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सोमवार, 28 नवंबर 2011

आज 'भगवान "अल्लाह "जीसस " भी लाचार है . ....

तो पहला काम .-- ख़ुद को जगाना

कितना मुश्किल है खुद को बताना
कि हम एक हैं ...
और मानव धर्म एक है .....
और
सारे भारतीय ।मेरे भाई बहन हैं ...

ये प्रतिज्ञा सिर्फ
पाठशाला का एक नियम बनाना .....

नर्सरी में दाखिला लिया ..
पापा फॉर्म भर रहे थे ..
.

पहला सवाल था .
जाति , धर्म कौन सा ?
हिन्दू ....लिंगायत .......

पापा ...ये धर्म क्या होता है ..?
मेरा सवाल था ...
.

बेटा ..तुम नहीं समझोगी ..
बहुत छोटी हो .....

"आया " ने मेरी ऊँगली थामा ....
आया से मैंने पूछा .....आपका धर्म क्या है . ....?
मुस्लिम ............

ये था पहला पाठ मेरे बचपन का .....
कितना आसान हो गया है ....
खुद को बताना ...


मेरे दादा ..मेरे दादा के दादा ..उनके दादा के दादा
सभी ने यही सीखा था ..
हम सब एक है ...
मानव धर्म एक है ...


कोई तो मेरे सवालो का जवाब दो ..........?
'रामायण कहा से आया ..?
कुरान कहा से आया ..?
महाभारत कहा से आया ....?
और ये बायबिल ॥कहा से आयी ...?


कितना आसान हो गया है ..खुद को बताना
आज 'भगवान "अल्लाह "जीसस " भी लाचार है . ....
उनके नाम पर ही ॥एक दूसरे को मरोड़ रहे हैं ....

कैंडल भी बहुत जलाए ......
टी वी पर नाम भी फैलाये ....
कि ..हम लड़ेगे ....हम लड़ेगे .....
दूसरी सुबह ने देखा ...
वो खुद ही लड़ रहे है .....


मै "मारता "...तू मुस्लिम ....वो बिहारी .....
आसान हो गया है खुदको बताना

सिर्फ "दिल " से सोचो ....
"भारत मेरा देश है ...
और "भारत मेरा घर है "...
..... हम सब भाई बहन है ...

तो कैंडल भी न हो ...
लिस्ट भी न हो
ख़ुद को जगाओ .......
ख़ुद को जगाओ ..
....

तो आसान नहीं होगा ख़ुद को जगाना ......
तो ...पहला काम ..
ख़ुद को जगाना ......
ख़ुद को जगाना ......






नंदिनी पाटिल

क्षमा करें गाँधी हमें ....

गाँधी की आखे मुझे घूर रही थी ...
जब मै नए सदी का हवाला दे रही थी.....

किताब बंद किया अपने नए विचारो और आखो के साथ ...
विचार मेरे गुलाम है ,नए सदी के हाथ .....

नए सदी का पाठ है - आतंकवाद का ...
चरखा यहाँ चलता है,घोटाले घोटालो का.....

धूर्तता की जीत है ,नैतिकता की हार ,
लाचारी की चमडी है ,करो जयजयकार....


सत्ता की है आरती यहाँ, पूजा है कुर्सी की....
प्रसाद है पैसोका , आशीर्वाद मोर्चे , हड़तालों की....


पंडित मुल्ला दो हथियार यहाँ, पाठ यहाँ पर दंगल का......
चरखा यहाँ चलता है , घोटाले घोटालो का.......


कदम चूमती जीत यहाँ ,नई सदी के ..कौरवों की ....
इज्ज़त यहाँ लुटती है, मूल्य और मर्यादा की .....


नई सदी में चिंतन है, शपथ कैसे ले झूठ की ...
नई सदी में मनन है, प्रतिज्ञा कैसे ले फूट की ..


शिकवा करे किससे ? जब बाड़ खाए खेत को ...
आज़ाद भारत में रोज देखते ज़िंदा लाश, ज़िंदा मौत को ...


क्षमा करें गाँधी हमें ....
नई सदी में इंतज़ार है आपका ...
चरखा यहाँ चल रहा है घोटाले- घोटालो का..


-- नंदिनी पाटिल

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

लड़खड़ाता अमेरिका

अमेरिका का आर्थिक संकट

अंतर्राष्ट्रीय साख निर्धारक संस्था स्टैंडर्ड एंड पुअर्स (एस एंड पी) ने अमेरिकी क्रेडिट की रेटिंग एएए (AAA) से घटा कर एए प्लस (AA+) कर दी। बताया जाता है कि 95 सालों में ऐसा पहली बार हुआ है। इस खबर ने दुनिया भर के शेयर बाजार को हिला कर रख दिया। भरतीय शेयर बाजार भी औंधे मुंह गिरा। इस आलेख के लिखे जाते समय अपने 14 महीने के सबसे निचले स्तर सूचकांक 16,000 के आसपास पहुंच गया। यही हाल दुनिया के अन्य शेयर बाजारों का भी रहा। असर ऐसा कि महज एक ही घंटे में कुछ लोगों का दिवाला पिट गया। इसीके साथ पूरी दुनिया में एक बार फिर मंदी हावी हो गयी। 2007 की मंदी का असर यह रहा कि अमेरिका में गरीबी का प्रतिशत बढ़ गया है। और 2007 से लेकर 2010 तक के आंकड़े में अच्छा-खासा उल्लेखनीय फर्क नजर आने लगा है।

बताया जाता है कि इसका असर आनेवाले सालों में और भी दिखाई देगा। हाल ही में अमेरिका के सेंसस ब्यूरो की ओर से जारी आंकड़ों में बताया गया है कि 2010 में गरीबी के प्रतिशत में 0.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और यह 15.1 प्रतिशत पर पहुंच गयी है। 2007 में मंदी की शुरूआत में यह प्रतिशत 2.6 था। जबकि 2009 में 14.3 पर थी। गौरतलब है कि 15.1 का आंकड़ा सेटिंग से पहले का है। चूंकि मंदी का दूसरा दौर चल रहा है, इसलिए जाहिर है अभी इस प्रतिशत में और वृद्धि होगी।

हालांकि पहली नजर में देखने में यही लगता है कि इस रेटिंग में कोई ज्यादा फर्क तो नहीं है, लेकिन जानकारों का मानना है कि चूंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर विश्व बाजार निर्भर होता है, इसीलिए रेटिंग में हल्की-सी भी कमी का असर दिखना लाजिमी है। इस रेटिंग का कुल मिला कर आशय यह है कि अमेरिका को कर्ज देने में जोखिम है। भले ही ऐसा आनेवाले बहुत थोड़े ही समय के लिए हो; लेकिन जोखिम तो है ही। दुनिया भर में अब तक यह आम धारणा थी कि अमेरिकी सरकार का कोषागार काफी मजबूत है। यह कभी खत्म न होनेवाला कुबेर का खजाना है। इसीलिए इसे कर्ज में देने में कोई खतरा नहीं है। लेकिन एस एंड पी द्वारा हाल ही में की गयी रेटिंग से इस आम धारणा को गहरा धक्का लगा है।

लेहमैन ब्रदर समेत तमाम दिग्गज देश 2008 में आर्थिक मंदी के दौर से गुजर चुके हैं, जिसका असर पूरी दुनिया भर में देखा गया। अभी दुनिया उस झटके से उबर भी नहीं पायी थी कि एक बार फिर से मंदी के बादल मंडराने लगे। ऐसे में भविष्य को सुरक्षित कर लेने की गरज से बराक ओबामा ने कर्ज लेने का फैसला किया। यह मामला जब अमेरिकी कांग्रेस में अनुमोदन के लिए आया। लेकिन बहुमत न होने के कारण ओबामा के प्रस्ताव को हरी झंडी नहीं मिल सकी। तब रिब्लिकन पार्टी इसके लिए मनाना पड़ा। लेकिन वह तैयार नहीं हुई। इसको लेकर रिब्लिकन पार्टी और डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच लंबी स्नायविक लड़ाई चली। और बाद में कई दिनों की मशककत के बाद ओबामा सरकार रिब्लिकन पार्टी को इसके लिए तैयार करने में सफल हुए।

इससे दुनिया भर में यह संदेश गया कि अमेरिकी मुद्रा कोष लगभग खाली हो गया है। इससे पहले अमेरिका में दिनोंदिन बढ़ती जा रही बेरोजगारी के मद्देनजर राष्ट्रपति बराक ओबामा पर आउटसोर्सिंग को बंद कराने के लिए दबाव डाला गया। इसके बाद अमेरिका में निवेश के लिए राजी करने के लिए दुनिया भर में विभिन्न देशों का वे दौरा भी कर चुके हैं। इन सबसे इस आशंका को बल मिला कि अमेरिका कंगाली के कगार पर है।

