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मंगलवार, 14 अगस्त 2012

अरविन्द केजरीवाल को अन्ना आन्दोलनकारी असीम त्रिवेदी का जवाबी पत्र

अरविन्द केजरीवाल जी के नाम एक पत्र

नमस्कार अरविन्द जी, 

यह पत्र मैं हाल ही में समर्थकों के नाम लिखे गए आपके पत्र के जवाब के रूप में लिख रहा हूँ, कोशिश है कि इसके माध्यम से अपना और उन सभी लोगों का पक्ष आपके सामने रख सकूंगा जो राजनीतिक दल बनने के आपके निर्णय से असहमत हैं और आंदोलन को पहले की तरह ही जारी रखने के पक्षधर हैं. स्पष्ट करना चाहूँगा कि यहाँ जो कुछ भी लिख रहा हूँ वो सिर्फ मेरे नहीं बल्कि
उन तमाम लोगों के विचार हैं जिनसे अनशन के दस दिनों के दौरान जंतर मंतर पर हमारी बात हुई. कोशिश कर रहा हूँ कि उन सभी बातों को आपके सामने रखूँ जो राजनीतिक विकल्प देने के निर्णय के बाद हुईं बहस और चर्चाओं में हमारे सामने आयीं.

अरविन्द जी सबसे पहले हम ये कहना चाहेंगे कि जिस एसएमएस पोल को आप बहुमत का आधार मान रहे हैं उसमें ऐसे तमाम असंतुष्ट लोगों ने हिस्सा ही नहीं लिया था, जो इस निर्णय से अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रहे थे. वो लोग भी इस वोटिंग में जरूर हिस्सा लेते अगर मंच से घोषणा करने से पहले ये एसएमएस वोट लिया गया होता. और अगर ये मान भी लें कि बहुमत राजनीतिक विकल्प के साथ था तो भी सिर्फ इस अनियमित बहुमत के आधार पर यह निर्णय लेना गलत होगा क्योंकि यह निर्णय आंदोलन की मूल भावना के ही खिलाफ है. हम शुरू से कहते थे कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन एक आंदोलन है, एक अभियान है ये कोई एनजीओ या सामाजिक संस्था नहीं है. और यह बात आन्दोलन के प्रिएम्बल के सामान थी. इसलिए एक आकस्मिक और अनियमित बहुमत के आधार पर कोई छोटा मोटा एमेंडमेंट तो किया जा सकता है परन्तु मूल भावना से ही यू टर्न लेने का ये कदम कतई लोकतांत्रिक नहीं माना जा सकता.

जैसा कि आपने कहा, किसी भी निर्णय से सौ फीसदी लोग सहमत नहीं हो सकते. जब हमने जंतर मंतर पर इस बारे में अपना विरोध दर्ज किया था तो भी हमें ऐसा ही उत्तर मिला था कि कुछ लोग जायेंगे तो कुछ नए लोग आयेंगे. हम इस बात को कतई ठीक नहीं समझते कि जो लोग पिछले डेढ़ साल से अपनी जॉब, अपनी पढाई और अपने परिवार की सुख सुविधाओं को ताक पर रखकर इस आंदोलन के लिए काम कर रहे हैं वो चले जाएँ और चुनाव लड़कर मलाई खाने की इच्छा रखने वाले नए लोग आ जाएँ. क्योंकि तमाम लोग ऐसे भी हैं जिनके लिए वापसी का रास्ता भी उतना आसान नहीं रह गया है. कुछ अपनी पढाई से हाथ धो चुके हैं तो कुछ अपनी जॉब से. किसी के ऊपर कुछ मुक़दमे दर्ज हैं तो किसी के ऊपर परिवारी जनों का विरोध और स्थानीय भ्रस्टाचारियों की दुश्मनी. और जहां तक रही नए लोगों के आने की बात तो चुनाव लड़ने और सत्ता का स्वाद चखने की मंशा रखने वाले ऐसे नए लोग तो हर राजनीतिक पार्टी के साथ हैं फिर एक और विकल्प की ज़रूरत ही क्या है.

टीम के तमाम लोग ये तर्क देते नज़र आ रहे थे कि रामदेव जी अपनी पार्टी बनाने की घोषणा करने वाले हैं. ऐसे में अगर हमने अपनी पार्टी नहीं बनाई तो हमारे सारे समर्थक रामदेव का वोट बैंक बन जायेंगे क्योंकि साधारण लोग अन्ना और बाबा को एक ही समझते हैं. इस पूरे तर्क पर ही हमारी घोर आपत्तियाँ हैं. पहली तो ये कि अगर हमारे समर्थक किसी का वोटबैंक बन भी जायें तो इससे हमें क्या फर्क पड़ता है. हम कोई राजनीतिक पार्टी तो हैं नहीं जो इससे हमारे वोटबैंक के समीकरण गड्बडा जायेंगे. और अगर बात ये है कि हमें रामदेव से कोई विशेष आपत्ति है तो हम उनके साथ बार बार मंच साझा करने को क्यों तैयार हो जाते हैं. और जैसा कि अब लग रहा है, संभव है कि रामदेव अभी राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा न करें. तो अब हमारे प्रीकॉशनरी स्टेप के क्या अंजाम होंगे. और क्या होगा जब रामदेव जी हमारी आधी छोड़ी हुई लड़ाई को लेकर आगे बढ़ जायेंगे और सरकार से 'कैसा भी' लोकपाल पास करवाने की जिद पर अड जायेंगे. तो क्या इस तरह से हमारा उद्देश्य पूरा हो पायेगा और देश को एक मुकम्मल क़ानून मिल पायेगा.

एक और बड़ी गलती जो हम लगातार करते जा रहे हैं, वो है भीड़ की भक्ति. गांधी के साथ सिर्फ ७८ लोग थे दांडी मार्च में. पर कम भीड़ से उनकी लड़ाई छोटी नहीं हो गयी. जब हम भीड़ को आदर्श बनायेंगे तो ज़ाहिर है कि हमें भीड़ लाने के लिए तमाम तरह के उचित अनुचित कदम उठाने होंगे. अभी जंतर मंतर पर भी हमने देखा कि अपने साथ लंबी भीड़ ला रहे लोगों को विशेष महत्व और सम्मान दिया गया बिना इस बात पर ध्यान दिए कि उनका वास्तविक उद्देश्य क्या है. अब राजनीतिक दल बनने के प्रयास में हमने अनजाने ही भीड़ के महत्व को बढ़ा दिया है. क्रान्ति और आंदोलनों में देश की सारी जनता भाग नहीं लेती. आंदोलन महज मुठ्ठी भर लोगों के समर्पण और कुर्बानी से कामयाब होते हैं. न कि किसी स्थान पर इकठ्ठा भीड़ की तादाद से.

