इस्तीफा देकर अपने को पाक-साफ़ साबित होने तक घर बैठकर आत्म-विश्लेषण करना चाहिए. लेकिन अमर सिंह और बरखा दत्त जैसे लोग ऐसा करने वालों में से नहीं हैं. वे शीशे के घरों में रहते हुए भी दूसरों पर पत्थर मारने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं.

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को बदनाम और कमजोर करने के उद्देश्य से ही समिति की पहली बैठक के एक दिन पहले फर्जी सीडी कांड सामने आया. इससे ही करोड़ों आम लोगों ने इसके पीछे के कुचक्र को भांप लिया, इसीलिए तो जब बरखा का कार्यक्रम चल रहा था तब भी उनके चैनल को ऐसे सन्देश प्रकाशित करने पड़े जो अमर सिंह, दिग्गी राजा और कांग्रेस सरकार के खिलाफ थे. इतना ही नहीं, नेट खोलकर देख लिया जाय, एक्के-दुक्के भ्रमित लोग ही नागरिक सदस्यों के खिलाफ बोल-लिख रहे है. जबकि लाखों की तादाद में ऐसी टिप्पणी देखने को मिल रही है जो इसे कांग्रेस सरकार की साजिश मानती है. बरखा और उनके चैनल को भ्रष्ट कांग्रेस सरकार की दलाल मानने वालों की संख्या भी इससे कम नहीं.

जारी.....

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

मीडिया का शीर्षासन - भाग-२

विनोद शर्मा की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न

ध्यान रहे विनोद शर्मा के अखबार ने भी उस फर्जी सीडी को सच्चा बताया है. इन दोनों अख़बारों ने किसी प्रयोगशाला का नाम तक बताना उचित नहीं समझा और न ही किसी विशेषज्ञ का नाम बताया है. इस पर श्री विनोद शर्मा जी स्रोत की गोपनीयता की झूठी दुहाई देते हैं. वे बड़ी शान से सीना पीटकर खुद को बड़े ईमानदार पत्रकार बताते हैं. लेकिन किस प्रयोगशाला में किस विशेषज्ञ के जरिए सीडी की जांच करायी गयी, वे नहीं बताते. इसीसे उनकी और उनके अखबार की नीयत (या बदनीयत) का पता चल जाता है.

अर्णब ने अपने कार्यक्रम में उन्हें बहुत अधिक छूट दे रखी थी. तभी वे कहते हैं कि वे करोड़ों में नहीं खेल रहे, वे अब भी मध्य वर्गीय जीवन जी रहे हैं. और अपने बल पर इस मुकाम पर पहुंचे हैं. सही कहा! लेकिन सच यह भी है कि मध्य वर्ग का हर आदमी ईमानदार नहीं होता. कुछ लोग सौ-दो सौ में भी बिक जाया करते हैं. कुछ लोग छोटे-मोटे पदों के लिए भी अपने ईमान का सौदा कर लिया करते हैं. क्या आप भी ऐसे ही छोटे-मोटे आदमी हैं? और हर करोड़पति भ्रष्ट नहीं होता. अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर, महेंद्र सिंह धोनी आदि अनेक लोग करोड़पति बन चुके हैं. क्या विनोद शर्मा उन्हें भ्रष्टाचार के जरिए करोड़पति बना बताएंगे?

बहरहाल, अमर सिंह की तरह आलतू-फालतू बकवास करने के बजाय विनोद शर्मा और उनके अखबार ने अगर सीडी की जांच करने वाली प्रयोगशाला के बारे में बता दिया होता तो उनकी पत्रकारी नैतिकता प्रमाणित हो जाती. वैसे भी विनोद शर्मा को घुमा-फिराकर कांग्रेस के बचाव में ही सुना जाता रहा है. इससे इस सीडी कांड के पीछे कांग्रेस के हाथ की पुष्टि होती है. ऊपर से महान ईमानदार मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और राहुल गांधी की इस मुद्दे पर अब तक की चुप्पी भी इसी ओर इशारा कर रही है, जबकि अन्ना हजारे ने पत्र लिखकर सोनिया गांधी से इस बाबत जवाब भी माँगा है कि क्या वे भी दिग्विजय और सिब्बल के भ्रामक प्रचार अभियान से सहमत हैं. अब सोनिया गांधी इसका जवाब देने के लिए अपने सलाहकारों से सलाह ले रही होंगी. उनका जवाब चाहे जो भी आये, मगर इतना तय है कि कांग्रेस का प्रत्यक्ष-परोक्ष फूट डालो अभियान जारी रहेगा. विनोद शर्मा जैसे पत्रकार अब खुलकर भ्रष्टों के समर्थन में अपने पवित्र पेशे का दुरूपयोग करने में जुट गए हैं.

पत्रकार जगत तथा ईमानदार श्रमजीवी पत्रकारों को दलाल किस्म के पत्रकारों का बहिष्कार करना चाहिए.

उम्मीद थी कि अर्णब भी ऐसा ही करेंगे, लेकिन उन्होंने विनोद शर्मा को इतनी छूट देकर अपने सारे किये-कराये पर पानी फेर दिया. आखिर वे भी क्या करें, उन्हें तो उसी कम्पनी की चाकरी करनी पड़ रही है जिसके अखबार ने भी प्रयोगशाला और विशेषज्ञों का नाम बताए बिना सीडी को सच्ची बता दिया है. अब उस कंपनी के मालिकों ने अर्णब की नकेल कस दी है. अब वे भ्रष्टों के तरफ़दारों के बजाय भ्रष्टाचार के विरोध में संग्राम चलाने वालों को अपने कठघरे में खड़ा करने लगे हैं. अर्णब का यह पतन पूरी पत्रकारिता का पतन है. लेकिन जब तक बड़े सेठों और दो नंबरियों के हाथों में पत्रकारिता की कमान रहेगी, तब तक पत्रकारिता के पतन पर आम लोग इसी तरह आंसू बहाते रहेंगे. भला हो लघु पत्रिकाओं और इंटरनेट की सामाजिक पत्रकारिता का, वर्ना अनेक दुष्कर्म दबे रह जाते.

