यह ब्लॉग खोजें

शनिवार, 2 जुलाई 2011

मैं एक नास्तिक क्यों हूं?- शहीद भगत सिंह

Navneet Kumar Mehta

मैं एक नास्तिक क्यों हूं?

एक नया सवाल उभर कर आया है। क्या मैं एक मिथ्याभिमान के कारण सर्वशक्तिमान, विश्वव्यापी,त्रिकालदर्शी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता?मैं ने कभी यह कल्पना तक नहीं की थी कि मेरा सामना ऐसे किसी प्रश्न से होगा। लेकिन कुछ मित्रों के साथ बातचीत के दौरान मुझे यह संकेत मिला कि मेरे कुछ साथी, जिनके बारे में मैं ज्यादा समझने का दावा नहीं करता और जिनसे कि मेरा बहुत कम सम्पर्क रहा था, वो यह सोचने पर विवश थे कि मेरे द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को नकार देना मेरे द्वारा की गई एक ज्यादती थी तथा साथ ही कुछ अंश मिथ्याभिमान का भी था जिसने मुझे अविश्वास की ओर प्रवृत्त किया है। खैरसमस्या थोडी ग़म्भीर है। मैं यह भी नहीं कहता कि मैं इन सब मानवीय गुणों से परे हूं। मैं एक पुरुष हूं, उससे अधिक कुछ नहीं। उससे अधिक होने का कोई भी दावा नहीं कर सकता। मेरे अन्दर भी यह कमजोरी है। मिथ्याभिमान भी मेरे स्वभाव का एक छोटा सा हिस्सा है। मैं अपने कॉमरेड्स के बीच तानाशाह के नाम से जाना जाता था। यहां तक कि मेरे मित्र श्री बी के दत्त ने भी कभी कभी मुझे ऐसा कहा। कुछ अवसरों पर मैं एक आततायी के रूप में भी कोसा गया। मेरे कुछ मित्र बडी ग़ंभीरता से शिकायत करते थे कि मैं उनकी इच्छा के विरुध्द उन पर अपनी राय थोपता था और अपने प्रस्ताव स्वीकार करा लेता था। हालांकि कुछ अंश तक यह सच भी है, मैं इस बात से इनकार नहीं करता। यह अहम का भाव भी हो सकता था। मेरे अन्दर मिथ्याभिमान है वैसा ही जैसे कि हमारे क्रान्तिकारी समुदाय में है जो कि दूसरे लोकप्रिय मतानुयायियों में नहीं है। किन्तु यह व्यक्तिगत अहम् नहीं है। शायद यह हमारे क्रान्तिकारी समुदाय का वैधानिक गर्व है जो कि मिथ्याभिमान कदापि नहीं हो सकता।

मिथ्याभिमान और अगर ज्यादा सटीक होकर कहें तो अहंकार स्वयं में व्यर्थ गर्व की अत्याधिक भावना को कहते हैं। या तो यह व्यर्थ अभिमान का ही भाव है जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया या फिर यह इस विषय पर किया गया गहन अध्ययन व चिन्तन मुझे ईश्वर में अविश्वास के निष्कर्ष पर लेकर आया है, यही एक प्रश्न है, जिसकी मैं यहां पर चर्चा करना चाहता हूं। सर्वप्रथम मुझे यह स्पष्ट करने दें कि स्वाभिमान और मिथ्याभिमान दो अलग अलग चीजें हैं।
सबसे पहले, मैं यह समझने में असफल रहा हूं कि व्यर्थ का अभिमान और व्यर्थ की भव्यता भी कभी ईश्वर को मानने की राह में आडे अा सकती है। मैं किसी महान आदमी की महानता को पहचानने से इनकार कर सकता हूं अगर मैंने भी बिना किसी योग्यता के, बिना उन गुणों को प्राप्त किये जो कि इस उद्देश्य के लिये अति आवश्यक हैं, कुछ हद तक लोकप्रियता हासिल की हो। इतना तो सोचा जा सकता है। लेकिन किस प्रकार एक भगवान में विश्वास करने वाला व्यक्ति, अपने मिथ्याभिमान के कारण विश्वास करना बन्द कर सकता है? इसके दो ही कारण हैं। या तो व्यक्ति स्वयं को भगवान का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या फिर स्वयं को ही भगवान मान ले। इन दोनों ही स्थितियों में वह एक सच्चा नास्तिक नहीं हो सकता। पहले मामले में वह भगवान के अस्तित्व को नकार नहीं रहा और दूसरे मामले में भी वह यह स्वीकार करता है कि कोई तो चैतन्य अस्तित्व है जो परदे के पीछे से प्रकृति के सारे क्रियाकलापों को नियन्त्रित करता है। यहां यह महत्वहीन है कि या तो वह स्वयं को परमात्मा समझे या वह यह सोचे कि परमात्मा कोई है जो उससे भिन्न है। यहां उसका मूल उपस्थित है। यहां उसका विश्वास है। वह किसी भी अर्थ में नास्तिक नहीं। और मैं दोनों में से किसी वर्ग से ताल्लुक नहीं रखता।


