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शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

अरविन्द केजरीवाल: अन्ना आंदोलनकारी से “सुपारी” आंदोलनकारी!!

आन्दोलन की पूरी "तस्वीर" से विकलांग ही गायब!


१. ९ अक्तूबर: रात कोई आठ बजे. आज तक चैनल सलमान खुर्शीद और उनकी बीवी के जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा विकलांगों की लूट की खबर बड़ी सनसनीखेज अंदाज में शुरू होती है. खबर सच ही है. सारी बातों से ऐसा ही लगता है.

ये खबर कुछ इस तरह पेश की जाती है, मानो अरुण पुरी के
इंडिया टुडे के उक्त चैनल ने एकदम अपनी ही पहल पे ये खबर खोज निकाली हो. जबकि बाद की घटनाओं से ये बात बड़े हद तक साफ़ हो जाती कि ये खबर उसकी अपनी खोज नहीं है.

बहरहाल, इस खबर के प्रसारित होने के साथ ही पूरे देश में हंगामा मच जाता है, जो कि स्वाभाविक है. और, अन्य अनेक मामलों की तरह रॉबर्ट वढेरा मुद्दा भी थोड़ा दब जाता है. और, चारों ओर सलमान ही सलमान. ये मुद्दा इसीलिए भी आम लोगों में जोर पकड़ता है, क्योंकि यह विकलांगों से जुड़ा मामला है. ऊपर से. सलमान खुर्शीद की अनेक बदतमीजी और चाटुकारिता से भी लोग खासे चिढे हुए हैं. सो, यह मुद्दा और भी तेज़ी से फैलने लगता है.

२. गौरतलब है कि अब तक (९ अक्टूबर, रात आठ-नौ बजे) इस पूरे दृश्य  में  अरविन्द केजरीवाल कहीं भी नहीं. होना भी नहीं था. क्योंकि ये तो उक्त चैनल की अपनी खास
खोज खबर थी. लेकिन, दूसरे दिन ही अरविन्द इस मामले में कूद पड़ते हैं और सलमान से इस्तीफे की मांग करते हैं.

 
 वढेरा मुद्दे उठा रहे और दिल्ली चुनाव अभियान चला रहे अरविन्द केजरीवाल ने इसे हाथों-हाथ लपक लिया. तो क्या यह सिर्फ एक संयोग है या पहले से तैयार कोई योजना? उक्त चैनल जब अपना पोल खोल चला रहा था, तब उस कार्यक्रम में अरविन्द टीम के भी एक प्रतिनिधि मौजूद थे. वे अरविन्द के कहने पे ही वहां उपस्थित होंगे, इसमें कोई शक नहीं. यानि, इस पोल खोल की सूचना अरविन्द को पहले से ही थी. और, बहुत  संभव है कि पोल खोल के बाद क्या कुछ करना है, ये भी पहले से ही तय हो. अर्थात, इस दलाल मीडिया द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम व आंदोलन का नेतृत्व अरविन्द को करना है, ये पहले से ही तय था!! तो क्या ये अन्ना आंदोलनकारी अब 'सुपारी" आंदोलनकारी बनता जा रहा!!

यह  दलाल मीडिया मनमोहन सरकार के एक खास मंत्री के खिलाफ अभियान-आंदोलन चलाने को क्यों इतना उत्सुक? मनमोहनी आर्थिक सुधारों और अमेरिका का बड़ा  समर्थक है ये मीडिया समूह. खुदरा में एफडीआई मामले सहित विभिन्न मुद्दों पे इस मीडिया समूह की नीति अमेरिका पक्षी ही रही है. अन्ना आंदोलन में भी फूट की ख़बरें ये अक्सर ही बढ़ा-चढ़ा कर पेश करता रहा है.