याद करें, नीरा राडिया कांड को तथाकथित मुख्यधारा के अखबारों तथा चैनलों ने किस तरह दबा दिया था. उस समय अगर छोटे अखबारों और इंटरनेट की सामजिक पत्रकारिता ने हंगामा खड़ा नहीं किया होता तो २ जी मामला भी शायद सामने नहीं आया होता और अनेक बड़े पत्रकारों के दलाल चेहरे भी दबे-छिपे होते. बड़े अफ़सोस की बात है कि भारत में हिंदी के लेखक-पत्रकार इस सामाजिक मीडिया का सही इस्तेमाल करके किसी सामजिक क्रांति का रास्ता साफ़ नहीं कर रहे. बल्कि अंग्रेजी में यह काम किया जा रहा है. हिंदी के देशभक्तों को सेठिया अखबारों और चैनलों के जाल से बाहर आकर इस सामाजिक मीडिया को एक बड़े सामाजिक-राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए. यह आम जनता का अपना मीडिया है. जब इस पर भी लगाम लगाई जाने लगेगी तब कोई और रास्ता निकाला जाएगा. फिलहाल इसका भरपूर इस्तेमाल किया जाय.


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मीडिया का शीर्षासन

कल तक अपने पाँव पर खड़ी मीडिया अब सिर के बल खड़ी हो गयी है. यह पूरी मीडिया के बारे में नहीं कहा जा रहा. बल्कि मीडिया के एक हिस्से के बारे में यह बात सोलह आने सच है.

भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना हजारे के आंदोलन को मीडिया के स्वतःस्फूर्त समर्थन को देख अनेक भ्रष्टाचारियों की नींद हराम हो गयी थी. अगर यह आंदोलन महज धरने-प्रदर्शन आदि जैसे कार्यक्रमों तक ही सीमित होता तो इन भ्रष्टाचारियों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था. खुद अनेक भ्रष्टाचारी रोजाना क्लबों, चैनलों, समारोहों में बैठकर भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के खिलाफ आग उगलते दिख जाते हैं. क्योंकि ऐसी बहसों से भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगने वाली.

लेकिन जब इन्हें (भ्रष्टों को) लगा कि इस बार अन्ना हजारे के आंदोलन से सचमुच ऐसा कुछ होने होने जा रहा है कि हर रंग के जन-विरोधी और देश-विरोधी भ्रष्टाचारियों को जेल की हवा खानी पड़ जाएगी, तब ये असली रूप में सामने आने लगे हैं. कुछ लोग अब भी परदे की आड से अपनी साजिश चला रहे हैं, लेकिन इनके मुखौटों को देख कोई भी समझ सकता है कि परदे के पीछे से कौन सी शक्तियां काम कर रही हैं. इन्होने भांप लिया कि जन-लोकपाल क़ानून सचमुच बन गया और लागू होने लग गया तो इन सबकी खैर नहीं. देश और जनता को लूटने के इनके धंधे पर पूर्ण विराम लग जाएगा. ऊपर से मिलने वाली सज़ा, करेला नीम चढा के मुहावरे को चरितार्थ कर देगी. ऐसा सोचकर इन भ्रष्टाचारियों की रूह अंदर से काँप उठी.

सो अब इनलोगों ने एक साथ दो काम करने शुरू कर दिये हैं. पहला तो यही कि आंदोलन को बदनाम करो और उसमें फूट डालो तथा आम लोगों को इसके अगुआ व्यक्तियों के प्रति इतना भ्रमित कर दो कि आइंदे वे लाखों-करोड़ों की तादाद में आंदोलन के साथ नज़र नहीं आयें. इस बारे में इस ब्लॉग में पहले भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है. इस बार मीडिया की भूमिका पर विशेष रूप से लिखना निहायत जरुरी हो गया है.

भ्रष्टों की शक्तिशाली जमात ने मीडिया के प्रभाव को एक बार फिर देख लिया था. इसीलिए आंदोलन में फूट डालने और जनता में भ्रम फैलाने के लिए इसी मीडिया का दुरुपयोग शुरू किया गया. किसी भी आम भारतीय (जो समझदार, ईमानदार और चतुर है) के गले से यह बात नीचे नहीं उतर पा रही कि आखिर एक सरासर फर्जी-जाली बदमाशी की नीयत से जारी की गयी ऑडियो सीडी पर हमारी महान मीडिया इतनी चर्चा क्यों कर रही है!!! किसी भी ऐरे-गैरे के अनाम सीडी पर इतनी बड़ी-बड़ी लंबी बिल्कुल अनावश्यक बहस क्यों??!!

अर्णब गोस्वामी जवाब दें

क्या टाइम्स नाऊ के तेज-तर्रार अर्णब गोस्वामी इसका जवाब दे पाएंगे? सबसे पहले उन्हीं का नाम इसीलिए लिया गया, क्योंकि उन्हींके इस चैनल ने सबसे आगे बढ़कर अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का समझौताविहीन समर्थन किया था. हालांकि अन्य कई चैनलों ने भी बहुत ही अच्छा समर्थन दिया था, लेकिन अर्णब के चैनल की कोई सानी नहीं.

लेकिन बेचारे अर्णब को हुआ क्या है!! कल तो वे रविवार की छुट्टी मनाते रहे और आज (सोमवार) को जब वे नौ बजे के अपने खास कार्यक्रम में नज़र आये भी तो सिर के बल खड़े दिखाई दिये. आखिर वे क्या साबित करने के लिए यह परिचर्चा कर रहे थे? क्या उन्हें पता नहीं कि वो सीडी सिरे से ही फर्जी है. और बुरी नीयत के साथ जारी की गयी है. वो भी जन-लोकपाल विधेयक के लिए बनी समिति की पहली बैठक के ठीक एक दिन पहले उसे जारी किया गया. इस साजिश को राजनीति और कूटनीति का कोई भी बच्चा समझ सकता है, फिर अर्णब और उनका टाइम्स नाऊ क्यों नहीं समझ सका?