मैं परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास को ही अस्वीकार करता हूं। मैं यह क्यों अस्वीकार करता हूं, इस बारे में बाद में चर्चा करेंगे। यहां मैं एक चीज स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि यह मिथ्याभिमान कतई नहीं है जिसने कि मुझे नास्तिकता के मत की ओर प्रेरित किया। न तो मैं उस परमात्मा का प्रतिद्वन्द्वी हूं, न ही कोई उसका अवतार और न ही स्वयं परमात्मा हूं। यहां यह बिन्दु स्पष्ट हो चुका है कि किसी अभिमान की वजह ने मुझे इस सोचने के तरीके की ओर नहीं ढकेला है। मुझे सत्यों की जांच कर लेने दें ताकि मैं अपने ऊपर लगे इन आरोपों को गलत सिध्द कर सकूं। मेरे इन मित्रों के अनुसार मैं वृथाभिमान के साथ बडा हुआ हूंशायद अनापेक्षित लोकिप्रियता प्राप्त करने की वजह से जो कि मुकदमों के दौरान दोनों केसों, दिल्ली बम काण्ड तथा लाहौर काण्ड के बाद मिली थी। ठीक है चलिये देखते हैं कि क्या उनके वक्तव्य सही है!


मेरी नास्तिकता अभी हाल ही में नहीं आरंभ हुई है। मैंने ईश्वर में विश्वास करना तभी छोड दिया था जब मैं एक अप्रसिध्द युवक था, जिसके अस्तित्व के बारे में मेरे उल्लेखित मित्रों को कुछ पता भी नहीं था। कम से कम एक कॉलेज का सामान्य छात्र तो अनपेक्षित अहंकार को पोषित नहीं कर सकता जो कि उसे नास्तिकता की ओर ले जाये। हालांकि कुछ प्रोफेसर्स का मैं प्रिय छात्र था और कुछ मुझे नापसन्द करते थे, मैं कभी एक परिश्रमी तथा पढाकू लडक़ा नहीं रहा। मुझे ऐसा कोई मौका ही नहीं मिला कि मैं वृथाभिमान जैसी किसी भावना में डूबता। बल्कि मैं तो एक शर्मीले स्वभाव का लडक़ा था, जिसका भविष्य को लेकर कोई आशाजनक प्रबन्ध नहीं था। और उन दिनों मैं एक पूर्ण नास्तिक भी नहीं था। मेरे दादा जी जिनके प्रभाव में पला बढा वे घोर आर्यसमाजी थे। और एक आर्यसमाजी कुछ भी हो सकता है पर नास्तिक नहीं। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद मैं पूरा एक साल लाहौर के डी ए वी स्कूल में पढा और हॉस्टल में रहा, वहां सुबह से लेकर शाम की प्रार्थना तक मैं गायत्री मंत्र'' का जाप किया करता था घण्टों तक। तब मैं पूरी तरह श्रध्दालू था। बाद में मैं अपने पिता के साथ रहने लगा। जहां तक धार्मिक रूढिवादिता का सम्बन्ध है वे थोडे स्वतन्त्र विचारों के हैें। यह उनकी ही शिक्षा थी कि मैंने अपना जीवन स्वतन्त्रता प्राप्ति की महत्वाकांक्षा में लगा दिया। पर वे नास्तिक नहीं हैं। वे दृढ विश्वासी हैं। वे मुझे प्रेरित करते थे कि मैं रोज प्रार्थना किया करुं। तो, इस तरह मैं पला बढा। असहयोग आन्दोलन के समय मैंने नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया। यह तभी कि बात है कि मैंने स्वतन्त्र तौर पर सोचना और सभी धार्मिक समस्याओं तथा ईश्वर के बारे में चर्चा और आलोचना करना शुरु किया था। पर तब तक भी मैं धर्मविश्वासी था। तब तक मैं ने अपने अपने लम्बे केशों को बांधना शुरु कर दिया था पर मैं कभी पौराणिक गाथाओं तथा सिख धर्म या अन्य धर्म के मतों में विश्वास नहीं कर सका। पर मेरा दृढ विश्वास था कि ईश्वर का अस्तित्व तो है।


बाद में मैं रिवोल्यूशनरी पार्टी में शामिल हुआ। पहले नेता जिनके सम्पर्क में मैं आया, उनके सामने हालांकि मैं पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाया था किन्तु ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस भी मुझमें न था। मेरे ईश्वर को लेकर दुराग्रही पू छताछ के कारण वे कहा करते, '' जब चाहो प्रार्थना करो।'' अब यह नास्तिकता है,इस समुदाय के मत को स्वीकार करने लिये कम साहस की आवश्यकता होती है। दूसरे नेता जिनके सम्पर्क में मैं आया वे ईश्वर के प्रति दृढ विश्वासी थे। उनका नाम था - आदरणीय कामरेड सचिन्द्र नाथ सान्याल, जो कि आजकल कराची काण्ड के सन्दर्भ में कालापानी की सजा काट रहे हैं। उनकी एकमात्र प्रसिध्द पुस्तक बन्दी जीवन के प्रथम पृष्ठ से ही ईश्वर भव्यता की स्तुति का गुणगान बढाचढा कर किया गया है। इस पुस्तक के दूसरे भाग का आखिरी पृष्ठ वेदान्तिक प्रशंसा और ईश्वर की रहस्यवादिता से ओत प्रोत है जो कि उनके विचारों का एक बहुत ही पवित्र हिस्सा है।