आज हमने भी बाकी दलों की तरह ही अपने नायकों के अंधभक्त पैदा कर दिए हैं. अंधभक्त चाहे भगवान के हों या शैतान के, बराबर खतरनाक होते हैं. शैतान के इसलिए क्योंकि उसकी शैतानी को कई गुना कर देते हैं और भगवान के इसलिए क्योंकि वो भगवान को भगवान रहने नहीं देते. हमने जंतर मंतर पर जब राजनीतिक विकल्प बनाने के निर्णय का विरोध किया तो हमारा उद्देश्य था अन्ना जी तक अपना अनुरोध पहुचाना कि वो अपने इस निर्णय को वापस लेकर आंदोलन के रास्ते पर ही चलते रहें. लेकिन वहाँ मौजूद वालंटियर्स के एक विशेष ग्रुप ने इसे किसी और ही निगाह से देखा और हमसे हाथापाई और धक्का मुक्की करने में भी संकोच नहीं किया. हमारे बोर्ड जिन पर हम पिछली पच्चीस तारीख से एंटी करप्शन कार्टून्स बना रहे थे, तोड़ दिए गए. हमारे पोस्टर्स फाड़ दिए गए. हमारा साथ दे रहे लोगों से बदसलूकी की गयी. कहा गया कि हम एनएसयूआई के लोग हैं, हमने सरकार से पैसे खा लिए हैं. अरविन्द जी, हमारा प्रश्न है कि इन अंधभक्तों को साथ लेकर हम किस दिशा में जा रहे हैं. ऐसा ही तो होता है जब कोई राहुल गांधी की सभा में उनके खिलाफ आवाज़ उठाता है. जब कोई मुलायम सिंह के किसी फैसले का विरोध करता है. तो फिर उनमें और हम में क्या फर्क रहा. हमारे विरोधियों और दुश्मनों के लिए इससे ज्यादा खुशी की बात क्या होगी कि हम भी उनके जैसे हो जायें.

हम शुरू से गांधी के तरीकों पर भरोसा करते आये हैं. आप भी गांधी की हिंद स्वराज से खासे प्रभावित लगते हैं. फिर भला हम हिंद स्वराज में कई बार दुहराई गयी गांधी की इस सीख का उल्लंघन कैसे कर सकते हैं कि हमें कुर्सी पर बैठे चेहरों को नहीं व्यवस्था को बदलना होगा. आसान शब्दों में कहें तो खिलाड़ियों को नहीं खेल के तरीकों को बदलना होगा. आज देश में कहीं भी चुनाव भ्रस्टाचार के मुद्दे पर नहीं लड़े जाते. जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा जैसे सैकड़ों मुद्दे असली मुद्दों पर भारी हैं. भारी लालू प्रसाद फूडर स्कैम के खुलासे के बाद भी चुनाव जीतते जा रहे हैं तो इसका मतलब है कि लोगों के लिए भ्रस्टाचार उतना महत्वपूर्ण मुद्दा है ही नहीं. हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम लोगों को जागरूक करें जिससे चुनाव भ्रस्टाचार और विकास के मुद्दों पर लड़े जायें न कि जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के मुद्दों पर. क्योंकि अगर हम लोगों का रुझान बदले बिना ही चुनाव में उतर जायेंगे तो जीतने के लिए हमें भी इन्ही समीकरणों का सहारा लेना पडेगा. देखना पडेगा कि कहाँ पर दलित वोट ज्यादा है, कहाँ पर सवर्ण वोट. कहाँ पर हिन्दू वोट निर्णायक है, कहाँ पर मुस्लिम वोट. और ऐसे में हमारे मुद्दे, हमारी प्राथमिकताएं भी बदल जायेंगी और सच कहें तो अब हमारा पार्टी बनाना बेमायने हो जाएगा. क्योंकि अब हम भी उसी सड़ी गली परम्परा को आगे बढ़ा रहे होंगे. नए विकल्प की बात तब तक बेईमानी है जब तक हम चुनाव के तरीके न बदल पाएं. हमने इलेक्टोरल रिफोर्म्स की बात कही थी. उसकी ज़रूरत थी अभी. हम राईट टू रिजेक्ट लाने की कोशिश करते. और फिर देखते कि कोई दागी संसद भवन में न पहुच पाए. हम देश भर में विभिन्न पार्टियों से लड़ रहे दागी प्रत्याशियों के खिलाफ अभियान चलाते. और उनकी जीत की राह में सब मिलकर रोडे अटकाते.

चुनावी राजनीति में उतरकर हम अपनी राह को लंबा बना रहे हैं और अपने कद को छोटा. ये एक ऐसा कदम है जिससे हम खुद अपने हाथों ही अपनी सीमाओं को संकुचित कर लेंगे. आज जो लोग भ्रस्टाचार के विरोध में हैं, वो हमारे साथ हैं. कल मामला इतना सीधा, इतना ब्लैक एंड व्हाईट नहीं रह जाएगा. कल वोट लेने के लिए हमें लोगों को अपनी आर्थिक नीतियों से भी सहमत करना होगा. विदेश नीति पर भी अपना स्टैंड क्लिअर करना होगा. सामाजिक न्याय, समानता, शिक्षा और आरक्षण जैसे विषयों पर भी आम सहमति बनानी होगी. और शायद जो इनमे से किसी एक पर भी हमसे सहमत नहीं हो पायेगा उसके पास पर्याप्त कारण होंगे हमें वोट न करने के.