साख की रेटिंग का फंडा

बहरहाल, इस पर चर्चा करने से पहले आइए देखें कि यह स्टैंडर्ड एंड पुअर्स कैसी संस्था है? 1906 में अमेरिका में स्टैंडर्ड स्टैटिस्टक ब्यूरो नाम की एक संस्था हुआ करती थी, जो अर्थ-व्यवस्था से संबंधित तमाम सूचनाओं को इकट्ठा किया करती थी। उन सूचनाओं को परे साल भर एक कार्ड के रूप में प्रकाशित किया करती थी। इसकी स्थापना लुतर ली ब्लेके ने की थी। वहीं अमेरिका में 1860 में हेनरी वर्मनम पुअर्स ने एक और कंपनी की स्थापना थी, जो अमेरिका की अर्थ व्यवस्था पर सालाना तौर पर तमाम सूचनाओं को एक किताब के रूप में प्रकाशित किया करती थी। बाद में हेनरी वर्मनम के बेटे हेनरी विलियम इसे संभाला और नाम एच. वी. एंड एच. डब्ल्यू. पुअर्स कंपनी नाम से इसे चलाया। लेकिन 1941 में दोनों कंपनी का विलय हुआ और यह स्टैंर्डड एंड पुअर्स बन गयी और यह वित्तीय सेवा कंपनी के रूप में जानी जानी लगी। वित्तीय शोध, दुनिया भर के स्टौक व बौन्ड का विश्लेषण ‍करने के साथ यह कंपनी सार्वजनिक और निजी कारपोरेशन और दुनिया के तमाम देशों की क्रेडिट की क्रेडिट रेटिंग भी करती है। इसकी रेटिंग को अमेरिकी स्टॉक एक्सचेंज द्वारा मान्यता भी प्राप्त है।

क्रेडिट रेटिंग के लिए ग्रेड निर्धारित है। ये ग्रेड एएए से लेकर डी तक है। हाल ही में स्टैंर्डड एंड पुअर्स संस्था ने विभिन्न पक्षों का विश्लेषण करके अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था की साख की रेटिंग की है। इसकी रेटिंग के अनुसार मौजूदा समय में अमेरिका की रेटिंग एएए से गिर कर एए भी नहीं, बल्कि उससे भी नीचे एए प्लस हो गयी है। यानि अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था की क्रेडिट एएए की सर्वोच्च रेटिंग से एए प्लस के तीसरे पायदान पर पहुंच चुकी है। एसएंडपी ने यह भी कहा है कि यदि आगे भी यही हाल रहा तो वह अमेरिकी ऋण साख को अगले 12 से 18 महीनों में और घटा सकता है। यही दुनिया भर के निवेशकों के लिए चिंता का विषय बना गया है।

उधर स्टैंडर्ड एंड पुअर्स की रेटिंग का असर जबरदस्त रहा। इतना कि बिकवाली का दौर शुरू हो गया। अमेरिकी बौन्ड के ग्राहक देशों, संस्थाओं और लोगों को भी यह आशंका होने लगी कि अगर अमेरिका का खजाना खाली है तो उनकी रकम का डूबना तय है। वहीं अमेरिका को कर्ज देने वाली संस्थाओं को भी कर्ज की रकम की वापसी को लेकर शंका होने लगी। और लगने लगा कि 2008 की आर्थिक मंदी का जिन्न एक बार फिर से बोतल से बाहर निकल आया है। इसका असर विश्व की अर्थ-व्यवस्था पर देखने को मिला। और दुनिया के तमाम प्रमुख शेयर बाजारों में भारी उथल-पुथल मच गयी।

विशेषज्ञों का नजरिया

हालांकि इस मुद्दे पर विशेषज्ञों का नजरिया अलग-अलग है। एक खेमे का यह मानना है कि 2008 की स्थिति इससे बिल्कुल अलग थी। बल्कि दोनों स्थितियों में जमीन और आसमान का फर्क है। कोलकाता के जानेमाने अर्थशास्त्री शैबाल कर का मानना है कि यह महज एक आशंका है कि अमेरिका एक बार फिर से आर्थिक मंदी की चपेट में आ सकता है। 2008 में जो स्थिति पैदा हुई थी, अर्थशास्त्र की भाषा में वह सब-प्राइम क्राइसिस कहलाती है। उस समय अमेरिकी बैंक और वित्तीय संस्थानों ने ऐसी कंपनी को कर्ज दिया था, जो कर्ज को चुकाने में सक्षम नहीं थी और कंपनी डूब गयी। इसीलिए कर्ज देनेवाली बहुत सारी संस्थाएं रकम वापस न मिलने के कारण मंदी का संकट देखने को मिला। इस बार मामला वैसा नहीं है, बल्कि एस एंड पी की रेटिंग के कारण बाजार में हड़कंप मच है।

हालांकि माना यह भी जा रहा है कि अगर यह आशंका सच साबित हुई तो अमेरिका को अपनी परियोजना से बाहर जाकर कई लाख करोड़ डौलर कर्ज लेना पड़ सकता है। अर्थशास्त्री अभिजीत रायचौधरी कहते हैं कि कर्ज लेने से अमेरिका के सरकारी खजाने पर असर पड़ेगा। ऐसे में कर्ज चुकाने में भी अमेरिका को दिक्कत पेश आएगी। जाहिर है कर्ज देनेवाले का जोखिम बढ़ जाएगा। इन्हीं संभावनाओं के मद्देनजर स्टैंर्डड एंड पुअर्स संस्था ने अमेरिका की क्रेटिड क्षमता के मद्देनजर रेटिंग की। श्री रायचौधरी का मानना है कि दावे कुछ भी किए जाएं; अमेरिका की आर्थिक सेहत के लिए ओबामा प्रशासन और अमेरिकी कांग्रेस के बीच चली रस्साकसी की कीमत अपनी साख गवां कर अमेरिका को चुकानी पड़ी है। और साथ में दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्था को भी। 2008 की मंदी के बाद चीन एक बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभर रहा था। लेकिन चीन ने

एस एंड पी से नाराजगी

गौरतलब है कि एस एंड पी की रेटिंग से अमेरिका में बड़ी नाराजगी है। अमेरिकी वित्त मंत्री ने टिमोथी गेथनर ने अपने एक बयान में कहा है कि रेटिंग एजेंसी एस एंड पी ने अमेरिका के वित्तीय बजट के गणित का अच्छी तरह अध्ययन नहीं किया है। बजट करार से एजेंसी ने गलत निर्णय ले लिया। एजेंसी ने अन्य मुद्दों पर ध्यान देने के बजाए पिछले कुछ महीनों से चल रही बकवास बहस पर ज्यादा ध्यान दिया। वहीं ओबामा ने भी अमेकिर ट्रेजरी सुरक्षित होने का दावा करते हुए कहा कि अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग घटाए जाने के बावजूद अमेरिका हमेशा ट्रिपल ए देश बना रहेगा। भले ही बाजार पर नीचे होता रहे, पर अमेरिका ट्रिपल ए देश बना रहेगा। अमेरिका की केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने अपने एक बयान में कहा है कि स्टैंडर्ड एंड पुअर्स की रेटिंग का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारी सिक्योरिटी पर कुछ समय के लिए असर रहेगा, क्योंकि अन्य कई बड़ी रेटिंग एजेंसियों की नजर में अमेरिका की अर्थव्यवस्था अभी भी दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था है। चीन ने अमेरिका के सरकारी बांडों में 1600 अरब डलर का निवेश कर रखा है। जाहिर है चीन को बड़ा धक्का लगा है।

भारत की स्थिति

अमेरिका के मौजूदा हालात पर भारत ने निश्चित तौर पर बड़ी चौकस प्रतिक्रिया जतायी है। लेकिन कुल मिलाकर तमाम आशंकाओं के बीच रिजर्व बैंक से लेकर वित्तीय मंत्री प्रणव मुखर्जी, योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया और वित्ती मंत्री के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु तक सबने दावा किया है कि यह गंभीर चिंता का विषय नहीं है। इनका कहना है कि भारतीय बाजार की अपनी स्थिति मजबूत है और वह अमेरिका के भरोसे नहीं है। शैबाल कर का भी कहना है कि भारतीय बाजार अपनी ताकत से चलता है। 1997 से लेकर अब तक; यहां तक कि 2008 की वैश्विक मंदी के दौर में भी भारतीय बाजार को ज्यादा नकुसान नहीं उठाना पड़ा है। शेयर बाजार में बिकवाली का जो दौर इस समय चल रहा है, वह घबराहट के कारण है और यह सामयिक है। आनेवाले दिनों में भारतीय बाजार निश्चित तौर पर संभल जाएगा। (समाप्त)

शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

तेलंगाना का दावानल

महंगी पड़ी कांग्रेस की अति धूर्तता

देश में फैलता तेलंगाना का दावानल

किरण पटनायक

कांग्रेस की भूर्खता या अति धूर्तता से तेलंगाना की आग किसी दावानल की तरह देश में फैलती जा रही है। उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, असल, महाराष्ट्र, जम्मू व कश्मीर, गुजरात आदि राज्यों में अलग प्रांत की मांग एक बार फिर तेज हो गयी है। बंगाल में इस आग की आंच सबसे ज्यादा महसूस की जा रही है। 11 दिसंबर से ही दार्जिलिंग का पर्यटन पूरी तरह ठप्प हो चुका है। हजारों पर्यटक वहां फंसे पड़े हैं या चार गुना अधिक पैसे देकर उन्हें दार्जिलिंग से बाहर निकलना पड़ रहा है। गोरखालैंड की मांग पर गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के आमरण अनशन और बंद से इस बर्फबारी के मौसम में भी पहाड़ों पर आग लगी हुई है।