अदालत का फैसला पहले ही से अच्छी तरह पता है। एक सप्ताह में घोषित भी हो जायेगा। इस बात के सिवा कि मैं अपना जीवन एक उद्देश्य के लिये बलिदान करने वाला हूं, मेरे लिये और क्या सांत्वना है? एक भगवान में विश्वास रखने वाला हिन्दू तो दुबारा एक राजा की तरह जन्म लेने, एक मुस्लिम या एक ईसाइ स्वर्ग के सुखों के उपभोग का स्वप्न देख सकता है जो कि उसकी यंत्रणाओं तथा बलिदान का पुरस्कार हो सकता है। लेकिन मैं क्या उपेक्षा करुं? मैं जानता हूं जिस पल रस्सी मेरे गले के चारों ओर लिपटी होगी और मेरे पैरों के नीचे से तख्ता खींच लिया जायेगा, वही निर्णायक क्षण होगा और वही अंतिम क्षण होगा। मैं, सटीक रूप से कहूं तो मेरी आत्मा, जैसा कि पराभौतिक शब्दावली में कहा जाता है, का अन्त हो जायेगा। उसके आगे कुछ भी नहीं।


एक छोटा सा जीवन बिना किसी भव्य अन्त के ही, अपने आपमें एक पुरस्कार है यदि मुझमें इसे इस दृष्टि से स्वीकार करने का साहस हो तो। बस यही सब कुछ है। बिना किसी स्वार्थ के या यहां और यहां से जाने के बाद बिना किसी पुरस्कार की आकांक्षा से, बिना किसी रुचि के क्या मैं ने अपने जीवन को स्वतन्त्रता के लक्ष्य के प्रति इसलिये अर्पित किया है,क्योंकि इसके अलावा मैं कुछ कर ही नहीं सका? जिस दिन हम इस मानसिकता के अनेकों स्त्री और पुरुषों को पाएंगे जो कि अपने आपको मानवता की सेवा में अर्पित कर देंगे और घायल मानवता को दासत्व से मुक्त करा सकेंगे; वही दिन स्वतन्त्रता के युग का प्रारंभ होगा।


न तो एक राजा बनने के लिये, न ही यहां और किसी पुरस्कार के लिये या अगले जन्म में या मृत्यु के बाद स्वर्ग की आकांक्षा के बिना भी यदि वे दमनकारियों,शोषकों तथा गद्दारों को चुनौती देने के लिये प्रेरित रहें वरन् मानवता के गले से दासत्व का पट्टा उतार सकें और स्वतन्त्रता और शान्ति स्थापित करने के लिये वे अपना और अपने स्व का बलिदान कर सकें। इस भव्य काल्पनिक पथ पर स्वयं को इसी प्रकार अग्रसर रखें। क्या उनके इस महान उद्देश्य में जो गर्व की भावना है उसे मिथ्याभिमान कहना क्या एक गलत निष्कर्ष नहीं है? किसका साहस है जो इस तरह के निकृष्ट विशेषण मुंह से निकाले? उसे मैं या तो मूर्ख या कायर कहूंगा। चलिये उसे क्षमा करते हैं कि ना तो उसे इस गहराई का ज्ञान है, न ही उसके मन में भावनाएं तथा पवित्र अनुभूतियां हिलोरें लेती हैं। उसका हृदय मरा हुआ है जैसे कि मांस का एक पिण्ड मात्र, उसकी आंखें कमजाेर हैं, दूसरी रुचियों की बुराइयों से वह घिरा हुआ है। आत्मनिर्भरता को हमेशा मिथ्याभिमान के रुप में निष्कर्षित किया जा सकता है। यह बडा ही दुखद और कष्टदायी है परन्तु इसके सिवा और कोई चारा भी तो नहीं।


तुम जाओ और विरोध करो प्रचलित विश्वास का, तुम जाओ और किसी नायक की आलोचना करो, एक महान व्यक्ति की जो कि सामान्यत: आलोचनाओं से परे समझा जाता है, क्योंकि यह सोचा जाता है कि वह सदैव त्रुटिरहित है, तुम्हारे तर्क की शक्ति ही जनसमुदाय को मजबूर करेगी कि वे तुम्हें वृथाभिमानी न समझें। इसकी वजह मानसिक ठहराव है, आलोचना और स्वतन्त्र चिन्तन एक क्रान्तिकारी के अपरिहार्य गुण हैं। क्योंकि महात्मा जी महान हैं, इसलिये कोई उनकी आलोचना न करे। क्योंकि वे सबसे ऊपर उठ चुके हैं इसलिये वे राजनीति, धर्म, अर्थशास्त्र या नीतिशास्त्र पर जो भी वे कहते हैं वह सही है, चाहे आप उससे सहमत हों या न हों,आपको हमेशा कहना चाहिये, '' हां, यही सत्य है।'' यह मानसिकता प्रगति की ओर नहीं ले जाती। यह प्रत्यक्षरूप से प्रतिक्रियात्मक है।


