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मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

महिला उत्पीडन विरोधी किसी गंभीर आंदोलन के लिए महिलाएं खुद कितनी तैयार!!



महिलाओं को 'देवी' बनने का बड़ा शौक है तो दुर्गा बनो, काली बनो. और, सारे बलात्कारियों के संहार के लिए आगे आओ.


जब तक "देवी" बनकर अपनी रक्षा न करें महिलाएं-लडकियां, तब तक वे बस पूजा करने-करवाने के ही लायक! मंदिरों की शो-पीस 
देवी!! 


महिलाओं पे हो रहे अत्याचार के लिए अनेक महिलाएं खुद भी जिम्मेवार. वे भी चाहती हैं कि उन्हें इस ज़ुल्म-बेबसी से बाहर निकालने कोई 'देवदूत' आये !!

इस नेट पे बैठीं महिलाओं के सात दिन के ट्विट देख लिए जाएँ. तो पता चल जाएगा कि वे महिला उत्पीडन विरोधी किसी गंभीर आंदोलन के लिए कितनी तैयार!!

इस नेट मीडिया में बहुत ही कम ऐसी महिलाएं हैं, जो महिला विरोधी मर्द सत्तात्मक व्यवस्था की सोच को खंडित कर रही हों.

पिता-पति-भाई-पुत्र की कमाई से आराम की जिंदगी जी रहीं यहां की कोई आधी महिलाओं को हाय-हेलो, चैटिंग, चोंचलेबाजी, घटियाराजनीति से फुर्सत नहीं!!
नेट मीडिया को पढ़े-लिखों का संसार भी माना जाता. जब यहां की तथाकथित "पढ़ी-लिखी" महिलाएं मर्दाना समाज की घटिया सोच को आगे बढ़ा रहीं हों तो...बाकी "अनपढों" से क्या उम्मीद की जाय!!
ये "पढ़ी-लिखी" महिलाएं ज्यादातर खुद को "मर्द" बनाने में ही जुटी दिख रहीं. जबकि "मर्द समाज" ने ही इनकी दुर्दशा कर रखी है!!
मर्दों की नक़ल करने के बजाय "मर्दों" के होश ठिकाने लगाने के काम जब तक ये "पढ़ी-लिखी" महिलाएं शुरू नहीं करतीं, महिला उत्पीडन जारी रहेगा.

महिलाओं को जातिवाद-धर्मवाद-दलवाद के चंगुल से बाहर आकर खुद की सुरक्षा, मर्यादा, सम्मान, स्वतंत्र अस्तित्व की लड़ाई लड़ने के लिए एकजुट होना ही पड़ेगा.

कोई “देवदूत” आसमान से नहीं उतरने वाला. उन्हें अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी. वे जान लें. और, महिलाओं को एकजुट करने के काम शुरू करें.

महिला उत्पीडन विरोधी मुहल्ला समितियां बनाने के काम में महिलाएं खुद आगे आएं. वरना, वे मर्दों-दलों-जातियों-धर्मों की गुलामी खटती रहेंगी.

सभी दलों में मोटे तौर पर “मर्दों” या मर्दाना सोच वाली महिलाओं का ही कब्जा. इसीलिए ये दल महिलाओं की समस्याओं के बुनियादी समाधान में अक्षम.









सोमवार, 22 अप्रैल 2013

दामिनी आंदोलन है क्या? क्या कोई दलीय प्रतिनिधि बता सकते?


कल मुख्य  रूप से मैंने तीन मुद्दों को उठाया. सुबह के वक्त महिला उत्पीडन विरोधी मुहल्ला समिति की भूमिका. जिसे अनेक जगह प्रसारित भी किया गया. अनेक लोगों ने फेसबुक और ट्विटर में इसके साथ सहमती भी जाहिर की और अपने विचार भी रखे. आशा है कि इस मुद्दे पे यहां जो अलग से ब्लॉग है, वहां भी सभी साथी अपने सुझाव-विचार ज़रूर ही रखते जाएंगे. ये सुझाव आगे काफी काम के साबित होने वाले. कल ही मैंने पुलिस व्यवस्था में बुनियादी सुझाव, जनतांत्रिक बदलाव की चर्चा शुरू करने का प्रयास किया, मगर दिल्ली में बलात्कार विरोधी आंदोलन पे पुलिस कार्रवाई हो जाने से अफरा-तफरी में अनेक साथी इस चर्चा में भाग नहीं ले पाए. वे सभी साथी इस ब्लॉग के जरिए चर्चा करें. अपने सुझाव दें. कल ही रात में मैंने दामिनी आंदोलन के चरित्र से जुड़े विन्दुओं को उठाने की कोशिश की. उसपे भी खास चर्चा संभव नहीं हो पायी. कुछ साथी ज़रूर चर्चा में शामिल हुए. लेकिन, इसपे भी व्यापक-विस्तृत चर्चा की सख्त ज़रूरत है... सो, इस ब्लॉग में सभी अपने विचार रखे. चर्चा करें, तो अच्छा हो. ---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------- दामिनी के वक्त यह आंदोलन शुद्ध रूप से आम जनता का अपना आन्दोलन था, जिसमें महिलाओं का नेतृत्व स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आया. इस बार? इस बार दामिनी आंदोलन लगभग पूरी तरह राजनीतिक रूप ले चुका. ये अच्छा हुआ या बुरा या बीच-बीच का, इसपे बाद में अनेक विश्लेषण आते रहेंगे. मगर.. ..मगर, इस बार महिलाओं के हाथ से लगभग नेतृत्व निकल चुका दिख रहा. ये और बात कि कुछ महिला संगठन भी मैदान में. उनमें भी कुछ दलीय. दामिनी आंदोलन है क्या? क्या कोई दलीय प्रतिनिधि बता सकते?
जिन्हें दामिनी आंदोलन के चरित्र का पता नहीं; वे संसद से लेकर सड़कों तक जितना शोर मचा लें, दामिनी नहीं बचाई जा सकती! दामिनी आंदोलन राजनीतिक से कहीं अधिक सामाजिक मुद्दा.इस मुद्दे पे चुनावी राजनीति करना दामिनियों के साथ खिलवाड़ ही होगा.अधकचरे नेता जान लें. विभिन्न दलों ने विभिन्न तबकों के जनसंगठनों को अपना "गुलाम" बना रखा. उनके जरिए अपनी दलीय राजनीति चलाई.इससे उन तबकों के हितों का नुकसान हुआ. विभिन्न तबकों के हित एक जैसे होने के साथ-साथ अलग-अलग भी. ऐसे में उन तबकों के संगठनों को पूरी स्वतंत्रता या व्यापक स्वायतता देनी ज़रुरी. यही बात दामिनी आन्दोलन पे भी लागू. बल्कि कहीं ज्यादा लागू होती. दामिनी आंदोलन का नेतृत्व आम महिलाओं के हाथ हो. न कि दलीय नेताओं के हाथ. दामिनियों का दर्द दामिनियाँ ही बहुत बेहतर जान सकतीं. जिसे दलों के मर्द नेता या मरदाना समाज के दबाव में जी रहीं महिला नेता नहीं समझ सकतीं. इस ट्विट श्रृंखला में सबसे पहले जवाब देने वाले महाशय ने ये प्रतिक्रिया दी : (हालांकि वे अंतिम बात कर रहे थे. उसके बाद उन्होंने शायद कुछ वक्त के लिए ट्विटर छोड़ दिया ..... 