उप्र में बंगाल जैसा जुझारू आंदोलन तो नहीं चल रहा है, मगर कांग्रेस के तेलंगना कार्ड ने इस राज्य की राजनीति में तेज हलचल पैदा कर दी है। उप्र की स्थिति बंगाल के ठीक उल्ट है। बंगाल की शासक पार्टी सहित लगभग सभी दल अलग प्रांत की मांग का विरोध कर रहे हैं तो उप्र की शासक पार्टी बसपा ने खुद राज्य के चार टुकड़े करने की मांग लेकर केंद्र सरकार की जान सांसत में डाल दी है। बसपा नेता व मुख्यमंत्री मायावती ने खुद राज्य के विभिन्न क्षेत्रों की जनता से बुंदेलखंड, हरितप्रदेश और पूर्वांचल के लिए आंदोलन चलाने का आह्वान किया है। उप्र में एक समाजवादी पार्टी को छोड़ लगभग सभी दल बंटवारे के पक्षधर हैं।


उप्र का विभाजन

कांग्रेस बुंदेलखंड अलग प्रांत की मांग लेकर आंदोलन चला रही है। राहूल गांधी इसे बढ़ावा दे रहे हैं। बुंदेलखंड मुक्तिमोर्चा नामक कांग्रेस समर्थक संगठन उप्र और मप्र के बुंदेलखंड क्षेत्रों को लेकर अलग प्रांत बनाने की मांग कर रहा है। पश्चिमी उप्र में हरितप्रदेश के लिए अजित सिंह की पाट ने आंदोलन छेड़ रखा है। अजित सिंह का कहना है, हिंसक आंदोलन के बिना केंद्र सरकार की नींद नहीं खुलती। केंद्र के रवैये ने यही जताया है कि मांग मनवानी हो तो तोड़फोह़ आगजनी से आंदोलन चलाये जाए।


बिहार विभाजन

12 दिसंबर को प्रेस सम्मेलन करके मायावती ने बुंदेलखंड और हरित प्रदेश को उत्तरप्रदेश से अलग करने की मांग की। दो दिनों बाद उनके एक सचिव ने बाराणसी आदि को लेकर अलग पूर्वांचल प्रांत की भी मांग पेश कर दी। पूर्वांचल राज्य की मांग लालू प्रसाद भी करने लगे हैं। उनकी मांग है कि उप्र और बिहार के भोजपुरी क्षेत्रों को मिला कर पूर्वांचल राज्य की स्थापना हो। भोजपुर की मांग से बिहार के मिथिलांचल में भी अलग प्रांत की मांग की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। बुंदेलखंड और भोजपुर की ही तरह मिथिला का भी बहुत पुराना इतिहास है। लेकिन बिहार की अधिकांश जनता राज्य का और अधिक विभाजन नहीं चाहती। पहले ही इस राज्य से झारखंड अलग हो चुका है, जिससे बिहार की हालत लगभग कंगाल जैसी हो गयी है; क्योंकि लगभग सारे उद्योग और खदान झारखंड में रह गए। लेकिन कांग्रेस के तेलंगाना कार्ड से लगी आग बढ़ती गयी तो बिहार का दो-एक विभाजन और भी हो सकता है। शायद मगध और वैशाली नामक राज्य मी बन जाए। तब बिहार का नामोनिशान मिट जाएगा। छोटे-छोटे राज्यों के कट्टर पक्षधर भी इस तरह के अलग प्रांतों का समर्थन नहीं करते। हर जिले या दो-चार जिलों को मिलाकर एक राज्य बना देने से सहूलियत के बजाए मुश्किले ही ज्यादा पेश आनेवाली हैं।


उड़ीसा का विभाजन

उड़ीसा में भी पश्चिम उड़ीसा के लिए वर्षों से छिटपुट आंदोलन चल रहा है। सुंदरगढ़ से लेकर कालाहांडी तक कई जिलों को मिलाकर एक अलग संबलपुरिया प्रांत की मांग हो रही है। हालांकि अभी इसे वहां की अधिकांश जनता का समर्थन हासिल नहीं है। पूर्वी उड़ीसा यानि कटकी लोगों के वर्चस्व के खिलाफ संबलपुरिया जनता का यह एक तरह का विद्रोह है। कांग्रेस के मूर्खतापूर्ण या अति धूर्ततापूर्ण तेलंगाना कार्ड के कारण यह मांग जोर पकड़ने लगी है। झारखंड में भी अलग संथाल परगना राज्य की मांग की जानी शुरू हो चुकी है। आदिवासी राज्य से एक अन्य आदिवासी क्षेत्र अलग होने को बेचैन दिखने लगा है।


क्षेत्रीय आधार

उधर जम्मू व कश्मीर राज्य में भी जम्मू को अलग प्रांत और लद्दाख को केंद्र शासित राज्य बनाने की मांग तेज हो गयी है। असम में बोडोलैंड और गुजरात में सौराष्ट्र राज्य की मांग में भी तेजी देखी जा रही है। महाराष्ट्र में भी विर्दभ के लिए हलचल तेज हो गयी है। यही हाल रहा तो राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों में भी परंपरागत क्षेत्रों को लेकर मांगे शुरू हो जाए तो ताज्जुब नहीं।

आंध्र में फिलहाल तेलंगाना की ही मांग हो रही है। इसके पक्ष और विपक्ष में आंदोलन चल रहे हैं। लेकिन वह दिन दूर नहीं ‍जब आंध्र के परंपरागत क्षेत्र रायलसीमा में भी अलग प्रांत की मांग शुरू हो जाए। तब तटीय क्षेत्र में सिमट कर रह जाएगा आंध्रप्रदेश या फिर आंध्रप्रदेश का नामोनिशान ही मिट जाएगा।

यहां विचारणीय है कि अलग प्रांत बनाया जाना उचित है या नहीं। इस पर पक्ष-विपक्ष में अनेक तर्क दिए जा रहे हैं। लेकिन पिछले तीस वर्षों में इसके पक्ष में दिए जानेवाले तर्कों का वजन बहुत अधिक बढ़ गया है। अपेक्षाकृत बड़े राज्यों को विभाजित करके राज्य बनाये जाएं तो इससे विकास कार्य और प्रशासनिक रूप से आग जनता को सहूलियत ही होगी, वरना पहले दुमका या डाल्टेनगंज की जनता को छोटे-मोटे कामों के लिए भी हजारों रुपए खर्च करके चार-सात दिन बर्बाद करके पटना जाना पड़ता था। झारखंड बन जाने के बाद अनेक लोगों को थोड़ी सुविधा हो गयी है। यही बात अन्य बड़े राज्यों पर भी लागू होती है।


भाषाई आधार

भाषा के आधार पर राज्यों का निर्माण करना एक बड़ी भूल थी। इससे भाषावाद और प्रांतवाद को बढ़वा मिला। जबकि आजादी के बाद ही प्रशासनिक आधार पर पचास-साठ राज्यों का गठन कर दिया जाना चाहिए था। इससे भारतीय राष्ट्र की अवधारणा मजबूत होती। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय राष्ट्रीय भावना काफी प्रबल थी। उसी समय हिंदी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं को द्वि-भाषा के आधार पर विभिन्न प्रशासनिक तथा परंपरागत क्षेत्रों में प्रतिष्ठित करते हुए भारत राष्ट्र की भावना को शक्ति प्रदान की जा सकती थी। मगर जवाहरलाल नेहरू सहित कांग्रेस की फूट परस्त नीति और दिमागी दिवालिएपन के कारण ऐसा नहीं हो सका।

भाषा को सबसे अधिक महत्व दिया गया, मानो भाषा ही एकता की एकमात्र सूत्रधार हो। मजहब को इसी तरह सबसे बड़ा और एकमात्र एकता का आधार मान कर पाकिस्तान की स्थापना की गयी थी। सोचा गया था कि इस्लाम एक ऐसा सीमेंट है जिससे मुसलमान जनता को एकसूत्र में बांध पर कुछ भी मनमानी की जा सकती है। कठमुल्ले इस्लामवादियों के इस भ्रम को पूर्वी पाकिस्तान ने चूर-चूर कर दिया। बांग्लादेश ने बताया कि मजहबी एकता से कहीं बड़ी चीज है भाषा।


पार्ट -2

उर्दू के विरोध में बांग्लाभाषा के लिए पूर्वी पाकिस्तान ने धर्मनिरपेक्ष बांग्लादेश की स्थापना की लड़ाई लड़ी। पाकिस्तानी मुसलमानों ने बांग्लादेशी मुसलमानों का जमकर कत्लेआम किया। इस्लामवाद की धज्जियां उड़ गयीं। और यह हुआ भाषा को लेकर।