बहरहाल, हालांकि ये खबर भी कोई एक साल पुरानी होने के बावजूद ९ अक्टूबर की रात उक्त चैनल सलमान की पोल खोल करता है. उसके दूसरे दिन अरविन्द सलमान से इस्तीफे की मांग करते हैं. और, उसी दिन तय होता है विकलांग संगठन द्वारा सोनिया के घर के सामने विरोध प्रदर्शन करना. विकलांगों के संगठन के इस प्रदर्शन में अरविन्द शामिल होने की घोषणा करते हैं. बाद में, विकलांग संगठन अपना फैसला बदल देता है और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सामने प्रदर्शन करना तय करता है...खैर जो भी हो, उसमें भी अरविन्द के शामिल होना तय रहता है... 

यहां देखने की बात ये है कि ये विकलांग संगठन का आंदोलन बड़ी आसानी से अरविन्द द्वारा हाइजैक कर लिया जाता है. एकाध विकलांग
नेता का नाम ही कुछ लोगों को याद  होगा, जबकि चारों ओर सिर्फ अरविन्द-अरविन्द ही छाये  हुए. मीडिया भी बड़े योजनाबद्ध तरीके से एकदम शुरू से ही विकलांग संगठन की सरासर उपेक्षा करता हुआ सिर्फ अरविन्द-अरविन्द करता है. ऐसा क्यों? जब ये आंदोलन विकलांगों का और उनके संगठन का था और है तो फिर एक बाहरी व्यक्ति को मसीहा बनाकर पेश करने का मतलब क्या हुआ??

अरविन्द की पुरानी आदत है, आंदोलनों-अभियानों को हाइजैक करने का. अन्ना आन्दोलन को भी उसने हाइजैक करने की भरपूर कोशिश की, मगर अन्ना ने उसे सफल होने नहीं दिया. वरना, अब अन्ना का फोटो उसके दिल में ही रहता और बाहर अन्ना के सारे आदर्श-सारे विचार रद्दी में पड़े होते. उसकी ये बुरी आदत और हीरो बनने की चाहत को मीडिया और मीडिया के असल सूत्रधार अच्छी तरह जानते हैं. इसीलिए इस मामले में भी उसे हीरो बनाया जा रहा. और वो बड़ी खुशी-खुशी
महान क्रांति कर रहा!! इस व्यक्ति को दलाल मीडिया क्यों खड़ा कर रहा, इसे पुराने अनुभवी तटस्थ लोग बखूबी समझ सकते हैं.

खैर! ९ अक्टूबर को उक्त चैनल सलमान मामले की पोल खोलता है. उसके दूसरे दिन सुबह ही अरविन्द इस मामले में कूद पड़ते हैं. और उसी दिन शाम में खबर आती है कि कैग ने भी उक्त चैनल की रिपोर्ट  पे अपनी मुहर लाग दी.. (ये और बात है कि बाद में पता चलता है कि यह कैग की अंतिम रिपोर्ट नहीं है. फिर भी इसमें शक नहीं कि सलमान परिवार ने घपला किया ही है.).

क्या ये एक बहुत बड़ा संयोग है? चैनल, अरविन्द और कैग!! यहां मेरा ये मतलब नहीं कि इस सुनियोजित पोल-खोल और आन्दोलन में कहीं से भी कैग का कोई हाथ है. चैनल को कैग की बन रही प्रारम्भिक रिपोर्ट की भनक लगी और उसने इस मुद्दे की थोड़ी ज़मीनी पड़ताल भी कर ली. और, अरविन्द को तो चाहिए ही
हीरो बनने के मुद्दे. और, शुरू हो गयी  एक ध्यान भटकाओ मुहिम!!

एफडीआई के अलावा मनमोहन सरकार के सारे बड़े-बड़े घोटालों और महंगाई घोटाले से लोगों का ध्यान हटाने के लिए लाया गया वढेरा कांड भी एक हद तक दब गया!! सलमान के इस्तीफे की मांग को इस तरह से पेश किया जा रहा, मानो इससे मनमोहन सरकार एकदम स्वच्छ बन जाएगी. उसके सारे पाप कट जाएंगे.