क्या इस नासमझी की वजह यह तो नहीं कि टाइम्स नाऊ की मूल कंपनी के तथाकथित बड़े अखबार ने भी उस सीडी को खरा बताते हुए खबर प्रसारित कर दी थी? ज़रूर वजह यही होगी. वर्ना अर्णब जैसा तेजस्वी पत्रकार ऐसी घिनौनी बहस नहीं करवाता. घिनौनी इसीलिए कि अरविन्द केजरीवाल जैसे भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा को ही कई बार उन्होंने कठघरे में खड़ा कर दिया था, जबकि विनोद शर्मा जैसे कांग्रेसी पत्रकार को खुलकर बोलने की इज़ाज़त दे दी गयी.

विनोद शर्मा की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न


जारी......

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सोनिया चुप क्यों?

कांग्रेसी नेताओं और उनके अमर सिंह जैसे भ्रष्ट साथियों ने अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी महा-आंदोलन के खिलाफ चरित्र हनन का साजिशाना अभियान चला रखा है, लेकिन कांग्रेस-संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी ने चुप्पी साध रखी है. प्रधानमंत्री भी चुप हैं. जबकि ये दोनों और राहुल गांधी ने अब जोर-शोर से खुद को सबसे बड़ा भ्रष्टाचार विरोधी सेनानी बताना शुरू कर दिया है. इसके बाद भी इन लोगों ने कांग्रेसी नेताओं के षड्यंत्र पर मौन साध रखा है.

आज अन्ना हजारे ने पत्र द्वारा सोनिया गाँधी से इसका जवाब चाहा है. उनका सवाल है कि क्या वे यानि सोनिया कांग्रेस महामंत्री दिग्विजय सिंह के बयान से इतेफाक रखती हैं? गौरतलब है कि दिग्गी राजा ने समिति और इसके सदस्यों को बदनाम करने के लिए अनाप-शनाप आरोप लगाए थे, जिनके कोई प्रमाण पेश नहीं किये गए. न कोई हिसाब-किताब पेश किया गया. उनका यह भी कहना था कि अन्ना के अनशन के लिए ५० लाख रुपये खर्च हुए. जिस दिग्गी राजा को कांग्रेस सरकार के लाखों करोड के घोटाले दिखाई नहीं देते, उसे ५० लाख का खर्च खटकने लगा है. हैं हैरानी की बात! इसे कहते हैं चोर मचाये शोर!! और फिर उन्होंने इस ५० लाख का ब्योरा भी पेश नहीं किया है. ये पैसे कहाँ से आये, इस महान सज्जन दीग्गी को इस बात की भी जानकारी नहीं! किसी गंजेड़ी-भंगेड़ी की तरह वे कुछ भी अनाप-शनाप प्रलाप किये जा रहे हैं.

बहरहाल अन्ना हजारे ने सोनिया से पूछा है कि क्या वे दिग्विजय के उक्त बयान और चरित्र हनन अभियान से सहमत हैं? इस सवाल का जवाब सोनिया को देना ही होगा, वरना लोगों में यही सन्देश जाएगा कि खुद सोनिया और मनमोहन के इशारे पर यह साजिशाना मुहिम चल रही है.

इसके अलावा मनमोहन सिंह और राहुल गाँधी को भी चाहिए कि वे अपने भ्रष्ट कांग्रेसियों से ऐसी मुहिम बंद करने को कहें और जो लोग ऐसी मुहिम में शामिल पाए जाएँ उन्हें पार्टी से बर्खास्त करके उनकी पूरी संपत्ति पर जांच बिठा दी जाय. ऐसा करके ये लोग खुद को सचमुच का ईमानदार साबित करेंगे. और नहीं किया तो आम आदमी इन्हें भी भ्रष्टों की कतार में खडा देखेगा.

राहुल गाँधी हीरो बने बिना भी ऐसे षड्यंत्रकारी कांग्रेसियों की नकेल कस ही सकते हैं. काम पर यकीन करने वाले राहुल को यह काम तुरंत करना चाहिए. काम खुद दिखता है. वे काम करेंगे तो दिखेगा भी. आज तक उन्होंने कोई काम किया ही नहीं तो दिखता कैसे? है न! और जो दिख रहा है वो है महा-भ्रष्टाचार. कांग्रेस-संप्रग-मनमोहन-सोनिया-राहुल सरकार का महा-भ्रष्टाचार!!!

अब तो काम दिखाओ भई.

और एक हैं महाधूर्त सिब्बल. इनके चेहरे से ही धूर्तता टपकती है. एक तरफ अन्ना-अन्ना कहते उनकी जुबान नहीं थकती तो दूसरी और अन्ना यानि उनके आंदोलन के खिलाफ नित नए ज़हर उगल रहे हैं यानी लोगों में भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं. अन्ना ने सोनिया से यह भी पूछा है कि क्या वे सिब्बल जैसों की बातों का समर्थन करती है? अगर नहीं तो उन्हें रोका क्यों नहीं जा रहा. सांड की तरह क्यों छुट्टा छोड़ रखा गया है. अगर अन्ना आंदोलन के विरुद्ध कांग्रेसी साजिश को तुरंत बंद नहीं किया गया तो जनता यही समझेगी कि इसे सोनिया का आशीर्वाद मिला हुआ है.

अमर सिंह और तिहाड़

मुलायम सिंह यादव ने मुंह खोलकर बड़ा अच्छा काम किया है. इससे वे अमर सिंह और कांग्रेस की साजिशाना मिलीभगत के दायरे से बाहर आ जाते हैं. अनिल अम्बानी को ध्यान में रखकर अमर सिंह ने मुलायम को अपने साथ लेने की यह चाल चली थी. अमर अब मुलायम के साथ फिर से दोस्ती करके भ्रष्टों का कल्याण करना चाह रहे हैं. लेकिन मुलायम सिंह ने उनकी चाल को नाकाम कर दिया है.

मुलायम ने साफ़-साफ़ कह दिया है कि शांतिभूषण से उनकी ऐसी कोई बातचीत नहीं हुई है. अर्थात बाज़ार में डाला गया वह सीडी भी नकली है.