क्योंकि हमारे पूर्वजों को किसी परमात्मा में विश्वास की अवधारणा को कायम किया था, तो अब कोई भी व्यक्ति अगर इस विश्वास की सत्यता को चुनौती देता है या इसके अस्तित्व को नकारता है तो उसे अधर्मी व पाखण्डी कहा जाता रहा है। अगर उसके तर्क उनके वितर्कों से नहीं काटे जा सकते और उसकी आत्मा भगवान के द्वारा बरपाए जाने वाले अमंगल की धमकियों से विचलित नहीं होती तो उसे मिथ्याभिमानी और उसकी आत्मा को अहंकारी घोषित कर दिया जाता है। तो फिर इस व्यर्थ के वाद विवाद में समय बरबाद करने की आवश्यकता ही क्या है। फिर पूरे विषय की चीरफाड क्यों? यह प्रश्न जनता के सामने पहली बार आया है, और इस तरीके से पहली बार इसे परखा गया है, इसलिये यह लम्बा वादविवाद हुआ।


जहां तक पहले प्रश्न का सवाल है मैं ने यह साफ कर दिया है कि मिथ्याभिमान की वजह से मैं नास्तिक नहीं बना। मेरे तर्क से चाहे सभी सहमत हों या नहीं यह फैसला तो मेरे पाठक ही करेंगे न कि मैं। मैं जानता हूं कि वर्तमान परिेस्थितियों में अगर मेरा ईश्वर में विश्वास होता तो मेरा जीवन आसान, मेरा बोझ हल्का हो जाता, परन्तु मेरे ईश्वर में अविश्वास ने परिस्थियों को काफी कठोर और स्थितियों को कोई आकार देने के लिये कठिनतम बना दिया है। जरा सा रहस्यवाद इसे काव्यमय बना सकता है। लेकिन मैं, किसी किस्म के नशे का सहारा लेकर अपनी नियति का सामना नहीं करना चाहता। मैं वास्तविकतावादी हूं। मैं अपने अन्दर की प्रवृत्तियों पर अपनी सोच की सहायता से काबू पाने की कोशिश करता रहा हूं। पर मैं हमेशा इस पर सफलता नहीं अर्जित कर सका। लेकिन व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह प्रयत्न करता रहे, सफलता तो हमेशा अवसर और परिवेश पर निर्भर करती है।
जहां तक दूसरे प्रश्न का सवाल है कि अगर यह मिथ्याभिमान नहीं था तो अवश्य कोई कारण था कि जिससे मुझे ईश्वर की प्राचीन एवं प्रचलित अवधारणा में अविश्वास था। हां, अब मैं इस पर आता हूं, जो कि इसकी वजह है। मेरे अनुसार कोई भी व्यक्ति जिसमें सोचने समझने की क्षमता है वह अपने परिवेश को समझने का प्रयास करता है। जहां पर सीधे साक्ष्य नहीं होते वहां दर्शनशास्त्र महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर लेता है। जैसा कि मैं ने पहले कहा है कि मेरे एक क्रान्तिकारी मित्र हमेशा कहते थे कि दर्शन शास्त्र मानवीय कमजोरियों का परिणाम है।


जब हमारे पूर्वजों के पास इस दुनिया के गूढ रहस्यों के भूत, भविष्य तथा वर्तमान,इसके क्यों, और क्या क्या आदि को सुलझाने के लिये काफी खाली समय होता था और सीधे साक्ष्यों की भारी कमी होती थी, तब हरेक ने इस समस्या को अपने अपने ढंग से सुलझाने का प्रयास किया। इसी वजह से हम विभिन्न धार्मिक मताें के मूल में भारी अन्तर पाते हैं, जो कि कभी कभी भारी विरोधाभासी, और वैमनस्यपूर्ण रूप धारण कर लेता है। पूर्वी और पाश्चात्य दर्शनशास्त्र ही अलग अलग नहीं है वरन् हर गोलार्ध के विभिन्न मतों के अन्दर भी भारी विरोधाभास है। पूर्वी धर्मों में मुस्लिम मत हिन्दू मत से कहीं मेल नहीं खाता। एक अकेले भारत में ही बौध्द और जैन धर्मों भी ब्राह्मणवाद से बहुत अलग हैं, जिसके अन्दर फिर विरोधाभासी विश्वास हैं, जैसे कि आर्य समाज और सनातन धर्म। चार्वाक, प्राचीन समय के एक अलग प्रकार के स्वतन्त्र चिन्तक थे। उन्होंने पुराने समय में ईश्वर की सत्ता को चुनौती दी। यह सभी समुदाय अपने मूल सिध्दान्तों के प्रश्न पर ही एक दूसरे से भिन्न हैं। और हरेक अपने आपको ही सही समझता है। यही तो दुर्भाग्य है। प्राचीन सावंतों और चिन्तकों के प्रयोगों और विचारों को हमारी अज्ञानता के विरुध्द भावी संघर्ष में उपयोग करने और रहस्यवादी समस्या का हल निकालने की बजाय हम - बडे अालस्यपूर्ण तरीके से विश्वास की चीख पुकार मचाते रहे हैं,अपने विश्वास के संस्करण से बिना विमुख हुए, बिना डगमगाए बने रहते हैं, इस प्रकार हम मानवीय प्रगति में आये ठहराव के दोषी हैं।