जबकि अभी मनमोहन सरकार के इस्तीफे की ही मांग लेकर देशव्यापी एक व्यापक अ-राजनीतिक किस्म का आंदोलन चलाया जाना चाहिए.####


 

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

माओवादियों जितनी "सफलता" भी नहीं मिलनी अरविन्द टीम को

अन्ना आंदोलन ही है एकमात्र विकल्प. इससे ही निकल पाएगा कोई स्वस्थ-सशक्त विकल्प. इस आंदोलन में फूट डालने वालों को "सफलता" नहीं मिल सकती!!  इस ऐतिहासिक आंदोलन को खत्म करने की  साज़िश में लगे  दलों  और नेताओं  का दरअसल कोई भविष्य नहीं!!

रविवार, 2 सितंबर 2012

ये भारत है, इसे इंडिया न समझें!

अरविन्द की एनजीओ टीम द्वारा करवाए गए एक सर्वेक्षण की समीक्षा का यह दूसरा भाग. 

१. अन्य अनेक दलों की ही तरह अन्ना आन्दोलन में भी अंग्रेजीदां और शहरी मध्य वर्ग का कब्जा है. इसीलिए इन्हें "भारत" दिखता नहीं. इसीलिए कुछ शहरों के चंद हज़ार लोगों के सर्वेक्षण को ये पूरे भारत का मान कर इस तरह पेश कर रहे मानो पूरा जनमत संग्रह ही करवा लिया हो.

२. इस देश में इस अंग्रेजीदां मध्य वर्ग ने अनेक अच्छे दलों-आंदोलनों को नष्ट करने में बड़ी भूमिका अदा की है.  कम्युनिस्ट आन्दोलन  को भी ऐसे ही लोगों ने बड़ा नुकसान पहुंचाया है.

३. बहरहाल, खुद यह सर्वेक्षण कहता है कि सिर्फ २८ शहरों के मात्र ८ हज़ार आठ सौ तैंतीस लोगों से बातचीत
करके कुछ नतीजे निकाले गए हैं.

४. इस सर्वेक्षण के नतीजों को इसीलिए सिरे से खारिज किया जा रहा, क्योंकि यह भारत देश का प्रतिनिधित्व नहीं करता. भारत का कोई ७० फीसदी आबादी गांवों-कस्बों में. जबकि यह सर्वेक्षण मात्र २८ शहरों के कुछ हज़ार लोगों का.

५. इसके नतीजे भी परस्पर  विरोधी और अधूरा. एक तरफ नतीजे में यह कहा जाता कि ७७ फीसदी जनता तथाकथित "अन्ना पार्टी" को वोट देने को तैयार. दूसरी ओर भाजपा को २७ फीसदी और कांग्रेस को १८ फीसदी वोट मिलने की भी भविष्यवाणी की जा रही. तो कुल मिला कर कितने फीसदी हुए??

६. उक्त हास्यास्पद आंकड़ों में बाकी दल सिरे से गायब हैं? क्यों? इन २८ शहरों में क्या और किसी दल को कोई वोट नहीं मिलना?? ये भी एक बड़ा मजाक किया है इस सर्वेक्षण में.

७. इस सर्वे में "अन्ना पार्टी" का नाम लिया जा रहा. जबकि अन्ना के सुझावों को ताक पे रख कर कोई अधकचरा दल बनाने की कोशिश में जुटी है अरविंद  की एनजीओ टीम. और, अन्ना ने अपने हाल के ब्लॉग में कोई दल बनाने का जिक्र तक नहीं किया है... वे बस ईमानदार-स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवारों को चुन कर संसद भेजने की बात कह रहे. ऐसे में "अन्ना पार्टी" का नाम लेना सरासर गलत. और, जब फिलहाल अन्ना की कोई पार्टी होगी ही नहीं, तो फिर इस सर्वेक्षण का कोई मतलब ही नहीं रहता. (वैसे भी यह सर्वेक्षण बिल्कुल फालतू).