अब बेचारे अमर सिंह का क्या होगा? क्या उन्हें जेल की हवा खानी पड़ेगी? क्योंकि शांति भूषण तो उनके खिलाफ तथा उनके साथ मिले नेतओं-पत्रकारों-अखबारों-चैनलों के खिलाफ भी सर्वोच्च अदालत में मुकदमा करने वाले हैं. और सारे सबूत अमर सहित उनके षड्यंत्रकारी बंधुओं के खिलाफ ही जाते हैं.

तो फिर अमर सिंह जी तिहाड जेल में ए.राजा सहित अन्य अनेक भ्रष्टाचारियों के साथ खिचड़ी खाने को तैयार हो जाइए. वैसे भी आप जैसे भ्रष्टों के लिए वही सही जगह है.


रविवार, 17 अप्रैल 2011

काले अंग्रेजों की साजिश

२००८ में परमाणु समझौते के समय जिस तरह मनमोहन सरकार को बचाने के लिए करोड़ों-अरबों रुपए पानी की तरह खर्च किये गए थे, ठीक उसी तरह इस बार भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और उसके अगुआ लोगों को बदनाम करने के लिए करोड़ों-अरबों रुपए खर्च किये जा रहे हैं. इसमें अब शक नहीं.

उस समय भी मनमोहन सरकार को बचाने के लिए अमर सिंह जैसे "दलाल" किस्म के नेता को लगाया गया था, इस बार भी उन्हीं को इस चरित्र हनन अभियान में लगाया गया है. फर्क सिर्फ इतना है कि उस समय अमर सिंह मुलायम सिंह यादव की पार्टी सपा में थे, जबकि अब वे उस दल में नहीं हैं. लेकिन अचरज की बात है कि मुलायम सिंह जी ने चुप्पी क्यों साध रखी है? उनकी याददाश्त भी क्या अमर सिंह की तरह कमजोर तो नहीं! या फिर वे भी इस चरित्र हनन के षड्यंत्र में अमर सिंह के साथ शामिल हैं? हालांकि अमर सिंह को इस दुष्प्रचार के काम में कुछ बड़े कांग्रेसी नेताओं-मंत्रियों ने ही लगा रखा है. तो क्या इस कांग्रेसी साजिश को मुलायम सिंह का भी समर्थन हासिल है? २००८ में मनमोहन सरकार को अनैतिक ढंग से बचाने में मुलायम ने पूरा साथ दिया था.

प्रशांत २ जी से जुड़ा एक मामला भी लड़ रहे हैं और इसमें अनेक उद्योगपतियों सहित अनिल अंबानी भी शामिल हैं. और अनिल के साथ अमर तथा मुलायम के पुराने गहरे रिश्ते रहे हैं. तो क्या अनिल को बचाने के लिए अमर और मुलायम में एक बार फिर एका हो गया है? और काँग्रेस सरकार तो चाहती ही है कि किसी भी तरह अन्ना हजारे के आंदोलन को बदनाम कर दिया जाय और उनके सिपहसालारों भ्रष्ट साबित करके आंदोलन की रीढ़ तोड़ दी जाय. इसीलिए पहले लोकपाल समिति में नागरिक प्रतिनिधित्व पर वंशवाद के आरोप लगवाए गए, जब यह हथकंडा बेअसर रहा तो अब इसके प्रमुख सदस्यों को भ्रष्ट बताने का कुचक्र शुरू किया गया है. पुरानी नीति है साधु को भी चोर साबित कर दो तो आपकी चोरी-डकैती-लूटमार आसानी से चलती रहेगी. चोरों का दल इस बार भी साधुओं को चोर साबित करने के महा षड्यंत्र में जुट गया है.

इसके लिए करोड़ों-अरबों रुपए पानी की तरह बहाए जा रहे है, वरना तथाकथित "बड़े-बड़े अखबारों" ने कैसे उस जाली सीडी को सही बता दिया. जबकि किसी प्रयोगशाला और विशेषज्ञ के नाम तक नहीं बताए गए. इनमें से एक "बड़ा अखबार" कांग्रेसी पत्रकारों को बड़े-बड़े पदों पर रखा हुआ है. जबकि दूसरा एक "बड़ा अखबार" भी बहुत पहले से ही कांग्रेसी प्रवृत्ति का रहा है, इसके अलावा ये दोनों ही "बड़े अखबार" देश के बड़े पूंजीपतियों के हैं. तो क्या इन पूंजीपति अखबारों ने अपने भ्रष्ट भाइयों (नेताओं और उद्योगपतियों) को बचाने के प्रयास शुरू कर दिये हैं? एक अन्य "बड़ा अखबार" भी शांति भूषण को बदनाम करने की साजिश में शामिल दिखता है. इससे ऐसा ही लगता है कि इस देश के भ्रष्टों की शक्तिशाली टोली पूरे दम ख़म के साथ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को तोड़ने की साजिश में जुट गयी है. इसमें अमर सिंह जैसे लोग महज मोहरा हैं. इन अखबारों को कितने में खरीदा गया? ये लोग दो-चार करोड में तो बिकने वाले नहीं हैं, तो फिर इन्होने कितने अरब में अपनी पत्रकारिता बेचीं ? इन सबकी जांच होनी चाहिए.

बहरहाल, प्रशांत भूषण के प्रेस सम्मेलन से यह पूरी तरह साफ़ हो जाता है कि उनके पिता शांति भूषण के विरुद्ध जारी किया गया ऑडियो सीडी जाली है और उसे इधर-उधर से जोड़ा गया है. इस सिलसिले में प्रशांत ने अमेरिका और हैदराबाद की दो विख्यात तथा विश्वसनीय प्रयोगशालाओं से कराई गयी जांच को भी सामने रखा. उनसे साफ़ हो गया कि किस तरह २००६ में मुलायम सिंह और अमर सिंह के बीच हुई एक बातचीत की सीडी के कुछ हिस्से को काटकर एक नयी सीडी बनायी गयी और उसमें शांति भूषण जी की अन्यत्र कही गयी कुछ वाक्य जोड़ दिये गए.
इस बारे में प्रशांत ने विस्तार से दोनों सीडी के हिस्से सुनवाए और उनकी अनेक कापियां प्रेस में वितरित भी की गयी.