और फिर हमारे पास अभी कोई ढांचा नहीं है, कोई तैयारी नहीं हैं, क्षेत्रीय मुद्दोंपर पकड़ नहीं है, स्थानीय स्तर पर कोई संगठन नहीं है. ऐसे में हम बहुमत ले आयेंगे ये कहना तो दिवास्वप्न को मान्यता देने जैसा ही होगा. तो फिर जब हम दस बीस सीटें जीत भी लेंगे. तो हम अपनी शक्ति को कई गुना कम कर लेंगे. क्या तब भी हम ये कह पायेंगे कि हमारे पीछे एक सौ पच्चीस करोड भारतीय हैं. क्या तब भी हम सरकार पर इतना ही दबाव बना पायेंगे. क्या तब भी मीडिया हमें इतनी तवज्जो देगा. मुझे नहीं लगता कि मीडिया किसी छोटे राजनीतिक दल को वो वेटेज देता है जो हमें मिलती आयी है. एक जन आंदोलन की ताकत एक राजनीतिक दल की अपेक्षा कहीं ज्यादा होती हैं. जन आंदोलन व्यापक होता है, जन आंदोलन पवित्र होता है.

आन्दोलनों से राजनीतिक दल बनने का और उनके नायकों के राजनेता बनने का सिलसिला बहुत पुराना है. और जनता को इस राह पर हमेशा धोखा ही मिला है. कांग्रेस भी एक आंदोलन के लिए ही बनी थी. आज के दौर के कई बड़े नेता जेपी आंदोलन से निकले हैं. पर क्या ये सब देश की राजनीति को एक बेहतर विकल्प दे पाए. हमें याद रखना होगा कि ये सारे राजनीतिक दल जब बने थे तो इसी वादे के साथ कि वो देश को एक बेहतर विकल्प देंगे और ऐसा भी नहीं है कि सबकी मंशा ही खराब थी पर इस खराब सिस्टम में उतरकर गंदा हो जाना ही उनकी नियति थी, उनकी मजबूरी थी.

इस बारे में एक बात और बहुत महत्वपूर्ण है कि हमारे आंदोलन में मंच की ऊंचाई बढ़ती ही जा रही है. ऊपर बैठे हमारे नायक नीचे जमीन पर बैठे समर्थकों से मिलना भी पसंद नहीं करते. जंतर मंतर पर कितने लोग नीचे उतरकर आये और आंदोलन के आम समर्थकों से मिले. इस अनशन के दौरान हमारे कुछ नायक जहां एक भी रात जंतर मंतर पर नहीं रुके तो कुछ लोग एसी कारों में खिड़कियों पर भीतर से अखबार लगाकर सोते रहे और मंच से लोगों की देशभक्ति को जागाने वाले नारे लगाते रहे. क्या इन नायकों ने उन लोगों के साथ खड़े होने की कोशिश की जो रोज सुबह से शाम तक वही खटते थे और रात को वहीं जमीन पर सो जाते थे. वालंटियर्स की लंबी कतारों से घिरी कारों में बैठकर सीधे मंच तक जाने वाले इन नायकों से हम कौन सी उम्मीद रखें जो जनता के बीच से अपने क़दमों से गुजरना भी पसंद नहीं करते. हमारे सांसदों से भी हम नहीं मिल पाते और ये जन नायक भी हमारी पहुच के बाहर हैं. और वो भी तब जब ये कोई चुनाव नहीं जीते हैं, गाड़ियों पर लाल बत्ती नहीं लगी हैं. फिर भला चुनाव जीतने पर और सत्ता में आ जाने पर ये कैसे हमारी पहुच में होंगे ये समझना मुश्किल है. ऐसे में ये राजनीतिक दल सत्ता में आने पर भी कोई बेहतर विकल्प दे पाएगा इसमें हमें गंभीर संदेह हैं.

और जहां तक आंदोलन से निराश होने की बात है. हमें मानना होगा कि यह आंदोलन शुरू हुए अभी डेढ़ साल भी नहीं हुए और हमने पूरे देश में चेतना की लहर देखी. लोगों में उम्मीद की किरण देखी. इतने कम समय में इतनी सफलता मिलना हमारे देश का सौभाग्य ही था. ज़रूरत थी धैर्य रखकर इसीतरह चलते रहने की. आज़ादी की लड़ाई को भी मुकम्मल अंजाम तक पहुचने में सौ साल लगे थे. ऐसे में डेढ़ साल में निराश होना और विकल्प तलाशना बेहद जल्दबाजी भरा कदम था. क्या बेहतर नहीं होता अगर हम राजनीतिक दल बनाने की बजाय अपने आंदोलन को गाँव और कस्बों तक ले जाते. हर जगह छोटी छोटी स्थानीय टीमें बनाते. जो वहाँ हो रहे भ्रस्टाचार के मामलों के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करती. आरटीआई का इस्तेमाल कर सिस्टम पर दबाव बनाती और ज़रूरत पड़ने पर लोगों को संगठित कर अनशन, सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा का सहारा लेकर स्थानीय स्तर पर क्रान्ति की बुनियाद रख पाती. और ज़रूरत पड़ने पर एक केन्द्रीय टीम उनकी सहायता के लिए पहुच जाती. अरविन्द जी, आप शुरू से कहते थे कि जब कोई तुमसे कहे कि मेरा राशन कार्ड नहीं बन रहा है तो उससे कहो कि लोकपाल पास करवाओ, राशन कार्ड अपने आप बन जाएगा. क्या आपको नही लगता कि अब हमें ढंग बदलने की ज़रूरत थी. अब हम पहले राशन कार्ड बनवाते, लोगों की समस्याओं को दूर करते और फिर उनसे उम्मीद करते कि वो लोकपाल और दुसरे मुद्दों पर हमारे साथ कंधा मिलाकर खड़े हों. ऐसे में हम अपने संघर्ष का लाभ सीधे आम जनता तक पहुचा पाते. अब हम किस हक से चुनावी अखाड़े में कदम रखने जा रहे हैं. हमें सोचना होगा कि हमारी उपलब्धियां ही क्या हैं. जन्लोकपाल, जिसे हम पास नहीं करा पाए, राईट टू रीकॉल एंड रिजेक्ट जिसकी हमने बात करना भी बंद कर दिया. प्रश्न है कि क्या हमारे अचीवमेंट्स लोगों को भरोसा दिलाने के लिए काफी हैं. आप ही तो कहते थे कि हम मालिक हैं और हम सेवक क्यों बनें. आप ही तो कहते थे कि क्या अच्छे इलाज़ के लिए हमें खुद डॉक्टर बनना पडेगा, अच्छी शिक्षा के लिए क्या हमें खुद टीचर बनना होगा, अच्छे प्रशासन के लिए हमें खुद अधिकारी बनना होगा. तो फिर हम भला क्या क्या बनेंगे ? नेता, अधिकारी, डॉक्टर, टीचर, लॉयर और पता नहीं क्या क्या ? फिर तो देश की सफाई बड़ी मुश्किल हो जायेगी और शायद नामुमकिन भी. इसलिए बेहतर होगा कि हम ये सब कुछ बनने की बजाय सिविल सोसाइटी बने रहें और इन सबको मजबूर करें अपना काम बेहतर ढंग से करने के लिए.