नेहरू और उनकी कांग्रेस भाषा के प्रभाव को बखूबी समझती थी। इस मामले में इस्लामवादियों की तुलना में कांग्रेसी चिंतक कहीं आगे थे। मगर आंध्रप्रदेश की घटनाओं ने यह साबित कर दिया कि सिर्फ भाषा के आधार पर किसी देश या राज्य को एकसूत्र में नहीं बांधे रखा जा सकता। उड़ीसा, महाराष्ट्र, गुजरात सहित हिंदी प्रदेशों में भी कुछ ऐसा ही हुआ और हो रहा है। खासकर आंध्र की घटना ने यह साबित कर दिया कि भाषा के आधार पर राज्यों के गठन का कांग्रेसी फैसला गलत था। राज्यों के गठन के लिए झारखंड, विदर्भ, तेलंगाना, बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़ आदि परंपरागत क्षेत्रों की भावनाओं और वास्तविकता को भी ध्यान में रखा जाना जरूरी था। और इन सबसे बड़ी बात यह कि विकास कार्यों तथा आम जनता की सहूलियत को ध्यना में रखते हुए प्रशासनिक आधार को सर्वोपरि रखा जाना चाहिए था। बहरहाल, इसमें लंबी चर्चा की जा सकती है, की जानी चाहिए। फिलहाल यहां इतना ही पर्याप्त है।


राजग सरकार की समझदारी

जहां तक वर्तमान तेलंगाना आंदोलन की बात है तो कांग्रेस की अति धूर्तता के कारण ही यह आग इतनी फैल गयी। याद करें कि झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के गठन के वक्त ऐसी आग नहीं लगी थी। छत्तीसगढ़ में कोई बड़ा आंदोलन भी नहीं था। उत्तराखंड में चल रहा आंदोलन उग्र रूप धारण नहीं कर पाया था। झारखंड का आंदोलन कभी जरूर उग्र रूप ले लिया करता था। लेकिन इन ‍तीनों राज्यों के निर्माण के समय कोई रक्तपात, तोड़फोड़, आगजनी की कोई बड़ी घटनाएं नहीं हुई। इसके लिए राजग सरकार धन्यवाद की पात्र है, वहीं इन तीनों (तत्कालीन बिहार, उप्र, मप्र) राज्यों के तत्कालीन राजनीतिक समीकरण के कारण भी लगभग शांतिपूर्ण तरीके से तीन नए राज्यों का निर्माण हो पाया।

बिहार विधानसभा ने पहले ही झारखंड अगल राज्य के पक्ष में मतदान कर रखा था। लालू यादव की राजनीतिक मजबूरी के कारण ही ऐसा संभव हो पाया था। जबकि भाजपा, झामुमो, सीपीआई आदि दल पहले से ही झारखंड राज्य के पक्ष में थे। दिल्ली में भाजपा नेतृत्व की राजग सरकार बनने से भाजपा-जदयू की पहल पर झारखंड राज्य के निर्माण को हरी झंड़ी दिखा दी गयी। भाजपा वर्षों से बिहार में सरकार बनाने के सपने देख रही थी, मगर उसे कभी भी तत्कालीन बिहार में बहुमत नहीं मिल पाया। लेकिन तत्कालीन बिहार के झारखंड क्षेत्र में भाजपा-जदयू को बहुमत प्राप्त था। सो राजग सरकार ने वहां अपनी सरकार बनती देख तुरंत झारखंड राज्य का गठन कर दिया। उप्र और मप्र के विभाजन में भी यही समीकरण काम कर रहा था। उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में भी पहली सरकार भाजपा की ही बनी।

आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र के निर्माण से कांग्रेस नए या छोटे राज्य के निर्माण की लगभग विरोधी रही है। बल्कि कहा जाए कि महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश का गठन भी बड़े और हिंसक आंदोलन के बाद ही हुआ। वो भी भाषा के ही आधार पर। हालांकि बाद में और भी कुछ राज्य बने, मगर कांग्रेस मोटेतौर पर नए राज्यों के निर्माण का विरोध ही करती रही। झारखंड आदि राज्यों के निर्माण का भी कांग्रेस ने विरोध किया था। लेकिन तेलंगाना अलग राज्य के लिए केंद्रीय कांग्रेस भला कैसे तैयार हो गयी?

तेलंगाना राज्य आजादी प्राप्ति के बाद ही बन जाना चाहिए था। मगर 1953 में आंध्रप्रदेश के गठन के समय भी तेलंगाना राज्य नहीं बनाया गया। उसे आंध्र में शामिल कर दिया गया। तर्क वही भाषा का ही था। लेकिन तेलंगाना की मांग जारी रही। हाल के वर्षों में तेलंगाना राष्ट्रीय समिति (तेरास) के आंदोलन से इस मांग को बल मिला। 2004 में चुनावी फायदे की गरज से कांग्रेस ने तेलंगाना राज्य का समर्थन किया। और आंध्र समेत केंद्र की गद्दी पर आसीन हुई। गद्दी पाते ही कांग्रेस ने तोते की तरह आंखें फेर ली। चंद्रशेखर राव की मांग ठुकरा दी गयी। हालत इस कदर बदतर हुई कि तेरास ने संप्रग छोह़ कर तेलुगु देशम और वामो का दामन थाम लिया। उसके बाद वह भाजपा, राजग से भी जा मिली। और आखिरकार अलग राज्य की मांग पर चंद्रशेखर राव ने आमरण अनशन कर एक बड़ा आंदोलन छेड़ दिया।


भाजपा लाइन की फूहड़ नकल

आंदोलन की तीव्रता और तेलंगाना क्षेत्र में खुद को अलग-थलग होता देख कांग्रेस ने भाजपा की लाइन अख्तियार करने का फैसला किया। दोनों हाथ में लड्डू पाने के लिए केंद्रीय कांग्रेस और उसकी केंद्र सरकार ने बड़ी जल्दबाजी में तेलंगाना राज्य बनाये जाने की प्रक्रिया शुरू करने की घोषणा कर दी। और, कांग्रेस सरकार यहीं चुक गयी। उसके तेलंगाना कार्ड के कारण न सिर्फ आंध्र में बल्कि देश भर में पृथक राज्यों की आग दावानल बन कर फैलती जा रही है।

केंद्रीय कांग्रेस ने भाजपा राजग सरकार की नकल पर आंध्र और तेलंगाना राज्यों में अपनी सरकार बनाने के लिए अलग राज्य को अपना समथर्न दे तो दिया, लेकिन वह अपने तानाशाही स्वभाव के कारण राज्य की जनता और वहां की जनता और वहां की विधानसभा को अपने विश्वास में लेना भूल गयी। भाजपा ने उप्र और मप्र के विभाजन से पहले बड़ी सफाई से वहां की विधानसभाओं में राज्यों के विभाजन के पक्ष में मतदान करवा लिया था। मतदान के पहले और बाद में भाजपा ने वहां के जनमानस को तैयार करने का काम भी एक हद तक किया। लेकिन कांग्रेसी नेतृत्व एक व्यक्ति या एक परिवार की तानाशाही पर आधारित है, वहां राज्यों, जिलों के नेता तक आला कमान द्वारा थोपे जाते हैं। इसी तानाशाही सोच के कारण ही केंद्रीय नेतृत्व ने बड़ी जल्दबाजी में खुद को बहुत बड़ा चतुर समझते हुए उक्त चूक कर ‍दी। अब आंध्रप्रदेश के तेलंगाना समर्थकों और विरोधियों को समझाने-धमकाने में आला कमान को दिनरात एक करना पड़ रहा है। फिर भी सफलता मिलती नहीं दिख रही।

आमरण अनशन में बैठे चंद्रशेखर राव को बचाने की ईमानदार और जनतांत्रिक कोशिश की गयी होती तो केंद्रीय कांग्रेस को चाहिए था कि वह पहले अपने मुख्यमंत्री सहित वहां के मंत्रिमंडल और अपने विधायक-सांसदों को विश्वास में लेती। मुख्यमंत्री को चंद्रशेखर राव के पास भेजा जाता और उनसे आमरण अनशन तोड़ने का अनुरोध ‍करने को कहा जाता। साथ ही कांग्रेसी तथा विपक्षी विधायकों भी विश्वास में लेने की प्रक्रिया शुरू की जाती। लेकिन प्रधानमंत्री, केंद्रीय गृहमंत्री, कांग्रेस अध्यक्ष आदि ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। महामूर्ख की तरह खुद को सबसे बड़ा चतुर मानते हुए कांग्रेस आलाकमान के इशारे पर केंद्र सरकार ने तेलंगाना अलग राज्य गठन की प्रक्रिया शुरू करने की घोषणा कर दी। और देश में आग लगा दी। महंगाई, बेरोजगारी, अकाल, बाढ़, जबरिया भूमि अधिग्रहण आदि बड़े-बड़े मुद्दे किनारे लग गए और जिले-जिले को अलग प्रांत बनाने का मुद्दा प्रमुख बन गया। कुछ राज्य जरूर बनने चाहिए, मगर अलग राज्य बनाने भर से महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी की समस्या खत्म हो जाएगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। तीन नए राज्यों के बदतर होते हालात यही साबित करते हैं। इसलिए अगल प्रांत के आंदोलनों से कहीं ज्यादा जरूरी है, जनता की रोजी-रोटी की विकराल समस्याओं को लेकर देश भर में एकजुट आंदोलन चलाया जाना। ऐसा करते हुए भी कुछ अत्यंत जरूरी अलग राज्य के आंदोलन चलाये जा सकते हैं।