अब वे उच्चतम न्यायालय में इस सिलसिले में अदालत की अवमानना से संबंधित एक मुकदमा करने जा रहे हैं, ताकि मामले की जड़ तक जाया जा सके और जाली सीडी जारी करने वाले तथा उसे सही बताने वालों को सज़ा हो सके और उन्हें जेल भेजा जा सके.

प्रशांत ने साफ़-साफ़ कहा है कि मीडिया के कुछ लोग भी इसके लपेटे में आयेंगे, क्योंकि वे भी इस साजिश में शामिल हैं.

बहरहाल, आम लोगों को इस षड्यंत्र से सावधान रहते हुए भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन को और भी मजबूत बनाने के काम को आगे बढ़ाना चाहिए. गोरे अंग्रेजों ने आज़ादी की लड़ाई को तोड़ने के लिए अनेक साजिशें की थीं, लेकिन अंततः उनकी हार हुई. इन काले अंग्रजों के षड्यंत्रों को नाकाम बनाते हुए इन्हें भी करारी शिकस्त देनी होगी.

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

महायज्ञ और असुरों की टोली

भ्रष्टाचार विरोधी महायज्ञ आरंभ हो चुका है. इसे नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए राक्षसों की टोली भी जोर-शोर से सक्रिय हो चुकी है.

एक बार फिर से अमर सिंह को मुखौटे के रूप में इस्तेमाल करके भ्रष्टाचारी ताकतें अपने बचाव में जुट गयी हैं. इसी अमर सिंह ने सांसदों को खरीद कर मनमोहन-सोनिया सरकार को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. इस बारे में सबको पता है. यह एक खुला रहस्य है.

अब फिर उसी अमर सिंह को तमाम भ्रष्टाचारियों ने आगे कर दिया है. सिर्फ वही नहीं, शरद पवार की पार्टी के विभिन्न नेता, लालू प्रसाद के राजद के नेता, डीएमके नेता, शिव सेना नेता, और सर्वोपरि कांग्रेस नेता भी किसी न किसी रूप में इस महायज्ञ को नष्ट-भ्रष्ट करने में दिन-रात एक किये हुए हैं. खबरों की खबर रखने वालों को इन सारी बातों का पता है. इस ब्लॉग के कुछ आलेखों में भी इसका जिक्र किया गया है.

जन लोकपाल समिति की पहली बैठक के ठीक पहले जिस तरह से इस समिति के एक अध्यक्ष श्री शांति भूषण के खिलाफ सरासर झूठा ऑडियो कैसेट जारी किया गया, उससे जाहिर हो जाता है कि देश को लूटने वालों की टोली समिति के नागरिक सदस्यों को बदनाम करने के लिए कोई भी हथकंडा अपना सकते हैं. उनके पुत्र और जनता के पक्ष में तथा भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने वाले प्रशांत भूषण ने इस पर साफ़-साफ़ अपनी और अपने पिता का पक्ष रखा है. जिसका जवाब न तो अमर सिंह ने दिया और न ही अन्य किसी ने. इस तरह के भ्रमित करने वाले और झूठे आरोपों से आम लोगों को बचकर रहने और इस भ्रष्टाचार विरोधी माह-आंदोलन को इसकी अंतिम मंजिल तक पहुंचाने की जरुरत है.

फिलहाल इतना ही. बाद में और भी.

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गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार का दूसरा नाम शरद पवार

शरद पवार को बिना देर लगाए तुरंत केंद्र सरकार से निकाल देना चाहिए, वरना और न जाने कितने भ्रष्टाचार के मामले सामने आएँगे.

जहाँ भी हाथ डालो शरद पवार का भ्रष्टाचार सामने आ जाएगा. खाद्य पदार्थों की अंधाधुंध महँगाई की बात हो या आईपीएल के महा घोटाले की या २ जी घोटाले की बात हो या तेलगी का अरबों का घोटाला. सब जगह पवार और उसके परिवार और उसके दल के नेताओं का नाम पाया जा सकता है.
प्याज, अंगूर, चीनी, सहित तमाम तरह के खाद्य पदार्थों की कीमत बढ़ाकर करोड़ों रुपए कमाने वाले पवार एंड कम्पनी ने ग़रीबों के मुंह से निवाला छीन लेने का दुष्कर्म किया है. ऐसे मंत्री को मनमोहन सिंह की भ्रष्ट सरकार ही बर्दाश्त किये हुए हुई. वरना कोई अन्य सरकार होती तो पवार को कबका मंत्रिमंडल से धकिया दिया जाता. "गठबंधन धर्म" का नाम लेकर मनमोहन-सोनिया इस महा-भ्रष्टाचारी को पाल-पास रहे हैं.
दरअसल, पवार के जरिए खुद कांग्रस भी अपना उल्लू सीधा कर रही है. ध्यान दें कि पहले सिर्फ पवार को महंगाई का दोषी ठहराया जाता था, लेकिन बाद में खुद प्रणव मुखर्जी, मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी शरद पवार की बोली बोलने लग गए .

शरद पवार जिस तरह सिर से पाँव तक भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं ठीक उसी तरह पूरी कांग्रेस भी. प्रधान मंत्री की नाक तले सारे भ्रष्टाचार होते हैं, लेकिन बेचारे भोले-भाले, ईमानदार, स्वच्छ मनमोहन को इसका पटा ही नहीं चलता!
शरद को हटाया तो पूरी कांग्रेस का भ्रष्टाचार भी एक-एक कर सामने आ जाएगा. ए. राजा के हटाने से पहले भी कांग्रेस इसी दुविधा में थी. लेकिन करूणानिधि के साथ किसी अंदरूनी "समझौते" के तहत ए. राजा को गिरफ्तार करके मनमोहन-सोनिया खुद को बड़े शुद्ध दिखाने में जुट गए. लेकिन पवार के ऊपर कोई "करूणानिधि" नहीं है. वे खुद ही सर्वेसर्वा हैं. ऐसे में उन्हें हटाना लगभग असंभव है, क्योंकि उनका मुंह बंद नहीं किया जा सकता.