अरविन्द जी, हम सभी आप पर विश्वास करते हैं और समूचा देश आपके प्रति कृतज्ञता की भावना से देखता है कि आपने लोगों को संगठित कर इस बड़े आंदोलन को मूर्त रूप देने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है. ऐसे में आपसे हम लोगों की आशा होना बेहद लाजिमी है कि आप आंदोलन को गलत राह पर नहीं जाने देंगे. इस चेतना की नदी पर बाँध नहीं बनने देंगे. क्योंकि अगर ये आंदोलन यहाँ खत्म हुआ तो लोग आने वाले समय में कभी सिविक सोसाइटी के आन्दोलनों पर भरोसा नहीं कर पायेंगे. हमने अपनी उम्र में पहली बार देखा कि सिविल सोसाइटी का एक आंदोलन कैसे शहरों के ड्राइंग रूम तक, मॉर्निंग वाकर्स असोसिएशन तक, पान की गुमटी तक और गाँव की चौपाल तक पहुच गया. भैंस के चट्टों और नाई की दुकानों पर एक क़ानून की बारीकियों के बारे में बहस होने लगी. अगर जाने अनजाने हमने लोगों का भरोसा तोड़ा तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा. फिर शायद ये मुमकिन नहीं होगा कि लोग एक आंदोलन पर इतना भरोसा करेंगे कि उस पर अपना सब कुछ कुर्बान करने को तैयार हो जायें.

इसलिए अरविन्द जी, आप से हमारा बस इतना ही अनुरोध है कि राजनीतिक दल बनाने के अपने निर्णय को वापस ले लें और अगर राजनीतिक दल बनाने का निर्णय बदला नहीं भी जा सकता हो, तो भी ये आंदोलन स्वतंत्र रूप से चलता रहे, और इसका किसी भी राजनीतिक दल से कोई सम्बन्ध न रहे. जिन लोगों को राजनीति में हिस्सा लेना है, चुनाव लड़ना है, वो पोलिटिकल पार्टी का हिस्सा बन जायें और जो लोग इस निर्णय से सहमत नहीं हैं वो पहले की तरह ही इस आंदोलन को लेकर आगे बढते रहें. आप ये सुनिश्चित करें कि इसका नेतृत्व पोलिटिकल पार्टी के नेतृत्व से अलग हो. जिससे ये आंदोलन और राजनीतिक दल एक ही सिक्के के दो पहलू न बन जाएँ. हमें तय करना होगा कि आन्दोलन और पार्टी की स्थिति संघ और भाजपा जैसी न हो जाए कि लोग हमारे आंदोलन को निरपेक्ष दृष्टि से देखना ही बंद कर दें. ये आंदोलन न तो किसी पार्टी के साथ हो और ना किसी के खिलाफ. 'पाप से घृणा करो, पापी से नहीं' के सिद्धांत पर चलकर इस आंदोलन के सिपाही राजनीति और समाज की सफाई में लगे रहें. और ज़रूरत पड़ने पर आंदोलन से निकले राजनीतिक दल के खिलाफ आवाज़ उठाने से भी गुरेज़ न करें.

अंत में आपसे बस इतना कहना चाहूँगा कि हमारे विरोध और आपत्तियों का मकसद इस आंदोलन की बेहतरी है ना कि महज़ बौद्धिक विलास. और हमारी इन आपत्तियों पर उस तरह रिएक्ट न किया जाये जैसे सरकार अपनी आलोचनाओं पर करती है. हमें विरोध और असहमति के कारणों को समझना होगा और ये भी तय करना होगा कि किसी निर्णय के खिलाफ विरोध के स्वर मुखर करने वालों को हाथापाई और बदसलूकी का शिकार न होना पड़े.

इस आंदोलन का एक छोटा सा सिपाही,
असीम त्रिवेदी.

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

अरविन्द जी, आपके मन में खोट है....!!

   मैं चुनाव नहीं लडूंगा और न ही सत्ता में शामिल होऊंगा. मैं बाहर रह कर इन लोगों पर नज़र रखूंगा. अगर ये कोई गलती करेंगे तो कान मरोड़ कर इन्हें ठीक करूंगा---- अन्ना हजारे...

ये बात अन्ना ने जब कही थी, उसके बाद के उनके दो ब्लॉग पढ़ लें... खासकर पहला ब्लॉग..उसमें भी साफ़ कहा गया है कि पहले गांवों-मुहल्लों में जाकर जनलोकपाल आन्दोलन करो..और वहीं अपने सामने लोगों की राय लो, स्वस्थ विकल्प बनाने के बारे में.  
(अन्ना के वो दोनों ब्लॉग अब एकदम नीचे की दोनों लिंक में नहीं है, जो ५-६ अगस्त के थे. वो ब्लॉग खोजके पढ़ लिये जाएँ.) {नौ नंबर विन्दु में अन्ना द्वारा अपने साथियों की जान बचाने के बारे में लिखा है. देखें. उसको ही ये अरविन्द टीम वाले सामने रखते हैं.अन्ना की बाकी सब बातों की अनदेखी करते.} [इस ब्लॉग में बस इतना ही सम्पादित किया गया. इतनी ही बात जोड़ी गयी. बाकी सब ५-६ अगस्त की ही बातें जस की तस हैं.]

प्रिय अरविन्द केजरीवाल,
सप्रेम वंदे.
आपके पत्र के पहले ही पैराग्राफ में अनेक अर्द्ध सत्य व भ्रामक बातें हैं.

http://mayankgandhi05.blogspot.in/2012/08/arvinds-letter-to-volunteers-after-fast.html

 १. आपने लिखा कि ..
हालांकि आम जनता ने आन्दोलन के लक्ष्य को हासिल करने के हमारी राजनैतिक विकल्प देने की पहल का स्वागत किया है. .. किस आम जनता की बात कर रहे आप? वो जो जंतर-मंतर में थी?? अगर, उसकी बातों को मान भी लिया जाय, तो वो जनता क्या पूरे देश का प्रतिनिधित्व करती है? नहीं न ??