जो भी व्यक्ति प्रगति के लिये स्वयं को खडा करता है उसे पुरातन मतों के हर पहलू की आलोचना, अविश्वास करना होता है और चुनौती देनी ही होती है। पुर्जा दर पुर्जा उसे उस प्रचलित पुरातन पंथ के कोनों और आलों को खखोर कर सही कारण ढूंढने चाहिये। स्वीकार करने योग्य कारण के द्वारा किसी सिध्दान्त या दर्शन में अगर विश्वास पैदा होता है तो वह मत स्वागत के योग्य है। उसका विवेक गलत भी समझा जा सकता है, गलत भी हो सकता है, भटकाने वाला और कभी कभी भ्रमजनक भी हो सकता है। लेकिन उसे सुधारा भी जा सकता है क्योंकि विवेक उसके जीवन का मार्गदर्शक तारा है। लेकिन केवल विश्वास और अंधविश्वास खतरनाक है; यह दिमाग को कुन्द करता है और आदमी को प्रतिक्रियावादी बनाता है।


एक व्यक्ति जो कि वास्तविकतावादी है उसे पुराने विश्वासों चुनौती देनी ही चाहिये। अगर वह विवेक का आक्रमण नहीं सहन कर पाता है तो भरभरा कर गिर पडता है। तब उसे चाहिये कि सबसे पहले उसे गिरा दिया जाये और नये दर्शन सिध्दान्त के निर्माण के लिये स्थान साफ किया जाये। यह नकारात्मक पहलू है। इसके बाद सकारात्मक कार्य शुरु होता है जिसमें कि पुराने मतान्वयों का भी प्रयोग करके पुर्ननिर्माण भी किया जा सकता है। जहां तक मेरा प्रश्न है मैं स्वीकार करता हूंकि अब तक इस पहलू पर मैं ज्यादा नहीं पढ पाया हूं। मेरी तीव्र इच्छा थी कि मैं पूर्वी दर्शनशास्त्र का अध्ययन करुं, लेकिन मुझे ऐसा कोई अवसर नहीं मिल सका। लेकिन अब तक तो इस विषय के नकारात्मक पहलू ही तर्क का विषय रहे हैं, मैं सोचता हूं कि मैं इससे सहमत हूं कि मुझे पुराने मत के दृढ होने के आधार पर प्रश्न उठाने का अधिकार है। मैं इस बात से पूर्ण सहमत रहा हूं कि ऐसे किसी परमात्मा का अस्तित्व नहीं है जो हमें और प्रकृति को निर्देशित तथा संचालित करता है। हम प्रकृति में विश्वास रखते हैं और आदमी के सारे विकासशील कदमों की मंजिल प्रकृति को दास बनाने की है। इसके पीछे कोई दिग्दर्शक चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है।


जैसा कि इसका नकारात्मक पहलू है, हम ईश्वर में विश्वास रखने वालों से कुछ सवाल करते हैं _
अगर, जैसा कि आपका विश्वास है, कि एक परमात्मा है, विश्वव्यापी, त्रिकालदर्शी,सर्वशक्तिमान ईश्वर - जिसने धरती या संसार की रचना की, लेकिन कृपया मुझे यह बतायें कि उसने इसकी रचना क्यों की? जबकि यह संसार शोक और पीडाओं तथा यथार्थ, असंख्य विपदाओं का अनन्त संयोजन है। कोई एक आत्मा तक पूरी तरह संतुष्ट नहीं है। पूजा करो लेकिन यह मत कहो कि यह ईश्वर का नियम है: अगर वह किसी नियम से बंधा है, तो वह सर्वशक्तिमान नहीं। वह भी हमारी तरह एक दास है। यह कदापि न कहें कि इस सब में उसकी कोई खुशी छिपी है। नीरो ने तो सिर्फ एक रोम जलाया था। उसने तो कुछ ही संख्या में लोगों को मारा था। उसने तो बहुत कम संख्या में विपदाओं को जन्म दिया, सिर्फ अपने मनोरंजन के लिये। लेकिन उसका इतिहास में क्या स्थान है? इतिहासकारा उसे किस नाम से सम्बोधित करते हैं? सारे जहरीले विशेषणों से उसे सुशोभित किया गया। पन्नों पर पन्ने नीरो के काले कारनामों की भर्त्सना से रंगे पडे है, गद्दार, हृदयहीन, दुष्ट।


एक चंगेजख़ान है जिसने कुछ हजार जीवनों का बलिदान अपने आमोद प्रमोद के लिये कर दिया था और इसलिये हम उस नाम से ही भयंकर घृणा करते हैं। तब तुम अपने उस परमात्मा को कैसे न्यायोचित ठहराओगे, अमर नीरो, जो कि हर दिन, हर घण्टे, हर मिनट असंख्य विपदाएं निर्मित करता रहा है और करता रहेगा?तुम कैसे उस परमात्मा के दुष्कृत्यों का साथ दे सकते हो जो चंगेज ख़ान को भी हर पल पीछे छोड रहा है? मैं कहता हूं कि उसने किसलिये इस संसार का निर्माण किया है - एक वास्तविक नर्क, लगातार और कडवी अशान्ति की जगह? किस लिये तुम्हारे परमात्मा ने इन्सान को बनाया जबकि उसके पास यह न करने की शक्ति थी? इस सबका क्या औचित्य है? क्या तुम यह कहते हो कि यही निर्दोष पीडितों के लिये पुरस्कार और गलत करने वालों के लिये दण्ड है? ठीक है, ठीक है, कितनी देर तक आप एक व्यक्ति को न्यायोचित ठहरा सकते हो जो आपके शरीर पर घाव करता रहे और बाद में ठण्डा और नरम मल्हम लगाए? आप कितनी देर तक भूखे शेर के आगे एक योध्दा को फेंक कर तमाशा बनाने वाले प्रबन्धकों और समर्थकों को न्यायोचित ठहराएंगे जो कि बाद में योध्दा के जंगली जानवर के शिकंजे से बाहर निकल आने पर उसकी अच्छी खातिरदारी करते हैं। इसीलिये तो मैं पूछता हूं, क्यों उस परमात्मा ने यह संसार और इसमें इन्सान को बनाया? अपने मनोरंजन के लिये? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?