ऐसी हालत में इस मनमोहन-सोनिया-राहुल सरकार को ही हटाना जरुरी हो गया है. पवार, मनमोहन, सोनिया, राहुल, करूणानिधि, ममता, फारुख आदि सभी एक ही भ्रष्ट थैली के चाटते-बट्टे हैं. ममता का नाम यहां इसीलिए लिया गया क्योंकि सारे भ्रष्टाचार उनकी आंखों के सामने एक-एक कर सामने आ रहे हैं और वे गांधी की तीन बन्दर की नकल कर रही हैं. यह उनका असली चेहरा है.

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

राजा-कलमाडी के भाई-बंधुओं का एका

भ्रष्टाचार विरोधी देश व्यापी आंदोलन के खिलाफ ए.राजा और कलमाडी के भाई-बंधुओं ने एकजुट होकर इस आंदोलन में फूट डालने की साजिश शुरू कर दी है.
इसी सिलसिले में सबसे पहले भाई-भतीजावाद का आरोप लगाया गया. जबकि ऐसी कोई बात नहीं है. नागरिकों की ओर से पांच सदस्यों में दो व्यक्ति रिश्ते में पिता-पुत्र हैं. लेकिन इन दोनों का इतिहास जनता के पक्ष में लड़ने और जनता के पक्ष में ही क़ानून का इस्तेमाल करने की है. दोनों ही क़ानून के बड़े पंडित हैं और इन दोनों से ही यह कांग्रेसी सरकार भयभीत रहती है. यह बात सभी जानते हैं, इसीलिए इस पर विस्तार से लिखने की जरुरत नहीं.
इस समिति में नागरिकों की ओर से एक ऐसे व्यक्ति भी हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार मुद्दे पर कर्नाटक की भाजपा सरकार की नाक में दम कर रखा था और अब भी ऐसा ही कर रहे हैं. अन्ना हजारे ने उन्हें भी इस समिति में शामिल किया है. ऐसे में कांग्रेसियों द्वारा उनके खिलाफ चलाया जा रहा यह दुष्प्रचार कि अन्ना हजारे भाजपा या आरएसएस के आदमी हैं, सरासर दुर्भावना से प्रेरित है. इससे इस कांग्रेसी सरकार की मंशा सामने आ जाती है.

अन्ना हजारे ने इससे पहले महाराष्ट्र की भाजपा-शिवसेना सरकार के खिलाफ भी बड़ा आंदोलन चलाया था, उस कारण भी उस सरकार को सत्ता से बाहर होना पड़ा. इसीलिए हजारे को भाजपा की कठपुतली कहने वाले जरुर ही भ्रष्टाचारियों के दलाल हैं या खुद ही भ्रष्टाचारी हैं. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि शिवसेना को अन्ना हजारे का यह आंदोलन उतना पसंद नहीं है. इसीलिए उसके कई नेताओं ने इस आंदोलन से कोई फायदा नहीं होने की बात कही है. ऐसी बात कांग्रेसी सिब्बल भी कह रहे हैं. जन लोकपाल क़ानून से कांग्रसियों को जितनी फ़िक्र है, उतनी ही शिव सेना नेताओं को भी है. एन सी पी और द्रमुक नेताओं को तो है ही, क्योंकि कांग्रसियों के साठ मिलकर इन दोनों संप्रग दलों ने भी देश को जमकर लूटा है और अभी भी लूट रहे हैं.

बहरहाल, अन्ना ने नितीश कुमार के साथ नरेन्द्र मोदी के ग्रामीण विकास की क्या तारीफ़ कर दी, फूट परस्तों को एक और "सुनहरा मौक़ा" हाथ लग गया.

इसमें कोई शक नहीं कि नितीश कुमार ने बिहार की गाडी को पत्री पर लाने का काम किया है. अभी मंजिल बहुत दूर है, लेकिन उलटी दिशा में जा रही गाडी को सही दिशा में मोड देना भी एक बड़ा काम है, इसके लिए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की ही जानी चाहिए. उन्होंने रिश्वत के दलदल में डूबे बिहार को थोड़ा बाहर निकालने का भी काम किया है. हालांकि यह काम एक हद तक ही हुआ है, अभी और भी अनेक काम होने हैं.
जहाँ तक मोदी की बात है तो गुजरात दंगों की जितनी आलोचना की जाय कम होगी. इस लेखक सहित अनेकानेक लोगों ने उस दंगे की कटु से कटु आलोचना की है. और अब भी कर रहे हैं. लेकिन गुजरात में हो रहे विकास की अनदेखी भी नहीं की जा सकती. करनी भी नहीं चाहिए. जिस वक्त केंद्र की मनमोहन-सोनिया सरकार सहित विभिन्न राज्य सरकारें जनता के खजाने को लूटने में लगी हुई हैं और विकास के नाम पर लोगों को "भीख" में चावल दिया जा रहा है, मतदाताओं को हजार-हजार रुपए देकर उनके वोट खरीदने की कोशिश हो रही है, तब गुजरात में ज़रा स्वच्छ प्रशासन देने के प्रयास किये जा रहे हैं. राज्य के खजाने से ग्रामीण विकास, नागरिक सुविधाएं दी जा रही हैं, तो उसकी तारीफ़ होनी ही चाहिए. इसमें कहीं से कोई गलत बात नहीं है.

जहां तक साम्प्रदायिकता की बात है तो अन्ना हजारे ने एक दिन पहले एक बार फिर कहा है कि वे साम्प्रदायिकता के सख्त विरोधी हैं. और उन्होंने गुजरात दंगों की आलोचना भी की थी. और अभी भी करते हैं. साथ ही उन्होंने आम लोगों से अपील की है कि भ्रष्टाचारियों के बहकावे में न आयें और आंदोलन को मजबूत बनाने के काम में जुटे रहें.