८. अरविन्द की एनजीओ टीम ने बड़ी चतुराई के साथ यह फास्ट फ़ूड मार्का सर्वेक्षण इसलिए करवाया, ताकि अन्ना के दिये सुझावों का एक 'जवाब" मिल जाय. अन्ना का एक सुझाव ये भी कि मतदाताओं के कोई ८० फीसदी की सहमति लेकर ही कोई विकल्प बनाया जाय. उनका स्पष्ट कहना है कि गांवों-मुहल्लों में आन्दोलन को ले जाकर आम मतदाताओं से सहमति ली जाय. लेकिन, ये फास्ट फ़ूड कल्चर वाले आन्दोलनकारियों को बड़ी जल्दी लगी हुई है. इसीलिए यह बोगस सर्वेक्षण करवा कर अपने आलोचकों का मुँह बंद करवाने की सतही कोशिश या तिकडम.

९. इस भावी अधकचरी पार्टी ने अब तक महज जनलोकपाल आन्दोलन ही किया है. विभिन्न राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पे इसकी राय के बारे में कोई जानता ही नहीं. फिर कैसे लोगों ने बता दिया कि यह पार्टी नक्सलवाद, आतंकवाद आदि जैसे सभी मुद्दों से निपट सकती है?? ये भी लोगों की आंखों में धूल झोंकने का एक घटिया उपाय.

१०. और, भी कई बातें हैं, जिनपे सवाल खड़े किये जा सकते हैं. लेकिन. फिलहाल इतना ही. इस महा-घटिया सर्वेक्षण पे इतनी लंबी समीक्षा करना भी बेतुका लग रहा. यह उस लायक है ही नहीं. मगर, नहीं करने से अनेक आम आन्दोलनकारी भ्रमित हो सकते हैं, इसीलिए इतना करना जरुरी लगा..

(ऐसा लगता है कि इस सर्वेक्षण को अंतिम रूप दिया गया है अरविन्द एनजीओ के दफ्तर में. जहाँ मीडिया दलाल योगेन्द्र यादव भी मौजूद रहे होंगे. दलाल मीडिया की जबसे अरविन्द टीम में घुसपैठ हुई है, तबसे उसमें भटकाव साफ़ देखा जा रहा.)















शनिवार, 1 सितंबर 2012

दलाल मीडिया पे इतना यकीन क्यों? सर्वे समीक्षा भाग-एक


अभी हाल में ही अरविन्द की एनजीओ टीम द्वारा एबीपी न्यूज- नीलसन द्वारा कराये एक सर्वेक्षण की यहां समीक्षा की जा रही है. इस सर्वेक्षण को अरविन्द टीम इस तरह पेश कर रही मानो एकदम से जनमत सर्वेक्षण करवा लिया गया हो. ऐसे में इसकी समीक्षा जरुरी. यह समीक्षा का पहला भाग है. जिसमें सर्वेक्षण करने वाली मीडिया पे ही मुख्य रूप से चर्चा की गयी है. अगले भाग में सर्वेक्षण के सतहीपन पे होगी चर्चा.

१. इस तरह के कांग्रेसी टाइप सर्वे कराना ही अपने आपमें एक अस्वस्थ परम्परा है. ऐसे सर्वेक्षण वैसे पूंजीवादी-भ्रष्ट दल कराना पसंद करते, जिन्हें जनता को गुमराह कराना होता है.

२. ये सर्वेक्षण खुद अन्ना आन्दोलन से जुड़े ईमानदार-सच्चे कार्यकर्ताओं से कराया जाता, तो वो इससे कहीं अधिक विश्वसनीय माना जाता. भले ही कुछ लोग इसपे उंगलिया उठाते रहते.

३. या फिर, आम जनता के बीच से कुछ अच्छे-ईमानदार लोगों की बड़ी टीम बनाकर भी ये काम कराया जा सकता था, कराया जा सकता है. उसके नतीजों पे कम से कम उंगलियां उठतीं या उठेंगी.