बहरहाल, केंद्र सरकार को नए राज्य के गठन का सांवैधानिक अधिकार जरूर है, मगर विधानसभाओं सहित विभिन्न राज्यों की जनता को इसके लिए तैयार किया जाना कहीं ज्यादा जरूरी है। तेलंगाना राज्य पर केंद्र सरकार की मानमानी घोषणा के कारण ही मायावती को अपनी राजनीति चलाने का मौका मिल गया। अब वह कह रही हैं कि पहले केंद्र सरकार उत्तरप्रदेश के चार टुकड़े करने पर निर्णय कर ले, तब वे भी राज्य में आगे की कार्रवाई करेंगी। गोरखालैंड, बोडोलैंड आदि का भी कुछ ऐसा ही कहना है। हालांकि केंद्र सरकार ने साफ-साफ कह दिया है कि तेलंगाना को छोड़ देश में और किसी नए राज्य के गठन का कोई इरादा नहीं है, लेकिन छत्ते को एक बार छेड़ देने के बाद मधुमक्खियों के कहर से बचना मुमकिन है? ....... (यह आलेख मैंने कोई एक-डेढ़ साल पहले लिखा था. लेकिन यह अब भी ताज़ा है... इससे आपको अनेक सूचनाएं मिल जाएंगी. हालांकि फिलहाल यह आन्दोलन देश में नहीं चल रहा. यह अभी आन्ध्र प्रदेश तक ही सीमित है. मगर यह कभी भी देश के अन्य हिस्सों में फिर से जोर पकड़ सकता है.)....(समाप्त)

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

प्रकाश गति को पछाड़ता न्यूट्रिनो ?

न्यूट्रिनो की चुनौती

टाइम मशीन का निर्माण संभव ?

आइंस्टाइन के अनुसार, इस ब्रह्मांड में प्रकाश की गति सबसे तेज है। इससे तेज कुछ भी नहीं है। लेकिन पिछले दिनों वैज्ञानिकों ने न्यूट्रिनो नामक एक अणु की खोज की थी। और अब पता चला है कि इसकी गति प्रकाश की गति से कहीं अधिक है। प्रकाश की गति प्रति सेकेंड 299,992,458 मीटर है। जबकि न्यूट्रिनो की गति प्रति सेकेंड 300,006,000 मीटर (3 लाख 6 किमी) है। इस दूरी को तय करने में प्रकाश को एक सेकेंड के 10,000 वें भाग का 23 वां हिस्सा का समय लगता है। लेकिन न्यूट्रिनो को जो समय लगता है वह एक सेकेंड के 100,000,000 भाग का छठा हिस्सा लगता है।


इसके अलावा अब तक जो माना जाता रहा है कि फूटोन या प्रकाश कण का कोई भार नहीं होता है। लेकिन नए शोध से पता चला है कि न्यूट्रिनो का भार भी है। ऐसे में यह नया शोध आइंस्टाइन के सापेक्षता के सिद्धांत से मेल नहीं खाता। यही नहीं, माना जा रहा है कि वैज्ञानिक ब्लैक होल और बिग बैंग के बाद पृथ्वी के निर्माण के रहस्य को जानने के लिए जो शोध कर रहे हैं, उसमें यह मील का पत्थर साबित हो सकता है। इसी के साथ यह भी माना जा रहा है कि न्यूट्रिनो से संबंधित नए निष्कर्ष के कारण विश्व पर्यावरण के नियमों की व्याख्या के तमाम सिद्धांत और भौतिकशास्त्र के सूत्र पर अब नए सिरे से सोच-विचार की जरूरत है।


आइंस्टाइन के सापेक्षता के सिद्धांत के अनुसार इस ब्रह्मांड में प्रकाश की गति के आगे कोई भी गति टिकती नहीं है। यानि ब्रह्मांड में प्रकाश की ‍गति सबसे अधिक द्रुत है। इस आधार पर आइंस्टाअन ने जो सूत्र निकाले थे यह E = MC2 है। यह सिद्धांत सापेक्षता के सिद्धांत को सिद्ध करता है। भौतिकशास्त्र के बहुत सारे सूत्र इसी सिद्धांत पर आधारित हैं। न्यूट्रिनो के विचित्र चरित्र की खोज के बाद आइंस्टाइन के इस सूत्र पर सवालिया निशान खड़ा हो गया है। हालांकि इस सिद्धांत को अभी खारिज नहीं किया गया है, लेकिन इसे सटीक मानने से वैज्ञानिकों को गुरेज जरूर है। फिलहाल सर्न यानि काउंसिल यूरोपियन रिसर्च न्यूक्लियर के वैज्ञानिक निश्चिंत हैं कि न्यूट्रिनो की गति से संबंधित निष्कर्ष में किसी तरह की यांत्रिक गड़बड़ी या गणना की त्रुटि नहीं है। इसी कारण सहज वैज्ञानिक नियम के तहत इस निष्कर्ष को नेचर पत्रिका के जरिए सर्न के वैज्ञानिकों ने आगे व्यापक शोध के लिए जारी कर दिया है।

आखिर यह क्या बला है न्यूट्रिनो, जिस पर इतना शोर मचा हुआ है। न्यूट्रिनो एक बुनियादी अणु है। माना जाता है कि इसी बुनियादी अणु से ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ है। लेकिन इसके बारे में अभी भी बहुत सारे रहस्यों का खुलासा नहीं हो पाया है। न्यूट्रिनो की दुनिया एक रहस्यमय दुनिया है। इसके अणुओं की पहचान बहुत ही मुश्किल काम है। परमाणु कण इलेक्ट्रॉन का भार एक मिलीग्राम के 1,000,000,000,000,000,000,000,000 (एक के पीछे 24 शून्य) भाग का एक भाग होता है। जबकि न्यूट्रिनो उस इलेक्ट्रॉन की तुलना में पांच लाख गुना हल्का होता है। पहले माना जाता था कि यह भारहीन होता है। लेकिन हाल के शोध से पता चला है कि इसका भी भार होता है, लेकिन बहुत ही कम।


1930 में एक ऑस्ट्रियाई वैज्ञानिक होल्फगॉन्ग पॉली ने न्यूट्रिनो नामक एक घोस्ट पार्टिकल्स यानि भूतिया अणु के अस्तित्व का अनुमान लगाया था। इसकी गति इतनी तेज होती है कि हर पल इसके अरबों-खरबों कण हमारे शरीर को आर-पार करते हुए ब्रह्मांड की सैर पर निकल जाते हैं। इनके लिए हमारे शरीर का मानो कोई अस्तित्व ही न हो। हर पल ऐसा खरबों (लगभग पांच खरब) न्यूट्रिनो कण हमारे शरीर के प्रतिवर्ग सेंटीमीटर हिस्से में प्रवेश कर पल भर में शरीर के दूसरे छोर से निकल जाया करते हैं। ये तीर इतने सूक्ष्म होते हैं और इसका इतना अधिक वेग होता है कि हमें इनके आने-जाने का कुछ पता ही नहीं चलता। इसीलिए इसे गॉड पार्टिकल्स या ईश्वर अणु भी कहा जाता है। बहरहाल, इसे जानने के प्रयास में दुनिया भर के वैज्ञानिक लगे हुए हैं।

हाल के शोध

सर्न यानि काउंसिल यूरोपियन रिसर्च न्यूक्लियर के वैज्ञानिकों ने 23 सितंबर को इसकी गति का जो निष्कर्ष निकाला है, वह बड़ा चौंकानेवाला था। सर्न के वैज्ञानिकों द्वारा स्वीटजरलैंड में जेनेवा के करीब भूगर्भ में न्यूट्रिनो नामक अणु को छोड़ा गया इस "भूतिया अणु" ने 730 किमी का लंबा रास्ता तय किया और इटली के ग्रान सासो पहाड़ी के एक शोध केंद्र तक प्रकाश की गति की तुलना में 60 नैनो सेकेंड से भी कम समय में पहुंचा। हालांकि सर्न के विख्यात ब्रिटिश वैज्ञानिक स्टीफेन हॉकिंग का मानना है कि अभी इसमें और भी शोध होने हैं। इसीलिए आइंस्टाइन के शोध को एकदम से खारिज नहीं किया जा सकता, लेकिन जहां तक गति का सवाल है उस पर सवालिया निशान जरूर खड़ा हो गया है। इंग्लैंड के भौतिकशास्त्र के संस्थान रॉयल सोसाइटी के पूर्व निदेशक वैज्ञानिक सर मार्टिन रिस का कहना है कि शोध के निष्कर्ष से सारे वैज्ञानिक भौंचक हैं। इसीलिए सर्न के वैज्ञानिकों ने हर संभावित तरीके से इस निष्कर्ष की जांच की कि इस निष्कर्ष के पीछे कोई यांत्रिक त्रुटि तो नहीं रह गयी है। लेकिन ऐसा किसी त्रुटि का अभी तक पता नहीं चल पाया है। बहरहाल, अभी इस पर और भी शोध जारी है। अमेरिका और जापान भी इसमें अपनी तरह से शोध कर रहा है।

लंबे समय से भारत में भी न्यूट्रिनो को लेकर शोध कार्य चल रहे हैं। इस शोध का सेहरा भारत के सिर बंध सकता था। लेकिन यह बड़े दुख की बात है कि ऐसा नहीं हुआ। मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) के वैज्ञानिक नवकुमार मंडल पिछले दिनों कोलकाता आए हुए थे। उस समय उन्होंने दावा किया था कि इसकी शिनाख्त सबसे पहले भारत के कर्नाटक स्थित कोलार के सोने की खदान में ही हुई थी। पिछले बीस वर्षों से केंद्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय के कारण इंडिया बेस्ड न्यूट्रिनो ऑब्जवेटरी (आईएनओ) का कार्यान्वयन अधर में लटका हुआ है। भारत सरकार की अदूरदर्शिता तथा लापरवाही की वजह से न्यूट्रिनो की शिनाख्त के शोधकार्य में अगुवा रहने के बावजूद भारत पिछड़ गया। (इस बारे में इसी ब्लॉग में मेरा एक अन्य आलेख देखें.)