२. फिर आप एक बहुत ही सतही बात लिखते हैं, जिससे पता चलता है कि आप इस देश को जानते ही नहीं... आप लिखते हैं...
विभिन्न चैनलों के सर्वे के मुताबिक़ और आई ए सी के अपने सर्वे के मुताबिक़ ९० प्रतिशत जनता ने इस निर्णय का स्वागत किया है.... आप चैनलों के सर्वेक्षण को देश की आम जनता की राय बता कर खुद को एकदम सतही व्यक्ति बना रहे हो. इस तरह के सर्वेक्षण से क्या इस देश में कोई स्वस्थ राजनीतिक विकल्प बनेगा? क्या बकवास बात है!! मुझे तो आपकी बुद्धि-विवेक पे अब तरस आने लगा है.... और, आई ए सी ने कब ये सर्वे कराया? क्या आप उस एस एम एस सर्वे का तो हवाला नहीं दे रहे, जिसमें हाँ या नहीं में जवाब माँगा गया है? अगर आप इसी सर्वे की बात कर रहे, तो फिर तो आपकी और आपके साथी सलाहकारों की बुद्धि की बलिहारी. इससे भी यही पता चलता कि आपलोग कितने सतही हो और इस देश को असल में शून्य जानते हो.!!

३. फिर आप लिखते हैं
.... हालांकि ऐसे साथियों की संख्या कम है. .. आपने ये कैसे जान लिया कि ऐसे साथियों की संख्या कम है? क्या टीवी वाले सर्वेक्षण से? या अपने आई ए सी के उस बेकार एस एम एस से?? आपके चरों ओर क्या चमचों की ही फ़ौज जुटी रहती है? जो आप उनसे बाहर की दुनिया देख नहीं पा रहे?? या फिर आपने जान-बूझ कर शुतुरमुर्ग जैसी सोच बना ली है? बाहर आके देखें तो आपको पता चलेगा कि आप जिन त्यागी और चमचागिरी से दूर साथियों की बात कर रहे हैं, उनका ९० फीसदी आपके शौकिया विकल्प के पक्ष में नहीं... वो तो अन्ना के रास्ते चलना चाहता. (कृपया अन्ना का इस सिलसिले का पहला ब्लॉग पढ़ें...... ). उसमें स्वस्थ विकल्प की बात तो है, मगर वो किस प्रक्रिया में बने, ये भी स्पष्ट लिखा हुआ है. उस ब्लॉग को पढ़ने के बाद भी आपका यह आधा-अधूरा और बड़े हद तक मिथ्यापूर्ण पत्र आने का अर्थ ये हुआ कि आपकी नीयत में जरुर कोई न कोई खोट है. वो खोट क्या है, आप खुद बता दें... तो अच्छा..वरना, मुझे पता है कि वो क्या खोट है. उसपे बाद में..

४. पहले पैरा में ही आपने एक जगह लिखा है...
किसी भी निर्णय से १०० प्रतिशत लोग सहमत नहीं हो सकते. एकदम सच बात. और, आपके इस निर्णय से सचमुच सौ फीसदी लोग सहमत नहीं....सिर्फ नब्बे फीसदी लोग ही आपसे असहमत हैं... (इस तरह की चालाकी भरी बातें अच्छे आंदोलनकारियों को शोभा नहीं देतीं).

५. आप बार-बार आमरण अनशन तोड़ने पे इतनी सफाई क्यों दे रहे, वो भी अपनी
ईमानदारी के हवाले से? हम जैसे अन्ना आन्दोलनकारी कभी चाहते ही नहीं कि हमारा कोई साथी इस तरह शहीद हो जाय. या आम शब्दों में कहा जाय तो.. मर जाय. आपलोगों ने आमरण अनशन तोड़ कर बहुत अच्छा काम किया. जो लोग इसपे सवाल उठा रहे, वे असल में हमारे साथी नहीं, बल्कि दूसरे एक-दो संगठनों के घुसपैठिये हैं. उनकी क्या परवाह करना? (इस बारे में मैंने अपने ब्लॉग में लिखा भी है..देखा होगा.  नहीं तो देखें........)

६. इसके बाद आपने लिखा है...
इस दौरान अन्ना जी हमारी सेहत पे नज़र बनाए हुए थे................. ..... ..... देश भर से अन्ना जी को सन्देश भी आ रहे थे.... :) यहां बड़ा लोचा है. यानि गडबड है. आमरण अनशन के मामले में आपलोगों ने कोई ड्रामा नहीं किया. इसमें अनेक सच्चे अन्ना आंदोलनकारियों को कोई संदेह नहीं. मगर, इस पैराग्राफ में आपलोगों की ड्रामे बाजी साफ़ दिख रही... आप अन्ना जी की बात कितनी मानते हो, ये हम देख रहे. लेकिन, यहां बड़ी चतुराई से अन्ना को अपनी ढाल जरुर बना रहे. सरकार एसआईटी और जनलोकपाल की बात नहीं मानेगी, ये बात तो अन्ना और सभी समझदार आंदोलनकारियों को २५ जुलाई आन्दोलन की घोषणा के पहले से ही पता था. इसमें नयी क्या बात थी. अन्ना भी पहले से ही ये सब जानते रहे. फिर आप उनका नाम लेकर अपना बचाव क्यों कर रहे? ये है आपकी कमी या कोई खोट.
 
इसी पैरा में आपने लिखा कि
तीसरे-चौथे दिन से ही जनता के बीच से आवाजें आने लगी कि अन्ना जी को देश को राजनीतिक विकल्प देना चाहिए. लोग इस बारे में नारे लगा रहे थे. पर्चे बाँट रहे थे, बैनर लेकर खड़े थे. देश भर से अन्ना जी के पास इस तरह के सन्देश भी आ रहे थे. .. वाह. क्या सीन बनाया है अपने!! शाब्बाश!! ये है असली ड्रामा. समझे. सब आपकी वेतनभोगी कार्यकर्ताओं के कारनामे थे. और, अब भी आपके अनेक वेतनभोगी कार्यकर्ता इस सिलसिले में बड़े सक्रिय हैं. और मेरे जैसों के पास आकर कुछ गाली-गलौज भी कर रहे, ठीक संघियों की स्टाईल में.