I am trying to quit twitter and glad that mine last few tweets may be with you :) ( Till twitter drags me back).)
what do you mean ? It is being lead by politically oriented people ? So what !!
मेरे इससे पहले के आज के और इस ट्विट के बाद के सारे ट्वीट्स देखें. फिर कोई सवाल करें. बल्कि कुछ सवालों के जवाब भी दें.
I read them and sort of agree
(इसके बाद लंबी बात चली. वे मोटे तौर पे इन सारे मुद्दों से सहमत ही दिखे. इस लिंक में हमारी बातचीत देखी जा सकती. https://twitter.com/Hello_AAP) https://twitter.com/Hello_AAP/status/326062925112541186 बहरहाल, सभी साथियों के लिए यह चर्चा फिर से जारी कर रहा. इस सिलसिले के तीनों ब्लॉग देखें. सभी एक-दूसरे से जुड़े हुए.


शनिवार, 20 अप्रैल 2013

बलात्कार सहित महिला उत्पीडन के खिलाफ मुहल्ला स्तर पे काम हों 
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इन समितियों का नेतृत्व महिलाओं के हाथ में ही हों
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* देशव्यापी बलात्कार विरोधी आंदोलन के साथ-साथ शहरों-गांवों में मुहल्ला समितियां गठित की जाएँ. जो महिला उत्पीडन-बलात्कार के खिलाफ मुहिम चलाये.

*महिला उत्पीडन विरोधी मुहल्ला समिति न सिर्फ बलात्कार के खिलाफ जागरण चलाये, बल्कि घरों के अंदर महिलाओं के प्रति अमानवीय बर्ताव पे भी नज़र रखे..

*महिला उत्पीडन विरोधी मुहल्ला समिति में हर तबके के नागरिक हों. उसका नेतृत्व भी हर तबके के हाथ हो. उसमें महिलाएं अग्रणी  भूमिका निभाएं.

*महिला उत्पीडन मुहल्ला समिति शुद्ध रूप से आम जनता की हो. सभी दलीय-निर्दलीय नागरिक अनिवार्य रूप से शामिल हों, तो ये एक मिसाल बन जाएगी.

*महिला उत्पीडन विरोधी मुहल्ला समिति लड़कों-पुरुषों की "बलात्कारी मानसिकता" को खत्म करने के लिए "नैतिक शिक्षा" के काम भी करे.

*बंगाल के गांवों में जब चोरी-डकैती बहुत बढ़ गयी थी, तब ऐसी मुहल्ला समितियां रात में चौकीदारी किया करती थीं. महिला मुद्दा तो और भी गंभीर बात.

*दलों-संगठनों व महिला संगठनों को महिला उत्पीडन विरोधी मुहल्ला समिति बनाने केलिए आगे आना चाहिए.इससे बलात्कार सहित महिला उत्पीडन पे रोक लगेगी..

*बलात्कार व अन्य प्रकार के अमानवीय महिला उत्पीडन के प्रति पुलिस-सरकारों की "मर्दाना सोच" को भी इन मुहल्ला समितियों के जरिए बदला जा सकेगा.

*महिला उत्पीडन विरोधी मुहल्ला समिति किसी भी प्रकार की सरकारी-दलीय सहायता के ही चले. इसे आम जनता अपनी पहल और खर्च पे चलाये.

*महिला उत्पीडन विरोधी मुहल्ला समिति का नेतृत्व मुख रूप से सुलझी हुई महिलाओं के हाथ ही हो. वो महिला झुग्गी-झोपड़ी की भी हो सकती हैं.

* जो लोग-दल-संगठन ईमानदारी से बलात्कार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं, वे महिला उत्पीडन विरोधी

 मुहल्ला समिति बनाने की पहल लेना शुरू करें.