४. ऐसा न करके इस "फास्ट फ़ूड" ज़माने के कुछ लोगों ने बड़ी हडबडी में एक-दो भ्रष्ट व्यावसायिक मीडिया-एजेंसी से ये काम करवाया. ये एक भूल है.

५. सबसे पहले इस एबीपी की असलियत को जान लिया जाय. एबीपी मूलतः एक जनलोकपाल विरोधी कंपनी है. इसके चैनलों में जन लोकपाल का पूरा विरोध हुआ करता था.

६.ये एबीपी उस स्टार न्यूज से जुडी कम्पनी है, जो कि दलाल मीडिया के नाम  से ही कुख्यात है. और, जहाँ ज्यादातर अन्ना आन्दोलन में फूट डालने के ही काम होते रहते. जिसे अब एबीपी ने "खरीद" लिया.

७. एबीपी उस आनंद बाज़ार पत्रिका समूह का ही एक अंग है, जो बुनियाद रूप से महाभ्रष्टों का ही मीडिया है. जहाँ जन लोकपाल के खिलाफ ज़हर ही उगला जाता है.

८. आनंद बाज़ार पत्रिका, एबीपी हर तरह के जन आंदोलनों का विरोधी. सिंगुर आन्दोलन का भी पूरा विरोध किया है. अब भी उस मामले में टाटा की दलाली में जुटा हुआ.

९. आनंद बाज़ार पत्रिका, एबीपी और "स्टार न्यूज" की यह दलाल मीडिया तिकड़ी भला कबसे अन्ना आन्दोलन की समर्थक हो गयी? इसपे गंभीरता से सोचा जाय.

१०. इस दलाल मीडिया का संपर्क अरविन्द टीम से कैसे हुआ, ये तो वे ही जानें. मगर, जिसने भी कराया, उसपे विश्वास करना घातक होगा.

११. २५ जुलाई के वक्त से ही यह दलाल मीडिया अन्ना आन्दोलन भक्त बना दिख रहा!! यह बड़े  ताज्जुब की बात!! जो मीडिया कोलकाता के अन्ना आन्दोलन की खबर एक लाइन भी नहीं देता, वो २४ घंटे लाइव देने लगता है जतर-मंतर से!! वाह!! ये तो बड़े जादू की बात है!!!!!

१२. इस लाइव कवरेज के लिए कितने पैसे खर्च हुए, ये तो अरविन्द की एनजीओ टीम ही जाने.

१३. और, इस एबीपी न्यूज-नीलसन के "फास्ट फ़ूड" सर्वे में कितने पैसे  लगे, ये भी वही एनजीओ टीम जाने. लेकिन, इस सर्वे में अन्ना आन्दोलन के चंदे का दुरूपयोग हुआ है, तो यह एक अपराध ही माना जाएगा.

 (दूसरा भाग आज ही जारी किया जाएगा).





मंगलवार, 14 अगस्त 2012

अरविन्द केजरीवाल को अन्ना आन्दोलनकारी असीम त्रिवेदी का जवाबी पत्र

अरविन्द केजरीवाल जी के नाम एक पत्र

नमस्कार अरविन्द जी, 

यह पत्र मैं हाल ही में समर्थकों के नाम लिखे गए आपके पत्र के जवाब के रूप में लिख रहा हूँ, कोशिश है कि इसके माध्यम से अपना और उन सभी लोगों का पक्ष आपके सामने रख सकूंगा जो राजनीतिक दल बनने के आपके निर्णय से असहमत हैं और आंदोलन को पहले की तरह ही जारी रखने के पक्षधर हैं. स्पष्ट करना चाहूँगा कि यहाँ जो कुछ भी लिख रहा हूँ वो सिर्फ मेरे नहीं बल्कि
उन तमाम लोगों के विचार हैं जिनसे अनशन के दस दिनों के दौरान जंतर मंतर पर हमारी बात हुई. कोशिश कर रहा हूँ कि उन सभी बातों को आपके सामने रखूँ जो राजनीतिक विकल्प देने के निर्णय के बाद हुईं बहस और चर्चाओं में हमारे सामने आयीं.