   अपने ब्लॉग में एक जगह मैंने ये भी लिखा है...
५. अरविन्द व अन्य साथी क्यों आमरण अनशन करने की जिद पे अड़े रहे? इस सवाल का जवाब वे खुद यहां दें तो बेहतर. (वैसे यह प्रक्रिया और इसके पीछे की मानसिकता मैं अच्छी तरह समझ रहा, जिसपे फिर कभी.).
ये जो कोष्ठक में मैंने
मानसिकता की बात लिखी है, उसी मानसिकता की वजह से आपने आमरण अनशन का नारा दिया और उसकी समाप्ति का भी पहले से ही इंतजाम कर लिया... इस मानसिकता के बारे में आप खुद बता दें..वरना, मैं ही बताऊंगा फिर कभी.

http://kiranshankarpatnaik.blogspot.in/2012/08/blog-post.html

७. इसके अगले पैराग्राफ में भी आप
तिल को ताड़ बना कर पेश कर रहे. ये सही है कि पिछले अगस्त में जैसा समर्थन अन्ना के आमरण अनशन को मिला था, वैसा इस बार आपको नहीं मिला. भले ही अन्ना ने आपका पूरा साथ दिया, मगर लोग जान रहे थे कि ये अन्ना को अपदस्थ करने की आपलोगों की एक चाल ही है...बहरहाल, फिर भी मुंबई-बंगलोर, चेन्नई आदि अनेक स्थानों में ये आन्दोलन बड़े हद तक सफल रहा, जिसका आप उल्लेख करना जरुरी नहीं समझ रहे. क्यों? ये आप अच्छी तरह जानते....(इसके अलावा, अन्ना के महाराष्ट्र दौरे में उमडती आम जनता का भी आपने जिक्र नहीं किया.)
 
आप फिर से झूठ बोल रहे कि लोगों का भरोसा टूटता देख और लोगों के सन्देश आता देख आपने आमरण अनशन तोड़ने और विकल्प देने की घोषणा की. लोगों का भरोसा अन्ना आन्दोलन से नहीं टूटा है, न टूटेगा, बशर्ते कि आपलोग जी-जान लगा कर उसे तोड़ न दें... हाँ, आप पर से जरुर टूटा है..खासकर आपकी ये सब नौटंकी देखने के बाद... और, देश भर से आ रहे
सन्देश भी असल में आपके द्वारा प्रायोजित ही थे.

८. इसके अगले पैर ग्राफ में आप लिखते हैं...
अनशन के नौवें दिन देश के २३ महानुभावों की चिट्ठी प्राप्त हुई. जिसमें उन्होंने अनशन समाप्त कर देश को राजनैतिक विकल्प देने की अपील की. बहुत बढ़िया. एक तरफ आम जनता सामने खड़े होके मांग कर रही, दूसरी ओर सन्देश पे सन्देश आ रहे. और ऊपर से ये २३ महानुभाव... एकदम सही स्किप्ट है. वेरी गुड. आपलोग अब मुम्बैया फिल्मों में जाके कोई सस्पेंस स्क्रिप्ट लिखे. इस जन आन्दोलन का पीछा छोड़ दें. (ये सब मैं भारी मन से लिख रहा. शैली की जगह इसके सार पे ध्यान दें).
  इसी पैरा में आपने जिस एस एम एस और टीवी सर्वे का जिक्र किया है, उस बारे मैं ऊपर लिख चुका. दलाल चैनलों पे आपको इतना भरोसा?? समझ से परे.

९. इसके बाद के पैरा में फिर आपने अन्ना को अपनी ढाल बनायी है. अन्ना को उस वक्त जो उपाय आपने
मुहैया कराया वे उसी उपाय के जरिए आपलोगों की जान बचाई. आखिर बाप हैं, अपने बच्चों को मरता कैसे देख सकते.

अब मैं आपको जवाब देते-देते बोर हो गया...लेकिन, आपकी बकवास जारी है, सो देना ही पड़ेगा.

१०. कोई असल सर्वे हुआ नहीं है. बार-बार ९० फीसदी जनता के समर्थन का दावा करना कुछ वैसा ही है, जैसे  कि भ्रष्ट कांग्रेसी सरकार अपने को
चुनी हुई सरकार बताती है. उसका चुनाव तो फिर भी आम मतदाताओं के एक छोटे से हिस्से ने किया ही है, जबकि   आपके पास कुछ वफादार कार्यकर्ताओं के अलावा ऐसा कुछ नहीं है... सो, ये ९० फीसदी का एकदम झूठा राग कहीं ऐसी जगह सुनाएं, जिन्हें देश का कुछ पता नहीं.... आप जन भावनाओं की कद्र... का भी इस्तेमाल इस तरह कर रहे, जैसे कि कांग्रेसी या अन्य कोई भ्रष्ट सरकार किया करती है.. गाहे-बगाहे.

फिलहाल मैं पूरा बोर हो गया हूं, आपकी बकवास का जवाब देते हुए.... आपके और आपके कुछ साथियों के मन में सचमुच खोट नहीं है तो अन्ना के बताए उस सही रास्ते से
स्वस्थ राजनीतिक विकल्प बनाने के काम करें... आखिर आपने अपने इस पत्र में खुद को अन्ना का बड़ा भक्त भी दिखाया है... सो, उनके पहले ब्लॉग में लिखे अनुसार गांवों में जाएँ..मुहल्लों में जाएँ..वहां जन लोकपाल, पूर्ण चुनाव सुधार आदि आन्दोलन चलाते हुए आमने-सामने बैठ कर विकल्प पे राय लें. लिखित में भी.सबके नाम-पते भी हों. उनके अपने दस्तखत भी हों.... http://news.indiaagainstcorruption.org/annahazaresays/?p=194

(अन्ना के इस ब्लॉग के शीर्षक पे न जाया जाय. असल बात उन्होंने कुछ और ही लिखी है. जिसपे ये तथाकथित कुछ "अन्ना भक्त" ध्यान देना जरुरी नहीं समझते. क्योंकि अन्ना ज़मीन से और पूरे देश से जुड़ने की बात कर रहे और ये जनाब "हवा-हवाई" ही रहना चाहते.).

http://news.indiaagainstcorruption.org/annahazaresays/?p=200

(अन्ना के इस दूसरे ब्लॉग में भी ऐसी ही ज़मीनी बात लिखी गयी है. मगर, ये उड़न-छू क्रांतिकारी एकदम से रॉकेट में सवार होके सीधे संसद में लैंड करना चाहते. ऐसे लोग क्या ख़ाक बनाएंगे स्वस्थ राजनीतिक विकल्प?).