1950 के दशक में ही महान वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने अपने अ‍धीनस्थ शोधकर्ता वीवी श्रीकांतन को कोलार खदान के नीचे शोधकार्य के लिए भेजा था। जमीन के नीचे विभिन्न गहराइयों में म्युअन नामक कणों की उपस्थिति की मात्रा कितनी है, यही मापने का जिम्मा श्रीकांतन को सौंपा गया था। इस दौरान श्रीकांतन तथा उनके साथियों को इस बात का आभास हुआ कि जमीन के नीचे कई किलो मीटर की गरहाई न्यूट्रिनो पर शोध के लिए उत्कृष्ट स्थान है। 1965 में वहां न्यूट्रिनो पर अनुसंधान शुरू हुआ। श्रीकांतन, एकजीके मेनन और वीएस नरसिंह्म जैसे भारतीय वैज्ञानिकों के साथ ओसाका विश्वविद्यालय और डरहम विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक भी शामिल हुए। ब्रह्मांड में चक्कर लगानेवाले सूक्ष्म न्यूट्रिनो कणों को पहली बार यहीं पहचाना गया।

अगर न्यूट्रिनो का निष्कर्ष सटीक निकला तो यह मामला बहुत कुछ विज्ञान कथा के टाइम मशीन जैसा होगा। कैसे? आइए देखें। कोलकाता की वैज्ञानिक तापसी घोष जो यहां वैरिएबल एनर्जी साइक्लोट्रोन सेंटर में कार्यरत हैं, कहती हैं कि गोली चलती है और जब वह हमारे शरीर को भेदती है तो हमें दर्द का अनुभव होता है। हम सब जानते हैं कि गति ऊर्जा पैदा करता है। जाहिर है गोली चलने पर उसमें गति पैदा होती है। एक वेग के साथ वह आगे बढ़ता है। हमारे शरीर को भेदते समय गोली उस ऊर्जा को हमारे शरीर में जमा कर देती है। इससे शरीर को दर्द की अनुभूति होती है। लेकिन चूंकि न्यूट्रिनो की गति प्रकाश की गति से भी अधिक है और इसी कारण यह तेज गति से हमारे शरीर को आसानी से आर-पार हो जाती है। ऐसे होते समय हमारे शरीर में जरा भी ऊर्जा जमा नहीं होती है। अंत: हर क्षण लाखों-करोड़ों न्यूट्रिनो हमारे शरीर को भेदते है, लेकिन हमें इसका एहसास नहीं होता।

घोष कहती हैं कि बात महज इतनी-सी नहीं है। नए शोध का निष्कर्ष अगर स्थापित हो जाता है तो यह निष्कर्ष कार्य और कारण के सिद्धांत को भी पलट कर रख देगा। अभी तक माना जाता था पहले कारण होता है और उसके बिना पर ही कोई कार्य होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार इस ब्रह्मांड में न्यूट्रिनो प्रकाश की गति के लिए चुनौती है। उनका कहना है कि अगर प्रकाश की गति सबसे तेज नहीं है तो यह पूरा मामला पलट जाएगा। कार्य-कारण का संबंध टूट जाएगा। पहले कार्य होगा और तब कारण होगा। पहले मौत होगी, इसके बाद बंदूक से गोली चलेगी। आया कुछ समझ में? यह मामला बड़ा जटिल है। सर्न के वैज्ञानिकों की माने तो आज का तथ्य हम बीते कल में भेज सकते हैं। हो गया न भेजा फ्राई! विज्ञान कथा में टाइम मशीन का जिक्र है, जिसे हम सबने कभी न कभी पढ़ा है। विज्ञान कथा की यह अवधारणा क्या अब सच होनेवाली है! (फ़िलहाल समाप्त)

बुधवार, 28 सितंबर 2011

न्यूट्रिनो की खोज में पिछड़ता भारत

केंद्र सरकार की लापरवाही

न्यूट्रिनो की खोज में पिछड़ता भारत

किरण पटनायक

भारत सरकार की लापरवाही और पर्यावरणवादियों की उनुचित जिद के कारण ब्रह्मांड में सरपट दौड़ती न्यूट्रिनों की खोज में अग्रणी रहा भारत पिछड़ता जा रहा है। पिछले ढ़ाई वर्षों से केंद्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय को कारण जहां इंडिया बेस्ड न्यूट्रिनो ऑब्जवेटरी (आईएनओ) का कार्यान्वयन अधर में लटका हुआ है, वहीं पिछले बीस वर्षों से भारत सरकार की अदूरदर्शिता तथा लापरवांी की वजह से न्यूट्रिनो की शिनाख्त के शोध कार्य में अगुवा रहने के बावजूद भारत बहुत पिछड़ गया।

हालांकि 1930 में ही एक ऑस्ट्रियाई वैज्ञानिक होल्फगॉन्ग पॉली ने न्यूट्रिनो नामक एक घोस्ट पार्टिकल्स यानि भूतिया कण के अस्तित्व का अनुमान लगा लिया था, मगर इसकी शिनाख्त सबसे पहले भारत के कर्नाटक स्थित कोलार के सोने की खदान में ही हुई। ऐसा दावा है टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) के वैज्ञानिक नवकुमार मंडल का। नवकुमार आईएनओ के एक प्रमुख वैज्ञानिक हैं। 1950 के दशक में ही महान वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने अपने अ‍धीनस्थ शोधकर्ता वीवी श्रीकांतन को कोलार खदान के नीचे शोधकार्य के लिए भेजा। जमीन के नीचे विभिन्न गहराइयों में म्युअन नामक कणों की उपस्थिति किस-किस मात्रा में, इसा मापने का काम उन्हें करना था। कई सालों तक खदान में शोध करने के बाद श्रीकांतन तथा उनके साथियों को पता चला कि जमीन की कई किमी गहराई न्यूट्रिनो पर शोध करने के लिए उत्कृष्ट स्थान है

1965 में वहां न्यूट्रिनो पर अनुसंधान शुरू हुआ। श्रीकांतन, एकजीके मेनन और वीएस नरसिंह्म जैसे भारतीय वैज्ञानिकों के साथ ओसाका विश्वविद्यालय और डरहम विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक भी शामिल हुए। ध्यान रहे कि यहीं ब्रह्मांड में चक्कर लगानेवाले सूक्ष्म न्यूट्रिनो कणों को पहली बार पहचाना गया। इसी बीच जापान और अमेरिका में न्यूट्रिनो अनुसंधान के लिए प्रयोगशालाएं बनीं और वहां के अनुसंधान की सफलता के लिए उन देशों के वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार भी मिले। मगर भारत में क्या हुआ? 25 वर्षों तक अनुसंधान चलने के बाद पैसे और प्रोत्साहन की कमी से उसे बंद कर देना पड़ा। 1990 में कोलार खान बंद हो गया। खान बहुत गहरे खोदा जा चुका था, मगर वहां से सोना की मात्रा बहुत ही कम हो गयी थी। अनुसंधान खर्च उठाना वैज्ञानिकों के लिए संभव नहीं था। और भारत सरकार को इससे कुछ लेना-देना नहीं था। सो भारतीय वैज्ञानिक यूरोप और अमेरिकी की प्रयोगशालाओं की ओर चल पड़े।

विदेश चले तो गए, मगर देशप्रेम उन्हें कोंचता रहा। नवकुमार मंडल कहते हैं कि हममें से कई को बड़ा अफसोस हुआ करता कि परमाणु भौतिक विज्ञान के आधुनितम स्तर के अनुसंधान का जो सुनहरा मौका हमारे देश में बहुत पहले से था, हमने उसका फायदा नहीं उठाया, बल्कि उसे गंवा दिया। इसीलिए साल 2000 में चेन्नई स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ मैथमैटिकल साइंस (आईएमएससी) के विशेषज्ञों के सम्मेलन में इसे फिर से शुरू करने के लिए गंभीर चर्चा हुई। और आखिरकार देश के जानेमाने वैज्ञानिक संस्थानों ने मिलजुल कर इंडिया बेस्ड न्यूट्रिनो ऑब्जरवेटरी बनाना शुरू किया। आईएनओ ने लग-भिड़ कर परमाणु ऊर्जा विभाग, विज्ञान व प्राद्योगिकी मंत्रालय तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्वीकृति पाने के बाद अगस्त 2005 में प्रधानमंत्री की विज्ञान सलाहकार समिति के सामने रिपोर्ट पेश की। इतनी मेहनत-मशक्कत करने के बाद आखिरकार केंद्र सरकार नींद से जगी और योजना आयोग ने 11वीं पंचवर्षीय योजना में आईएनओ के लिए 950 करोड़ रु. आवंटित किया। रुपए आवंटित करने के बाद केंद्र सरकार फिर से गहरी नींद सो गयी।