अरविन्द जी सबसे पहले हम ये कहना चाहेंगे कि जिस एसएमएस पोल को आप बहुमत का आधार मान रहे हैं उसमें ऐसे तमाम असंतुष्ट लोगों ने हिस्सा ही नहीं लिया था, जो इस निर्णय से अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रहे थे. वो लोग भी इस वोटिंग में जरूर हिस्सा लेते अगर मंच से घोषणा करने से पहले ये एसएमएस वोट लिया गया होता. और अगर ये मान भी लें कि बहुमत राजनीतिक विकल्प के साथ था तो भी सिर्फ इस अनियमित बहुमत के आधार पर यह निर्णय लेना गलत होगा क्योंकि यह निर्णय आंदोलन की मूल भावना के ही खिलाफ है. हम शुरू से कहते थे कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन एक आंदोलन है, एक अभियान है ये कोई एनजीओ या सामाजिक संस्था नहीं है. और यह बात आन्दोलन के प्रिएम्बल के सामान थी. इसलिए एक आकस्मिक और अनियमित बहुमत के आधार पर कोई छोटा मोटा एमेंडमेंट तो किया जा सकता है परन्तु मूल भावना से ही यू टर्न लेने का ये कदम कतई लोकतांत्रिक नहीं माना जा सकता.

जैसा कि आपने कहा, किसी भी निर्णय से सौ फीसदी लोग सहमत नहीं हो सकते. जब हमने जंतर मंतर पर इस बारे में अपना विरोध दर्ज किया था तो भी हमें ऐसा ही उत्तर मिला था कि कुछ लोग जायेंगे तो कुछ नए लोग आयेंगे. हम इस बात को कतई ठीक नहीं समझते कि जो लोग पिछले डेढ़ साल से अपनी जॉब, अपनी पढाई और अपने परिवार की सुख सुविधाओं को ताक पर रखकर इस आंदोलन के लिए काम कर रहे हैं वो चले जाएँ और चुनाव लड़कर मलाई खाने की इच्छा रखने वाले नए लोग आ जाएँ. क्योंकि तमाम लोग ऐसे भी हैं जिनके लिए वापसी का रास्ता भी उतना आसान नहीं रह गया है. कुछ अपनी पढाई से हाथ धो चुके हैं तो कुछ अपनी जॉब से. किसी के ऊपर कुछ मुक़दमे दर्ज हैं तो किसी के ऊपर परिवारी जनों का विरोध और स्थानीय भ्रस्टाचारियों की दुश्मनी. और जहां तक रही नए लोगों के आने की बात तो चुनाव लड़ने और सत्ता का स्वाद चखने की मंशा रखने वाले ऐसे नए लोग तो हर राजनीतिक पार्टी के साथ हैं फिर एक और विकल्प की ज़रूरत ही क्या है.

टीम के तमाम लोग ये तर्क देते नज़र आ रहे थे कि रामदेव जी अपनी पार्टी बनाने की घोषणा करने वाले हैं. ऐसे में अगर हमने अपनी पार्टी नहीं बनाई तो हमारे सारे समर्थक रामदेव का वोट बैंक बन जायेंगे क्योंकि साधारण लोग अन्ना और बाबा को एक ही समझते हैं. इस पूरे तर्क पर ही हमारी घोर आपत्तियाँ हैं. पहली तो ये कि अगर हमारे समर्थक किसी का वोटबैंक बन भी जायें तो इससे हमें क्या फर्क पड़ता है. हम कोई राजनीतिक पार्टी तो हैं नहीं जो इससे हमारे वोटबैंक के समीकरण गड्बडा जायेंगे. और अगर बात ये है कि हमें रामदेव से कोई विशेष आपत्ति है तो हम उनके साथ बार बार मंच साझा करने को क्यों तैयार हो जाते हैं. और जैसा कि अब लग रहा है, संभव है कि रामदेव अभी राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा न करें. तो अब हमारे प्रीकॉशनरी स्टेप के क्या अंजाम होंगे. और क्या होगा जब रामदेव जी हमारी आधी छोड़ी हुई लड़ाई को लेकर आगे बढ़ जायेंगे और सरकार से 'कैसा भी' लोकपाल पास करवाने की जिद पर अड जायेंगे. तो क्या इस तरह से हमारा उद्देश्य पूरा हो पायेगा और देश को एक मुकम्मल क़ानून मिल पायेगा.