मल्लिका साराभाई और मेधा पाटकर ने भी मोदी के संदर्भ में अन्ना की आलोचना की है. तो अब ऐसे लोगों को अन्ना की सफाई सुनकर शांत हो जाना चाहिए और इस आंदोलन को शक्तिशाली बनाने के काम को आगे बढ़ाना चाहिए. ऐसे अग्रणी लोगों को बचकाने तरीके से अपना क्षोभ इस तरह प्रकट करके आंदोलन को कमजोर बनाने का काम नहीं करना चाहिए. आंदोलन में फूट पडी या यह आंदोलन कमजोर पड़ा तो ऐसे लोगों को इतिहास माफ नहीं करेगा.

मेधा पाटकर को इस बात का भी दुःख है कि वे जिस मोदी सरकार के खिलाफ नर्मदा आंदोलन चला रहीं हैं, अन्ना ने उसी मोदी की तारीफ़ करके बहुत बड़ा पाप कर दिया है. अन्ना के संदर्भ को उन्होंने या तो समझा ही नहीं या समझकर भी वे नासमझ बन रही हैं. यह बात ठीक नहीं है. इस वक्त हजारे का मकसद जन लोकपाल क़ानून बनाना है. वे इसी सिलसिले में सारे काम कर रहे हैं. साथ ही उन्होंने चलते-चलाते देश के सर्वांगीण विकास की भी चर्चा कर दी. पूछे गए एक सवाल पर उन्होंने नितीश तथा मोदी के ग्रामीण विकास को एक आदर्श के रूप में पेश कर दिया. इसमें क्या बुरा किया. बात बस ग्रामीण विकास तक की ही है. और कुछ नहीं. इसे जबरन राजनीतिक रूप देने वाले खुद ही कोई साजिश कर रहे हैं या भ्रमित हैं या किसी हीनता के शिकार हैं.

गुजरात में हो रहा विकास निश्चित तौर पर पूंजीवादी विकास ही है. इसका बड़ा फायदा बड़े पूंजीपतियों को ही मिल रहा है. मोदी एक पूंजीवादी नेता ही हैं. और अन्ना हजारे भी कोई कम्युनिस्ट नहीं हैं. वे इसी पूंजीवादी व्यवस्था के तहत कुछ ऐसे जनतांत्रिक सुधर के लिए संघर्ष कर रहे है ताकि हमारा यह देश चोर-लुटेरों-बदमाशों का पूरा स्वर्ग न बन जाय. (वैसे मनमोहन ने इन चोरों-लुटेरों के लिए इसे जन्नत बनाने के सारे उपाय कर रखे हैं. ) अन्ना इतना ही चाह रहे है कि आम जनता भूखी न रहे, आत्महत्या न करे. और इसके लिए सबसे पहले नासूर बन चुके भ्रष्टाचार को कम करना या समाप्त करना अनिवार्य रूप से जरुरी है. मोदी के शासन में भ्रष्टाचार पर एक बड़े हद तक लगाम लगा रखी गयी है. पूंजीवादी विकास के लिए भी भ्रष्टाचार पर रोक लगाना जरुरी होता है. इसीलिए तो कई पूंजीपतियों ने भ्रष्टाचार पर गंभीर चिंता जाहिर की है, (यह और बात है कि एक के बजाय सौ या हज़ार का फायदा लेना भी भ्रष्टाचार ही है.)

फूट डालने वाली शक्तियां पूरे जोर-शोर से सक्रिय हो गई हैं. जागरूक व ईमानदार लोगों को सावधान रहने और ऎसी किसी भी साजिश को नाकाम करने की जरुरत है.

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

सिब्बल की बौखलाहट का राज!

सिब्बल महाशय बौखलाए हुए हैं. उन्हें जन लोकपाल क़ानून से कोई फायदा होता नहीं दिखता. सही बात है. जन लोकपाल क़ानून से सिब्बल सहित तमाम कांग्रेसियों और तमाम भ्रष्ट नेताओं तथा अन्य भ्रष्टों को कोई लाभ नहीं होने वाला है, बल्कि भारी नुकसान ही होगा. ये लोग लाखों-करोड़ों-अरबों का घोटाला नहीं कर पाएंगे.

ऊपर से जेल की हवा भी कहानी पड़ेगी, क्योंकि अब तक जो घोटाले हुए हैं उनकी भी तो जांच होनी है. सिब्बल सहित सभी कांग्रेसियों तथा अन्य नेताओं की पूरी नामी-बेनामी संपत्ति की जांच होगी. उनके परिवार की आय की भी जांच होगी. ऐसे में सिब्बल जैसे नेताओं-कांग्रेसियों को इस क़ानून से फायदा भला कैसे मिलेगा!!

अन्ना ने जब उनसे इस्तीफा मांग लिया तो वे बड़े मासूम बच्चे की तरह प्रेस से कहते हैं, "मैंने तो यह कहा था कि ग़रीबों की समस्याएं लोकपाल क़ानून से समाप्त नहीं होने वाली. इस क़ानून से भ्रष्टाचार दूर होगा. लेकिन सारी समस्या दूर नहीं होगी." सही बात!! और जीवन के हर क्षेत्र में फैला है यह भ्रष्टाचार. भ्रष्टाचार दूर होने से अनेक समस्याएं वैसे ही दूर हो जाएंगी या नहीं तो कम से कम कम तो हो ही जाएंगी.

जैसे कि कालाबाजारी, जमाखोरी, सट्टेबाजी पर रोक लग जाय तो महंगाई पर भी लगाम लग जाएगी. महंगाई कम होने से ग़रीबों को दो जून का भोजन भर पेट मिल सकेगा. तो एक समस्या थोड़ी कम हुई या नहीं.

जैसे कि सिब्बल के निजी स्कूलों द्वारा अनाप-शनाप चंदे लेने बंद करवा दिये जाएं तो मध्य वर्ग की मुश्किलें ज़रा कम हो जाएंगी. इस तरह के चंदे भी तो भ्रष्टाचार ही हैं.