पैसे की समस्या बड़े हद तक हल हो जाने के बाद अनुसंधान के लिए स्थान चयन की बड़ी समस्या आ खड़ी हुई। न्यूट्रिनो की पहचान करने के लिए आईएनओ बनाया गया, जबकि इसके कणों या अणुओं को पहचानना बहुत ही दुरूह कार्य है। इसकी पहचान करने के लिए सबसे पहले इसे अणुओं की भीड़-भाड़ से अलग करना जरूरी है। धरती की सतह पर अन्य अनेक कणों या अणुओं की इतनी भारी भीड़ होती है कि उसकी शिनाख्त में गड़बड़ी हो ही जाएगी। इसीलिए इस उपकरण को किसी पहाड़ की गहराई में लगाना तय हुआ; जिससे उसके ऊपर चारों अओर से एक किमी से अधिक मोटी चट्टानों की चादर घिरी रहे। इससे अवंछित कण या अणु उस चादर में अटक जाएं।



इसके लिए ऐसे पहाड़ की खोज शुरू हुई, जिसकी चट्टान काफी सख्त हो और जिसमें हजार से डेढ़ हजार मीटर गहराई तक ड्रिल कर प्रयोगशाला स्थापित की जाए। इससे वह सुरक्षित रहेगी और उसके धसने का खतरा नहीं रहेगा। नीगिरि पर्वत श्रृंखला में ऐसा स्थान मिल गया। भू-वैज्ञानिकों की मदद से व्यापक अनुसंधान के बाद आईएनओ ने बंगलुरू से 250 किमी दूर तमिलनाडु के सिंगारा के करीब पहाड़ की चोटी पर 1300 मीटर गहराई में न्यूट्रिनो डिक्टेटर बिठाना तय किया।

उसके बाद शुरू हुआ बाघ बनाम विज्ञान विवाद। वो स्थान नीलगिरि बायोस्फियर रिजर्व का हिस्सा है। यह बाघ और हाथियों का अभयारण्य है। बहरहाल, वहां न्यूट्रिनो डिक्टेटर लगाये जाने से जंगली जानवारों पर बुरा असर पड़ेगा या नहीं; इसके लिए बंगलुरू के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के हाथी विशेषज्ञ रमण सुकुमार से सलाह ली गयी। सुकुमार के अनुसार डिक्टेटर से वन्यप्राणी के जीवन को खतरा नहीं पहुंचनेवाला। लेकिन पर्यावरणवादियों ने उनकी बात नहीं मानी। यहां यह गौरतलब है कि पर्यावरणवादी दो प्रकार के होते हैं। एक जो खुद पर्यावरण वैज्ञानिक हैं। वे पर्यावरण के विनाश और उससे उत्पन्न खतरों से लोगों को अवज्गत कराते हैं। ऐसे लोग शुद्ध रूप से अधिकांशत: पर्यावरणीय चिंता किया करते हैं। दूसरा किस्म पर्यावरण कार्यकर्ताओं का है, जिनके साथ दूसरे प्रकार के स्वार्थ भी जुड़े हो सकते हैं। अनेक पर्यावरणवादी संगठन साम्राज्यवादी पैसों से भी चलाये जा रहे हैं, जो अनेक स्थान पर तिल का ताड़ बना कर राष्ट्रीय हितों के उचित मामलों में भी टांग अड़ाया करते हैं। देखा गया है कि ऐसे अपने पर्यावरणवादी तब चुप्पी साध लेते हैं या औपचारिक विरोध के बाद शांत हो जाते हैं; जब कृषि भूमि पर महापूंजी के सेज सजाये जाते हैं या जंगलों-पहाड़ों का पूरी तरह से नाश करके बड़ी-बड़ी कंपिनयोंद्वारा खनिज पदार्थों का दोहन किया जाता है।

2006 में आईएनओ द्वारा आवेदन किया गया था। मगर वर्षों बीत जाने के बाद भी मंजूरी नहीं मिली। विश्व के कई बड़े वैज्ञानिकों ने भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इसके लिए मंजूरी देने का अनुरोध किया। मगर अमेरिका की सेवा में व्यस्त मनमोहन सिंह ने इसे खास तवज्जो नहीं दिया। भारतीय ‍वैज्ञानिक तो लगभग निराश ही हो चले थे। बड़े पूंजीपतियों तथा व्यापारियों को लालफीता शाही की जकड़ से मुक्त करने के लिए मनमोहन सरकार उदार से उदारतर होती जा रही है, लेकिन हैरानी की बात यह है कि भारत के गर्व विज्ञान अनुसंधान को इस लालफीता शाही से मुक्त करना उसके वश में नहीं!

बहरहाल, वैज्ञानिकों की काफी कोशिश के बाद केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने सिंगारा क्षेत्र का दौरा किया। उन्होंने खुद को भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान का बड़ा समर्थक बताते हुए कहा कि अनुसंधानकर्ताओं को निरूत्साहित करने के लिए वे कोई काम नहीं करेंगे। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि फैसला लेने में उन्हें ढाई साल लग गए। और फैसला भी क्या लिया गया? सिंगारा पहाड़ पर न्यूट्रिनो डिटेक्टर लगाने की अनुमति नहीं दी गयी। मदुरई के करीब सुरीलिया पहाड़ पर उसे लगाने का सुझाव दिया गया। तमिलनाडु के ठेणी जिले के सुरूली जलप्रपात क्षेत्र में यह पहाड़ है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह क्षेत्र भी सुरक्षित है। यहां हजारों पेड़ काटने पड़ेंगे, जबकि सिंगारा में पेड़ काटने की जरूरत नहीं। पर्यावरण की चिंता में दुबले हो रहे पर्यावरवादियों ने इससे जुड़ी इस अहम तथ्य पर गौर ही नहीं किया।

जयराम रमेश को समझना जरूरी है कि बीटी बैंगन या शरद पवार जैसे ओछे कृषिमंत्री की विदेशी कंपिनयों की दलाली से जुड़ा यह मामला नहीं है। यह ब्रह्मांड के रहस्यों को जानने जैसे मानव जाति के सबसे अहम कर्तव्य से जुड़ा विषय है, जिसमें भारत ने भी झंडे गाड़ने आरंभ कर दिए हैं। चांद पर पानी को खोज में भारत की सफलता और चांद पर मानव उपनिवेश बनाने के भारतीय प्रयास जैसा ही (या उससे भी कहीं अधिक गंभीर) एक प्रयास है न्यूट्रिनो को जानना-पहचानना। भारत के विभिन्न राज्यों में महाविनाशकारी परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाने का विरोध करते नहीं दिखते जयराम रमेश। लेकिन भारतीय वैज्ञानिकों के देशभक्तिपूर्ण पहलकदमी पर रोड़े जरूर अटकाये जा रहे हैं! यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।

भारतीय वैज्ञानिकों का मानना है कि सुरूलिया पहाड़ की चट्टाने अनुसंधान के लिए उतनी अच्छी नहीं है, जितनी की सिंगारा की। संबंधित वैज्ञानिक सख्त नाराज हैं। फिर भी उनका कहना है कि लेकिन किया भी क्या जा सकता है। हमें वहां डिटेक्टर लगाने का काम शुरू करना ही पड़ेगा।

आखिर है क्या न्यूट्रिनो?

यह एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणु है। प्रकाश कण फोटोन भारहीन होते हैं। ऊन्हें छोड़ दिया जाए तो न्यूट्रिनो ब्रह्मांड के सभी अणुओं में सबसे हल्का होता है। परमाणु कण इलेक्ट्रॉन का भार एक मिलीग्राम के 1,000,000,000,000,000,000,000,000 (एक के पीछे 24 शून्य) भाग का एक भाग होता है। जबकि न्यूट्रिनो उस इलेक्ट्रॉन की तुलना में पांच लाख गुना हल्का होता है।


इसकी गति इतनी तेज होती है कि हर पल, पल भर में ही इसके अरबों-खरबों कण हमारे शरीर को पार करते हुए ब्रह्मांड की सैर को निकल जाते हैं। इनके लिए हमारे शरीर का मानो कोई अस्तित्व ही न हो। हर पल ऐसा खरबों (लगभग पांच खरब) न्यूट्रिनो कण हमारे शरीर के प्रतिवर्ग सेंटीमीटर हिस्से में प्रवेश कर पल भर में शरीर के दूसरी ओर से किसी तीर की तरह निकल जाया करते हैं। ये तीर इतने सूक्ष्म हैं और इनमें इतना अधिक वेग होता है कि हमें इनके आने-जाने का कुछ पता ही नहीं चलता।