फिलहाल इतना ही... मुझे माफ करना...



आपका एक साथी-
किरण (शंकर) पटनायक.




सोमवार, 6 अगस्त 2012

अन्ना आन्दोलन की आत्म-आलोचना

 अन्ना टीम ये बताए कि "अंतिम कुर्बानी" का नारा कब दिया जाता है?
क्या  इसे  रूमानी क्रांतिकारिता कही जाय या  फिर बचकानापन या शुद्ध लफ्फाजी ?
इस तरह की नारेबाजी से बचा जाय. बाबा रामदेव भी कुछ इस तरह का बचकानापन करते दिख रहे.

इस पोस्ट में पिछले तीन दिनों में मेरे दिये सुझाव व अन्ना आन्दोलन की आत्म-आलोचना  को एक साथ पेश की जा रही है. ये सुझाव व आलोचना अन्ना आन्दोलन को मजबूती प्रदान करने के ही उद्देश्य से है. इसपे सभी साथी गंभीरता से ध्यान दें.

इस पोस्ट में कुछ नयी बातें भी दी जा रही हैं, जिन्हें रेखांकित किया जा रहा.

४ अगस्त
राजनीतिक विकल्प के लिए अन्ना आन्दोलन ने "हाँ" या "ना" में जो एसएमएस जवाब मगवाये हैं, वो सही नहीं. आम जनता से उनके पूरे विचार मंगवाए जाएँ.

२. और, जो व्यक्ति "विकल्प" पे अपने पूरे विचार रखे, उसका नाम-पता-फोन-मेल आदि भी हो. इससे उस व्यक्ति की सच्चाई-ईमानदारी का पता चल पाएगा.

३..आम जनता के भेजे सभी विचारों को पढ़ा जाय. यह काम ईमानदार-त्यागी बुद्धिजीवियों की बड़ी समिति करे. इसपे मंथन हो. छोटे-बड़े सेमीनार हों.

४..विभिन्न राज्यों के हज़ारों गांवों-मुहल्लों में इसपे कईकई बार "चर्चा समूह" आयोजित हो. जनता केबीच गहन चर्चा.फिर वहां जनसंघर्ष समिति बने.

५..जो लोग अपने मौजूदा दलों-नेताओं के बचाव में अनर्गल बकवास कर रहे, वैसे लोगों की पहचान उनके नाम-पते-फोन आदि से कर ली जाय.वे पूर्वाग्रही.

६.. "राजनीतिक विकल्प" के लिए हडबडी करने की कोई ज़रूरत नहीं. उक्त प्रक्रिया से हमलोग जनलोकपाल आन्दोलन को और व्यापक बना सकते हैं.

७.सबको पता, हमारा उद्देश्य मजबूत जनलोकपाल.और, देश की संसद में सच्चे देशभक्तों को भेजना.इसके लिए एकएक गांव-मुहल्लों पे ध्यान केंद्रित हो.

 ८. जनलोकपाल के साथ अब पूर्ण चुनाव सुधार की मांग भी बेहद जरुरी. इसके बिना आगे का रास्ता नहीं खुलने वाला. इसपे भ राय मंगवाएं.

सेना के दो महान सैनिक एक साथ. अब दोनों ही देश के अंदर के जनता के दुश्मनों से लड़ने को कटिबद्ध: 

५ अगस्त


आमरण अनशन एक ब्रह्मास्त्र. इसे एकदम अंत में चलाया जाता. और, उस “अंत” को ठीक से समझ लेना जरुरी. वरना,  ब्रह्मास्त्र भी  फुस्स साबित हो सकता.



२. आमरण अनशन रूपी इस ब्रह्मास्त्र के चलाये जाने की टाइमिंग पे ही अन्ना आन्दोलन, खासकर अरविन्द टीम ने बड़ी भारी भूल की  है.



३. इस भूल की ओर मैं “बाद में” इशारा नहीं कर रहा, बल्कि कुछ साथियों को याद होगा कि मैंने कोई महीना भर पहले ही इस बारे कहा था.



४. तब मैंने अरविन्द आदि से कहा था कि आमरण अनशन करना जरुरी नही, आन्दोलन के हजारों तरीके. मगर, उन सबने बात नहीं सुनी. क्यों?



५. अरविन्द व अन्य साथी क्यों आमरण अनशन करने की जिद पे अड़े रहे? इस सवाल का जवाब वे खुद यहां दें तो बेहतर. (वैसे यह प्रक्रिया और इसके पीछे की मानसिकता मैं अच्छी तरह समझ रहा, जिसपे फिर कभी.).



६. अरविन्द और साथियों को समझना चाहिए कि यह देश का मामला. बच्चों की “जिद” के लिए यहां कोई जगह नहीं.



७/१. अरविन्द बार-बार ये कहते रहे कि हम देश के लिए कुर्बानी देने को तैयार हैं, और डायबिटीज वाले क्यों नहीं दे सकते देश के लिए  कुर्बानी!



७/२. ये अच्छे बोल, मगर, इसकी टाइमिंग गलत. इसे बचकानापन भी कह सकते. ऐसे बचकानेपन से देश बचाओ आन्दोलन नहीं चलता.



८/१ . अरविन्द व साथी यहां जवाब जरुर दें. मैं उन सबसे बहुत-बहुत प्यार करता. वे सच्चे देशभक्त हैं. भूल सबसे होती है. उसे  स्वीकारना भी जरूरी.



८/२. अरविन्द व साथी आत्मआलोचना करें तो बहुत अच्छा हो. मेरा विश्लेषण आगे भी जारी रहेगा. इसलिए नहीं कि मैं उन सबको  आन्दोलन से हटाना चाहता.



८/३...या इस आन्दोलन को नुकसान पहुंचाना चाहता. बल्कि चाहता कि अरविन्द व साथी आत्म मंथन करके इस आन्दोलन को और मजबूत करें. विश्वास जीतें.



अरविन्द व साथियों से मेरा विनम्र अनुरोध कि मुझ जैसे अदने से भी अदने आम लोगों की सलाह पे ध्यान दिया जाय.मुझे पता कि  आपलोग ध्यान देते हो... मगर "२५ जुलाई" आमरण अनशन पे मुझ सहित कई साथियों की बात न मानना एक बड़ी भूल. अब इसके लिए आत्मआलोचना जरुरी. विश्वास जितना भी जरुरी.