तुम मुसलमानों और इसाइयों : हिन्दू दर्शन अब भी एक और तर्क पेश कर सकता है। मैं तुमसे पूछता हूं कि उपरोक्त प्रश्न का क्या जवाब है? तुम पिछले जन्म में विश्वास नहीं रखते। हिन्दुओं की तरह तुम पूर्वजन्म के दुष्कर्मों का परिणाम कह कर निर्दोष पीडितों के लिये तर्क नहीं पेश कर सकते? मैं तुमसे पूछता हूं कि क्यों उस सर्वशक्तिमान ने छ: दिन ही क्यों लगाये यह संसार बनाने में और हर दिन कहता रहा सब कुछ ठीक है। आज उसे बुलाओ। उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे आज की स्थिति का अध्ययन करने दो। देखते हैं क्या अब भी उसमें साहस है यह कहने का कि '' सब कुछ ठीक है।''


जेल की काल कोठरियों से, झुग्गी झोंपडियों रूपी भुखमरी के गोदामों से लाख दर लाख इन्सानों का, शोषित मजदूरों का, पूंजीवादी दंरिन्दों द्वारा धैर्य या दयाहीनता से खून चूसते हुए देखते रहना और मानव ऊर्जा का व्यर्थ होते देखना जो कि कम से कम सामान्य बुध्दि वाले आदमी को भी डर से कंपा दे और अधिक पैदावार को जरूरतमंदों में बांटने की बजाय समुद्रों में फेंकने वालों उन राजाओं के महलों में जिनकी नींव में मानव की हड्डियां लगी हैंउसे यह सब देखने दो और कहने दो कि, '' सब कुछ ठीक है।''
क्यों और किसलिये? यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो!

ठीक है तो, मैं आगे बढता हूं। तुम हिन्दुओं, तुम कहते हो कि वर्तमान के सारे दु:ख पिछले जन्म के पापों का फल है। अच्छा है। आज के दमनकारी पूर्व जन्म के साधु लोग थे इसलिये वे शक्ति का उपभोग कर रहे हैं। मुझे स्वीकार करने दें कि तुम्हारे पूर्वज बडे चालाक लोग थे उन्होंने ऐसे सिध्दान्त खोजने की कोशिश की जिससे कि विवेकशील और अविश्वास करने वालों के प्रयासों को वे नेस्तनाबूद कर सकें। चलो हम विश्लेषण करते हैं कि कितनी देर तक यह बहस जारी रहती है।

किसी भी प्रसिध्द ज्यूरी द्वारा दिये गये दण्ड की दृष्टि से यह तभी न्यायोचित है जबकि यह तीन या चार सिध्दान्तों पर निर्भर हो गलत करने वाले को दोषी ठहराता हो। यह हैं - प्रतिकारात्मक, सुधारात्मक और निवारक। प््रातिकारात्मक सिध्दान्त की सभी प्रगतिशील चिन्तकों द्वारा भर्त्सना की जा रही है। निवारक सिध्दान्त का भी यही हश्र हो रहा है। सुधारात्मक सिध्दान्त ही अकेला एक ऐसा सिध्दान्त है जो कि मूलभूत है तथा मानव प्रगति के लिये अपरिहार्य है। यह दोषी को एक समर्थ और शान्तिप्रिय नागरिक बना कर समाज में वापस भेजने का उद्देश्य रखता है। लेकिन भगवान द्वारा इन्सान के ऊपर थोपे गये दण्ड का क्या स्वरूप है, यदि अगर हम मान भी लें कि हम दोषी हैं। तुम कहते हो कि उन्हें जन्म लेने के लिये गाय,बिल्ली, पेड अौर वनस्पति आदि के रूप में भेजा जाता है। तुम कहते हो यह सजाएं 84 लाख हैं। मैं पूछता हूं कि इसका आदमी के ऊपर क्या सुधारात्मक असर होता है? आपको ऐसे कितने आदमी मिले जिन्होंने बताया कि वे पिछले जन्म में गधे के रूप में पैदा हुए थे क्योंकि उन्होंने कोई पाप किया था? कोई भी नहीं। अब अपने पुराणों का उल्लेख मत करना। तुम्हारे पौराणिक विश्वासों को छूना भी मेरे बस के बाहर की बात है।
क्या तुम जानते हो कि दुनिया का सबसे महानतम पाप है गरीब होना। दरिद्रता पाप है, यह एक दण्ड है।