इन तीरों से हम आहत भी नहीं होते। जिन साधारण तीरों के लगने से प्राणी घायल होता है या उसकी जान चली जाती है, वो तीर हाड़-मांस भेद कर ज्यादा दूर नहीं जा पाते। किसी भी गतिशील पदार्थ में ऊर्जा होती है। उन तीरों में भी होती है। भेदते समय तीर वो ऊर्जा प्राणी के शरीर में जमा कर देते हैं। इससे शरीर को चोट लगती है। और उस कारण उसकी अनुभूति होती है। लेकिन न्यूट्रिनो के तीर लगभग प्रकाश की गति से सरपट दौड़ लगाते हुए समान गति से हमारे शरीर को पार कर जाते हैं, इसी कारण हमारे शरीर में जरा भी ऊर्जा जमा नहीं कर पाते। हाड़-मांस में कहीं अटक जाने से ही तो ऊर्जा जमा होगी। मानव शरीर अणु-परमाणुओं का एक पहाड़ है। उसे भेद कर बाहर निकल जाने की क्षमता साधारण तीरों की नहीं होती। लेकिन न्यूट्रिनो नामक तीर कितने सूक्ष्म होते हैं, यह ऊपर बताया जा चुका है।


लेकिन बात ऐसी नहीं है कि हल्का होने के कारण ही न्यूट्रिनो मानव शरीर में नहीं अटक पाते। एक्स-रे या गामा-रे तो भारहीन प्रकाश कण फोटोन के स्रोत हैं। फिर भी प्राणियों के हाड़-मांस को नुकसान पहुंचाने में सक्षम हैं। क्योंकि उस प्रकार के फोटोन हाड़-मांस के अणुओं के साथ कोई-न-कोई प्रतिक्रिया करते हैं। इसलिए शरीर को नुकसान पहुंचता है।


आमलोग अपने चारों ओर विभिन्न प्रकार की घटनाएं देखा करते हैं। वैज्ञानिक इन सबके पीछे विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रिया अथवा बल का खेल देखते हैं। इस ब्रह्मांड में चार प्रकार के बल होते हैं। ब्रह्मांड में चाहे जितनी भी घटनाएं घट रही हों, वैज्ञानिकों के अनुसार वे चार में से किसी एक बल के कारण हो रही हैं। पेड़ के सेव को गुरुत्वाकर्षण शक्ति या बल जमीन पर ले आता है। चुबंकीय व विद्युतीय शक्ति की मिली-जुली क्रिया से जीव-जंतु भोजन से पुष्टि ग्रहण करते हैं। बहुत ही शक्तिशाली स्ट्रांग फोर्स या दृढ़ बल के प्रभाव से किसी भी पदार्थ के परमाणु के केंद्र में अनेकानेक प्रोटोन तथा न्यूट्रोन दृढ़ता से बंधे होते हैं।


न्यूट्रिनो इन तीन बलों में से किसी से भी चालित नहीं होता। प्रकृति में विद्यमान चौथे बल की क्रिया से ही यह चलायमान है। यह बल उतनी ताकतवर नहीं होने के कारण ही इसे मृदु बल या वीक फोर्स कहा गया। यह बल सिर्फ रेडियोए‍क्टिविटी या तेजस्क्रियता पैदा करता है। जब परमाणु केंद्र या न्यूक्लियस से इलेक्ट्रोन कण निकलते हैं। वैसे यह मामला बहुत स्वाभाविक नहीं हैँ, यह आसानी से घटित नहीं होता। मृदु बल की क्रिया विरल होने से ही किसी भी पदार्थ से उस तरह की रेडियोएक्टिविटी नहीं निकलती और न्यूट्रिनो इस तरह के मृदु बल के अलावा और किसी बल से प्रभावित नहीं होता, इसीलिए अरबों-खरबों की संख्या में हमारे शरीर को पार कर जाने के बावजूद उससे कोई क्षति नहीं होती।


जब आप यह रिपोर्ट पढ़ रहे होंगे, तब भी न्यूट्रिनो के कण आपके सिर से प्रवेश कर तालू की ओर से बाहर आकर सौ मंजिली इमारत के नीचे पृथ्वी को भेद कर अमेरिका होते हुए ब्रह्मांड की सीमा के सैर के लिए निकल जा रहे होंगे। यहां खासतौर पर ध्‍यान देने की बात यह भी है कि अब तक ब्रह्मांड के ओर-छोर का कोई पता नहीं चल पाया है। अंधविश्वासियों का मानान है कि ब्रह्मांड का कोई आदि-अंत नहीं। जबकि वैज्ञानिकों की राय में कभी-न-कभी इस ब्रह्मांड का आरंभ हुआ और कहीं-न-कहीं कोई अंत भी है। बिग बैंग का सिद्धांत इसी अओर इशारा करता है। अरबों साल पहले हमरा यह ब्रह्मांड ठीक ऐसा ही नहीं रहा होगा। यह इससे बहुत ही छोटा होगा। यह लगातार फैलता जा रहा है। अर्थात् असीम और अनंत के अंधविश्वास का खंडन हो जाता है। बिगबैन सिद्धांत के पहले से भी अनेक भौतिकवादियों ने इस आदि-अनंत के विश्वास को चुनौती दी थी। बौद्धिक, तार्किक तथा वैज्ञानिक सोच के कारण ही आज मनुष्य ब्रह्मांड की खोज करने में थोड़ा-बहुत सक्षम हो पाया है। वरना, किसी पेड़ के नीचे बैठकर ब्रह्मांड के अंतिम सत्य को पा जानेवालों की कोई कमी नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि न्यूट्रिनो के पदचिह्नों को पहचानने से ब्रह्मांड के गभीर रहस्यों से पर्दा हटाने के काम में मानव जाति एक कदम आगे बढ़ सकती है। यही वो कण है जो बेरोक-टोक पूरे ब्रह्मांड (ब्रह्मांड के ओर-छोर) का भ्रमण कर रहे हैं। इससे अनुसंधान के अगले चरणों में ब्रह्मांड के किसी रहस्य का पता चल सकता है। ऐसे में, भारतीय वैज्ञानिकों की इस पहलकदमी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, न कि इस या उस बहाने उनके रास्ते पर रोड़े अटकाने का काम। यह भी ध्यान रहे कि ज्यादातर वैज्ञानिक देशभक्त हैं, वरना ये लाखों डॉलर के लिए अमेरिकी, यूरोप, जापान की चाकरी कर सकते थे।

बहरहाल, न्यूट्रिनो की इस गतिविधि के कारण ही इसे घोस्ट पार्टिकल्स या भूतिहा कण कहा गया। यह नामकरण गलत है, क्योंकि भूत-प्रेत काल्पनिक हैं, जबकि न्यूट्रिनो वास्तविक। वैज्ञानिकों का मानना है कि बिग बैंग से ब्रह्मांड की उत्पत्ति होने के बाद ही न्यूट्रिनो पैदा हुए। इसके अलावा सूर्य या अन्य ताराकुंड में ये जन्म लेते हैं। उम्र समाप्त होने पर जब विस्फोट के साथ तारा अपना अस्तित्व खोता है, तब बड़ी मात्रा में न्यूट्रिनो फैल जाया करते हैं। परमाणु ऊर्जा संयंत्र से बिजली पैदा करने के समय भी न्यूट्रिनो बाहर आते हैं। वैज्ञानिकों के हिसाब से सभी स्रोतों से इतने अधिक न्यूट्रिनो निकलते हैं कि ब्रह्मांड में सर्वत्र एक घन मीटर आयतन में तैंतीस करोड़ न्यूट्रिनो कण पाये जाते हैं। हमरे चारों ओर इतने कण भरे पड़े हैं, उनमें से ऐकाध के पदचिह्न की ‍शिनाख्त करने के लिए दुनिया भर में वैज्ञानिक अनेक देशों में साधना रत हैं।


भारत सरकार की उदासीनता के कारण पिछड़ गए भारतीय वैज्ञानिक भी इस अभियान में एक बार फिर से जुटने के लिए बेकरार हैं। इसीलिए आईएनओ की नींव डाली गयी। लेकिन केंद्र सरकार की लापरवाही के कारण देर पर देर होती जा रही है। वैज्ञानिक जहां कहे वहीं यह प्रयोगशाला लगायी जानी चाहिए। पर्यावरण की चिंता करनेवाले मंत्रियों और अन्य लोगों को उन क्षेत्रों में अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए, जिनकी वजह से सबसे अधिक प्रदूषण पैदा हो रहा है। मसलन; परमाणु ऊर्जा संयंत्रों पर रोक लगाना, कार उद्योगों पर लगाम लगाना, सौर ऊर्जा सहित सुरक्षित ऊर्जा विकल्पों पर जोर देना, कृषि भूमि-वनभूमि पर निजी सरकारी उद्योगों पर पूरी रोक, नदी-नालों को गंदा करनेवाली फैक्ट्रियों पर कड़ी कार्रवाई, सिगरेट उद्योग पर पाबंदी, भवनों-शहरों के चारों ओर लाखों पेड़ लगाने और उनके संरक्षण को कड़ाई से पालन करवाने आदि के जरिए पर्यवरण की सुरक्षा की जा सकती है। इसके लिए ब्रह्मांड के रहस्यों की खोज के काम को बलि का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए। (समाप्त) (यह लेख कोई दो साल पहले लिखा गया था.. जल्द ही ताजा लेख भी पेश किया जाएगा.).