६ अगस्त



हमलोग खुद ही महीनों से एक स्वस्थ विकल्प के लिए बराबर बोलते रहे हैं. सो, ऐसे किसी कोई विकल्प का स्वागत करना ही है. इसमें कोई शंका नहीं.



२. मैंने खुद ही कोई एक साल पहले अरविन्द तथा साथियों से कहा था कि अच्छे लोगों को राजनीति में आना ही चाहिए. उस वक्त ये लोग अति-शुद्धतावादी बने हुए थे.



३. ईमानदारी से कोई स्वस्थ राष्ट्रीय राजनीतिक विकल्प बनता है तो हर सच्चे भारतीय को उसके साथ आना ही चाहिए. क्योंकि  फिलहाल अधिकांश दल भ्रष्ट व निहित स्वार्थी.


http://
kiranshankarpatnaik.blogspot.in/2011/04/blog-post_12.html?spref=tw

 ५. ३ अगस्त २०१२ को जिस तरीके से ‘स्वस्थ विकल्प” की घोषणा हुई, मुझे उसपे आपत्ति है. आमरण अनशन तोड़ने के लिए कोई  दूसरा उपाय सोचना चाहिए था.


६. कल ही लिखा है कि “आमरण अनशन” का ये फैसला एक बड़ी भूल थी. इसके बजाय आन्दोलन के दूसरे हथियारों का प्रयोग करना चाहिए था.


७. अनशन तोड़ने के फैसले से मैं बेहद खुश. हमारे अनमोल रत्नों की जान भ्रष्ट-बेरहम सरकार -दलों के कारण नहीं जानी चाहिए.अनशन तोडना अच्छा फैसला.


८. मगर, अनशन तोड़ने केलिए जिस ‘स्वस्थ विकल्प” की आड़ ली गयी, वो गलत. इतने बड़े फैसले के

लिए यह "मज़बूरी का मौका" पूरीतरह से गलत.टाइमिंग गलत.


९. इससे इस स्वस्थ विकल्प की घोषणा एक मजाक बन कर रह गयी. ये और बात है कि हम जैसे लाखों लोग झक मार कर भी इसके साथ.


१०. स्वस्थ राजनीतिक विकल्प की घोषणा से पहले इस मुद्दे पे पूरे देश का दौरा करना जरुरी था. अन्ना का भी दौरा इस घोषणा से पहले  होना चाहिए था.


११. जनलोकपाल मुद्दे पे एक साल से अन्ना का देशव्यापी दौरा बार-बार टल रहा. क्यों? इसका जवाब अन्ना के बजाय अन्ना टीम दे तो बेहतर.



१२. अन्ना का दौरा जनलोकपाल के लिए होना था. उसी दौरे में स्वस्थ विकल्प की पृष्ठभूमि भी बनायी जा सकती थी. जो कि नहीं हुआ. क्यों?


१३. एक बात मैं बड़ी विनम्रता से कहना चाहता कि कांग्रेस-भाजपा-सपा आदि दलों की तरह हमें भी आम जनता को “भेंड़-बकरी” नहीं समझ लेना चाहिए.


१४.मर्जी से आम जनता को यहां-वहां हांकने की प्रवृत्ति हममे विकसित हो रही है. इसीका परिणाम है ३ अगस्त की वो घोषणा. इसपे लगाम लगाना जरुरी.



१५. अभी हमें सिर्फ जनलोकपाल व चुनाव सुधार आन्दोलन को ही व्यापक बनाने के रास्ते पे चलना जरुरी है. उसके लिए हर राज्य-जिले-प्रखंड का दौरा हो.



१६. इन्हीं आंदोलनात्मक दौरों में आम जनता से आमने-सामने मौखिक-लिखित राय मांगी जाय “स्वस्थ विकल्प” के बारे में. और, संघर्ष समिति बनायी जाय.

१७. जल्दबाजी में कोई लिया कोई "अंतिम फैसला" अन्नाआन्दोलन के लिए बहुत ही नुकसानदेह साबित होगा. और, जनता का यह आन्दोलन वर्षों पीछे चला जाएगा.


१८. अभी के इस अंत में, सभी अन्ना आन्दोलनकारी अन्ना जैसी सादगी में जीवन बिताएं. खासकर अग्रणी कार्यकर्ता. इससे सबको प्रेरणा मिलेगी. 



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अन्ना आन्दोलन में मध्य वर्गीय रुझान हावी है. मध्य वर्ग में जिस तरह की रूमानी क्रांतिकारिता देखी जाती है, वो अन्ना आन्दोलन  में बड़े हद तक है. रूमानी क्रांतिकारिता से भी उग्रवादिता का बचकानापन पैदा होता है. उसी बचकानेपन  का नतीजा था "२५ जुलाई का आमरण अनशन". हालांकि उस दिन से आन्दोलन शुरू करने में कोई हर्ज नहीं था, मगर आन्दोलन के लिए हथियार दूसरे होने चाहिए थे. ये बात मैंने पहले ही कह दी है.


मध्य वर्ग में एक सुविधावादी रुझान  भी होता है, वो भी अन्ना आन्दोलन में देखा जा रहा. आराम की जिंदगी जीते हुए, सारी उपलब्ध  सुविधाओं का उपभोग करते हुए "भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन" चला रहे कुछ लोग. इस कारण भी गांवों-मजदुर इलाकों, बस्तियों में  इसका फैलाव नहीं हो पा रहा. इसपे भी हमें खास ध्यान देने की सख्त ज़रूरत है.


जब तक किसानों-मजदूरों को इसमें पूरी तरह शामिल नहीं किया जाता, तब तक यह आन्दोलन सच्चे मायने में राष्ट्रीय रूप धारण नहीं कर सकता. मजदुर तबके की एक खासियत ये है कि वे जल्द ही किसी आन्दोलन का त्याग नहीं करते. जबकि मध्य वर्ग आम तौर पे  ऐसा करता रहता. क्योंकि उसके पास अपनी निजी जिंदगी और शौकिया सामाजिक जिंदगी चलाने के अनेक सुविधावादी विकल्प  खुले रहते  
हैं. जो कि मजदूरों के पास नहीं. इसपे गंभीरता से ध्यान देना जरुरी...