तो सिब्बल जी, जन लोकपाल क़ानून आने से जनता की अनेक समस्याएं कम होंगी और दूर भी होंगी. आप लोग बिना हिला-हवाला किये बिना एक बहुत ही कड़ा क़ानून तो बनने दें. आप लोग तंग अडाते रहेंगे तो जनता की समस्याएं दूर कैसे होंगी.

सिब्बल की बौखलाहट का राज!

ईमानदारों का चुनाव लड़ना जरुरी

प्रिय श्री अरविन्द केजरीवाल जी,

सप्रेम वंदे.

कल एक पत्र दिया है. आपने और अन्ना साहेब ने देखा होगा.

आप लोगों को विभिन्न स्थानों में चुनाव लड़ने के मामले में बोलते हुए सुन रहा हूं.

इस बारे में मैं आप लोगों से कुछ कहना चाहता हूं.

आपलोग बार-बार यह कह रहे हैं कि मैं चुनाव में खड़ा हुआ तो मेरी जमानत तक जब्त हो जाएगी. सही बात है. लेकिन, इतना भर कहने से लोगों का मार्गदर्शन नहीं होने वाला.

आपलोगों ने यह भी कहा है कि अभी जनता ने अपने वोट की कीमत नहीं जानी है. वह सौ रुपए या शराब की एक बोतल के बदले भ्रष्टाचारियों को अपना वोट दे दिया करती है.यह भी सही बात है. लेकिन इससे भी काम पूरा नहीं होता. वैसे इस तथ्य से अधिकांश लोग अवगत हैं.

यह सही है कि फिलहाल जन-लोकपाल क़ानून के लिए संघर्ष चल रहा है. मगर, खुद अन्ना साहेब ने कहा है कि इसके बाद चुनाव सुधार, राईट टू रीकॉल जैसे मुद्दे भी उठाये जाने वाले हैं. तो जब चुनाव लड़ने की बात आती है तो चुनाव सुधार पर जरा विस्तार से अपनी बात रखना जरुरी है. जैसे कि चुनाव को कम से कम खर्चीला बनाने के लिए कड़ा क़ानून बनाने की बात भी कही जानी चाहिए.

चुनाव कम खर्चीला होगा तो भ्रष्टाचार की गुंजाईश भी कम हो जा सकती है. इससे अन्ना जैसे सैकड़ों-हजारों लोग चुनाव लड़कर जीत सकते हैं.

चुनाव को कम खर्चीला बनाने के लिए कड़ा क़ानून बने. और जो इसका उल्लंघन करे उसका नामांकन वापस ले लिया जाय और उसे जेल की सजा हो.

इस तरह के अन्य अनेक प्रावधानों के जरिए वर्तमान चुनाव प्रक्रिया में जनतांत्रिक सुधार किये जा सकते हैं. मुझे पता है यह भी बहुत मुश्किल लड़ाई है, मगर आपलोग इस मुश्किल लड़ाई को आसान बना देंगे.

एक बात और. यह सही है कि फिलहाल आपलोगों को चुनाव नहीं लड़ने चाहिए. लेकिन इसे अपना स्थायी सिद्धांत बना लेना भी उचित नहीं होगा. क्योंकि ईमानदार-कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति अगर सक्रिय राजनीति नहीं करेंगे तो कोई भी क़ानून सही ढंग से लागू नहीं हो सकेगा. इसीलिए आपलोग जो देशव्यापी संगठन बनाने जा रहे हैं, उसे आज नहीं तो पांच-छः साल बाद ही सही चुनाव में उतरना चाहिए. सही-ईमानदार-देशभक्त लोगों का संगठन अगर देश की सत्ता पर काबिज होगा तो करोड़ों भूखे-नंगे देशवासियों की स्थिति में बेहतरी के अनेक रास्ते खुल जाएंगे.

छोटा मुंह बड़ी बात! अन्ना जी से जरुर कहें कि अभी जो उन्हें आनंद मिल रहा है, सत्ता पर आने के बाद करोड़ों लोगों को दो जून की रोटी-दाल-सब्जी-दूध-फल देने से इससे कहीं अधिक आनंद मिलेगा. यह आनंद शब्द मैंने अन्ना जी के बयान से ही लिया है, तब आप और किरण बेदी जी भी वहां मौजूद थे. महात्मा गांधी की तरह या लोकनायक जयप्रकाश की तरह सत्ता से बाहर रहने की जिद ठान लेने से काम नहीं चलेगा. इससे भ्रष्टाचारी नेता और दल खुश होते हैं और देश को जहन्नुम की ओर ले जाते हैं। अब तक ऐसा ही होता रहा है और अभी भी यही हो रहा है।

अंतिम बात. नरेंद्र मोदी और नितीश कुमार यथासंभव बेहतर काम कर रहे हैं, इसमें शक नहीं. ग्राम विकास या भ्रष्टाचार के सिलसिले में उनकी तारीफ़ भी की जानी जरुरी है. नितीश कुमार एक हद तक और नरेंद्र मोदी बड़े हद तक भ्रष्टाचार विरोधी शासन चला रहे हैं. उन्होंने मिसाल कायम की है. लेकिन चुनाव के मामले में तानाशाही लादना उचित नहीं. जिसे मर्जी वोट दे या न दे. वोट नहीं देने पर कोई दंड देने का प्रावधान सरासर हिटलरवादी रवैया है. इसके लिए मोदी की आलोचना होनी चाहिए. लोगों को जागरूक बनाकर ही शत-प्रतिशत मतदान करवाना जनतांत्रिक होगा.

इसके अलावा अन्ना तथा आप सबों को गुजरात दंगों की सख्त आलोचना भी करनी चाहिए. इससे आम लोगों पर अच्छा असर पड़ेगा. कहने का मतलब यह नहीं कि दंगों की आलोचना को ही मुख्य मुद्दा बनाकर असली मुद्दों से लोगों का ध्यान मोड दिया जाय, जैसा कि काँग्रेस और उसके भ्रष्ट समर्थक कर रहे हैं.

इति.

आप सबका अपना ही-

किरण (शंकर) पटनायक

कोलकाता.