मैं पूछता हूं तुम कितनी दूर तक अपराधविज्ञानी, न्यायशास्त्री, विधायक, और एक व्यक्ति जो ऐसे दण्ड के प्रस्ताव पेश करता हो जिससे आदमी और अधिक अपराध करने को विवश हो, की अनुशंसा करोगे? क्या तुम्हारे भगवान ने यह सब नहीं सोचा और उसको भी यह सब अनुभव के द्वारा सीखना होगा, वह भी मानवता पर बरपाई गई अनकही पीडाओं की कीमत पर? तुम क्या सोचतो हो उस व्यक्ति की नियति क्या होगी जो कि एक गरीब और अनपढ क़े घर में जन्मा है उदाहरण के लिये एक चमार या भंगी। वह गरीब है इसलिये पढाई नहीं कर सकता। उससे घृणा की जाती है, दूसरे व्यक्ति जो कि स्वयं को उससे बेहतर समझते हैं उसे दूर भगा देते हैं क्योंकि वे एक उच्च जाति में पैदा हुए हैं। उसकी अज्ञानता, उसकी गरीबी और उसके साथ किया गया र्दुव्यवहार क्या उसके हृदय को समाज के प्रति सख्त नहीं बना देगा? अगर वह एक अपराध करेगा तो उसके परिणामों को कौन भोगेगा?भगवान, वह या समाज के विद्वजन? उन लोगों की सजा के बारे में क्या जिन्हें अहंकारी बा्रह्मण जानबूझ कर अज्ञानी रहने देते हैं जिनके कि कानों में अगर गलती से भी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों वेदों के शब्द चले जायें तो दण्ड स्वरूप पिघला सीसा डाल दिया जाता है। अगर वह एक अपराध करें तो उसके परिणामों को कौन भोगेगा और कौन खामियाजा देगा? मेरे प्रिय मित्रों यह सारे सिध्दान्त सर्वसम्पन्न लोगों के अविष्कार हैं। वो इन सिध्दान्तों से अपनी शक्ति, धन, महानता को न्यायोचित ठहराते हैं। हां शायद ऐसा अपटोन सिन्क्लेयर ने किसी जगह लिखा था कि किसी व्यक्ति के सारे धन और उसकी सम्पत्ति को आप लूट सकते हो यदि उसे अमर होने का विश्वास दिला दिया जाये। वह आपकी उल्टे इस सब में आपकी बिना किसी वैमनस्य के मदद करेगा। धार्मिक गुरुओं और शक्ति के धारकों की मिली जुली सांठ गांठ से ही जेलें, कालकोठरियां, कोडे अौर यह सिध्दान्त अस्तित्व में आए।


अब मैं पूछता हूं कि तुम्हारा सर्वशक्तिमान भगवान हर उस आदमी को क्यों नहीं रोकता जो कि कोई पाप और अपराध कर रहा है। वह ऐसा आसानी से कर सकता है। वह युध्द के उन्मादियों को क्यों नहीं मार देता या उनके अन्दर जो युध्द की ज्वाला है उसे ही क्यों नष्ट नहीं कर देता जिसे कि जिससे मानवता के सिर से महायुध्द द्वारा उत्पन्न विनाश को रोका जा सके? वह क्यों नहीं ब्रिटिश लोगों के दिमागों में भारत को स्वतन्त्र कर देने की भावना को पैदा कर देता है? उसने उन पूंजीवादियों के दिलों में ऐसी भावना का संचार क्यों नहीं किया जिससे कि वे अपने सारे वैयक्तिक सम्पदाओं के अधिकारों को न्यौछावर कर सारी मजदूर जाति के लिये उपलब्ध कर देते - न कि सारी मानव सभ्यता को पूंजीवादिता के बन्धन में जकड दे। तुम समाजवादी सिध्दान्त की प्रायोगिकता की विवेचना करना चाहते हो, यह मैं तुम्हारे भगवान पर लागू करने के लिये छोडता हूं।


जहां तक समाजकल्याण का प्रश्न है लोग समाजवाद के गुणों को पहचानते हैं। वे इसका विरोध करते हैं, इस बहाने के साथ कि यह अव्यवहारिक होगा। चलो ईश्वर को आगे आने देते हैं और उन्हें यह सब व्यवस्थित करने देते हैं। अब गोल मोल तर्क मत दो, ये अव्यवस्थित है। मुझे कहने दो, अंग्रेज हम पर शासन कर रहे हैं इसलिये नहीं कि ईश्वर की यही मर्जी है, बल्कि इसलिये कि उनके पास सत्ता है और हमारे पास उनका विरोध करने का साहस नहीं। ना ही ये भगवान की मदद से हमें अपने अधीन रख रहे हैं बल्कि बंदूकों, बमों और गोलियों, पुलिस और फौज और हमारी जडता ही है जिसकी वजह से वे सफलतापूर्वक समाज के प्रति शोचनीय अपराध कर रहे हैं - एक देश का दूसरे देश के प्रति दुराचारी शोषण। कहां है भगवान? वह क्या कर रहा है? क्या वह मानव प्रजाति पर इस पीडा का मजा ले रहा है? एक नीरो; एक चंगेज: मुर्दाबाद।

तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस संसार के आरंभ और इन्सान के मूल के बारे में कैसे समझाऊंगा। ठीक है मैं बताता हूं। चार्ल्स डार्विन ने इस विषय में तथ्यों पर प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढाे। सोहम स्वामी का '' कॉमनसेन्स ''पढाे। कुछ हद तक तुम्हारे सारे प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा। यह प्राकृतिक घटनाचक्र है। अचानक कुछ तत्वों के मिश्रण से बने एक धुंधले घनीभूत पुंज से पृथ्वी का निर्माण हुआ। कब? इसके लिये इतिहास पढाे। यही प्र्रक्रिया बाद में जानवरों और फिर मनुष्यों को जन्म देने में हुई। डार्विन की ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज पढाे। और इसके बाद का सारा विकास मनुष्य के प्रकृति के साथ निरन्तर संघर्षों और उस पर विजय पाने के प्रयत्नों का परिणाम है। इस घटनाचक्र का यही सबसे संक्षिप्त सार हो सकता है।

तुम्हारी दूसरी दलीलें ये भी हो सकती हैं कि तुम पूछो कि एक बच्चा अन्धा या अपाहिज क्यों पैदा होता है अगर यह उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल नहीं है तो?इस समस्या के बारे में जीवविज्ञानियों ने अच्छी तरह समझाया है क्योंकि यह मात्र एक जीववैज्ञानिक घटनाचक्र है। उनके अनुसार सारा दायित्व उनके माता पिता का है जो कि जाने अनजाने अपने कर्मों के द्वारा अपने बच्चे के जन्म से पूर्व ही अपााहिज होने के उत्तरदायी हैं।
सहज ही तुम दूसरा सवाल पूछोगे जो कि काफी बचकाना है। यदि कोई भगवान नहीं है तो लोग कैसे उसमें विश्वास करने लगे? मेरा उत्तर साफ व संक्षिप्त है कि जिस प्रकार की वे भूतों में, बुरी आत्माओं में विश्वास करते हैं उसी प्रकार बस फर्क सिर्फ इतना है कि भगवान में विश्वास सर्वत्र है और दर्शनशास्त्र पूर्ण विकसित। कुछ और घटकों की तरह मैं इसके मूल को दमनकारियों का चातुर्यकौशल नहीं मानता जिसके अर्न्तगत वे एक परमात्मा के बारे में उपदेश देकर लोगों को अपनी गुलामी में रखना चाहते थे, और उसके बलबूते पर अपनी सत्ता के लिये एक अधिकार और मान्यता चाहते थे। जबकि मैं उनसे इस आवश्यक बिन्दु पर असहमत नहीं हूं कि सभी मत व धर्म और ऐसी सारी संस्थाएं बाद में दमनकारियों और शोषकों के सहयोगी मात्र बन कर रह गये। हर धर्म में राजा के प्रति बगावत भी एक पाप माना गया था।

भगवान के मूल के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मानव की सीमाओं ,कमजाेरियों को विचार करके भगवान को काल्पनिक अस्तित्व में लाया गया जिससे कि मनुष्य हर कठिनतम परिस्थितियों का सामना कर सके, सभी खतरों से निडरता से जूझ सके और अपने धन और मद पर काबू पा सके।


भगवान अपने वैयक्तिक कानूनों और पैतृक उदारता के तहत कल्पित किया गया और वृहद विस्तार से उसका चित्र खींचा गया। वह निवारक तत्व के रूप में प्रयोग होना था जब उसके क्रोध और वैयक्तिक नियम की चर्चा हुई जिससे कि आदमी समाज के लिये खतरा न बन सके। उसे एक पिता, मां, बहन, भाई, मित्र तथा सहयोगी के रूप में भी ढाला जाना था जिससे कि उसकी पैतृक योग्यताएं समझाई जा सकें। जिससे कि जब व्यक्ति भारी दु:ख में हो और उसके साथ विश्वासघात किया गया हो तथा उसके सारे मित्र छोड क़र चले गये हों तब वह इस विचार में सांत्वना प्राप्त कर सकता है कि भगवान के रूप में एक अकेला मित्र अब भी उसके साथ है जो कि उसका पक्ष लेगा और वह सर्वशक्तिमान है तथा कुछ भी कर सकता है। पुरातन काल में वास्तव में यह समाज के लिये बहुत उपयोगी था। भगवान के होने का विचार मुसीबत में फंसे आदमी के लिये बहुत सहायक है।
समाज को इस विश्वास से लडना है तथा साथ ही साथ मूर्तिपूजा से भी और इस धार्मिक संर्कीणता से भी। इसी प्रकार जब आदमी अपने पैरों पर खडे होने का प्रयत्न करता है और एक वास्तविकतावादी बनना चाहता है तो उसे अपना विश्वास उतार कर फेंक देना चाहिये तथा उन सारी मुसीबतों, परेशानियों का सामना करना चाहिये जिसमें परिस्थितियों ने उसे धकेल दिया है। बिलकुल यही मेरा हाल है। यह मेरा मिथ्याभिमान नहीं है, मेरे दोस्¤

...

(यह लेख शहीद भगत सिंह का है. जिसे नवनीत कुमार मेहता ने पोस्ट किया है, जिसे लगभग जस का तस यहां पेश किया गया है.)