एक और बड़ी गलती जो हम लगातार करते जा रहे हैं, वो है भीड़ की भक्ति. गांधी के साथ सिर्फ ७८ लोग थे दांडी मार्च में. पर कम भीड़ से उनकी लड़ाई छोटी नहीं हो गयी. जब हम भीड़ को आदर्श बनायेंगे तो ज़ाहिर है कि हमें भीड़ लाने के लिए तमाम तरह के उचित अनुचित कदम उठाने होंगे. अभी जंतर मंतर पर भी हमने देखा कि अपने साथ लंबी भीड़ ला रहे लोगों को विशेष महत्व और सम्मान दिया गया बिना इस बात पर ध्यान दिए कि उनका वास्तविक उद्देश्य क्या है. अब राजनीतिक दल बनने के प्रयास में हमने अनजाने ही भीड़ के महत्व को बढ़ा दिया है. क्रान्ति और आंदोलनों में देश की सारी जनता भाग नहीं लेती. आंदोलन महज मुठ्ठी भर लोगों के समर्पण और कुर्बानी से कामयाब होते हैं. न कि किसी स्थान पर इकठ्ठा भीड़ की तादाद से.

आज हमने भी बाकी दलों की तरह ही अपने नायकों के अंधभक्त पैदा कर दिए हैं. अंधभक्त चाहे भगवान के हों या शैतान के, बराबर खतरनाक होते हैं. शैतान के इसलिए क्योंकि उसकी शैतानी को कई गुना कर देते हैं और भगवान के इसलिए क्योंकि वो भगवान को भगवान रहने नहीं देते. हमने जंतर मंतर पर जब राजनीतिक विकल्प बनाने के निर्णय का विरोध किया तो हमारा उद्देश्य था अन्ना जी तक अपना अनुरोध पहुचाना कि वो अपने इस निर्णय को वापस लेकर आंदोलन के रास्ते पर ही चलते रहें. लेकिन वहाँ मौजूद वालंटियर्स के एक विशेष ग्रुप ने इसे किसी और ही निगाह से देखा और हमसे हाथापाई और धक्का मुक्की करने में भी संकोच नहीं किया. हमारे बोर्ड जिन पर हम पिछली पच्चीस तारीख से एंटी करप्शन कार्टून्स बना रहे थे, तोड़ दिए गए. हमारे पोस्टर्स फाड़ दिए गए. हमारा साथ दे रहे लोगों से बदसलूकी की गयी. कहा गया कि हम एनएसयूआई के लोग हैं, हमने सरकार से पैसे खा लिए हैं. अरविन्द जी, हमारा प्रश्न है कि इन अंधभक्तों को साथ लेकर हम किस दिशा में जा रहे हैं. ऐसा ही तो होता है जब कोई राहुल गांधी की सभा में उनके खिलाफ आवाज़ उठाता है. जब कोई मुलायम सिंह के किसी फैसले का विरोध करता है. तो फिर उनमें और हम में क्या फर्क रहा. हमारे विरोधियों और दुश्मनों के लिए इससे ज्यादा खुशी की बात क्या होगी कि हम भी उनके जैसे हो जायें.

हम शुरू से गांधी के तरीकों पर भरोसा करते आये हैं. आप भी गांधी की हिंद स्वराज से खासे प्रभावित लगते हैं. फिर भला हम हिंद स्वराज में कई बार दुहराई गयी गांधी की इस सीख का उल्लंघन कैसे कर सकते हैं कि हमें कुर्सी पर बैठे चेहरों को नहीं व्यवस्था को बदलना होगा. आसान शब्दों में कहें तो खिलाड़ियों को नहीं खेल के तरीकों को बदलना होगा. आज देश में कहीं भी चुनाव भ्रस्टाचार के मुद्दे पर नहीं लड़े जाते. जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा जैसे सैकड़ों मुद्दे असली मुद्दों पर भारी हैं. भारी लालू प्रसाद फूडर स्कैम के खुलासे के बाद भी चुनाव जीतते जा रहे हैं तो इसका मतलब है कि लोगों के लिए भ्रस्टाचार उतना महत्वपूर्ण मुद्दा है ही नहीं. हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम लोगों को जागरूक करें जिससे चुनाव भ्रस्टाचार और विकास के मुद्दों पर लड़े जायें न कि जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के मुद्दों पर. क्योंकि अगर हम लोगों का रुझान बदले बिना ही चुनाव में उतर जायेंगे तो जीतने के लिए हमें भी इन्ही समीकरणों का सहारा लेना पडेगा. देखना पडेगा कि कहाँ पर दलित वोट ज्यादा है, कहाँ पर सवर्ण वोट. कहाँ पर हिन्दू वोट निर्णायक है, कहाँ पर मुस्लिम वोट. और ऐसे में हमारे मुद्दे, हमारी प्राथमिकताएं भी बदल जायेंगी और सच कहें तो अब हमारा पार्टी बनाना बेमायने हो जाएगा. क्योंकि अब हम भी उसी सड़ी गली परम्परा को आगे बढ़ा रहे होंगे. नए विकल्प की बात तब तक बेईमानी है जब तक हम चुनाव के तरीके न बदल पाएं. हमने इलेक्टोरल रिफोर्म्स की बात कही थी. उसकी ज़रूरत थी अभी. हम राईट टू रिजेक्ट लाने की कोशिश करते. और फिर देखते कि कोई दागी संसद भवन में न पहुच पाए. हम देश भर में विभिन्न पार्टियों से लड़ रहे दागी प्रत्याशियों के खिलाफ अभियान चलाते. और उनकी जीत की राह में सब मिलकर रोडे अटकाते.

चुनावी राजनीति में उतरकर हम अपनी राह को लंबा बना रहे हैं और अपने कद को छोटा. ये एक ऐसा कदम है जिससे हम खुद अपने हाथों ही अपनी सीमाओं को संकुचित कर लेंगे. आज जो लोग भ्रस्टाचार के विरोध में हैं, वो हमारे साथ हैं. कल मामला इतना सीधा, इतना ब्लैक एंड व्हाईट नहीं रह जाएगा. कल वोट लेने के लिए हमें लोगों को अपनी आर्थिक नीतियों से भी सहमत करना होगा. विदेश नीति पर भी अपना स्टैंड क्लिअर करना होगा. सामाजिक न्याय, समानता, शिक्षा और आरक्षण जैसे विषयों पर भी आम सहमति बनानी होगी. और शायद जो इनमे से किसी एक पर भी हमसे सहमत नहीं हो पायेगा उसके पास पर्याप्त कारण होंगे हमें वोट न करने के.

और फिर हमारे पास अभी कोई ढांचा नहीं है, कोई तैयारी नहीं हैं, क्षेत्रीय मुद्दोंपर पकड़ नहीं है, स्थानीय स्तर पर कोई संगठन नहीं है. ऐसे में हम बहुमत ले आयेंगे ये कहना तो दिवास्वप्न को मान्यता देने जैसा ही होगा. तो फिर जब हम दस बीस सीटें जीत भी लेंगे. तो हम अपनी शक्ति को कई गुना कम कर लेंगे. क्या तब भी हम ये कह पायेंगे कि हमारे पीछे एक सौ पच्चीस करोड भारतीय हैं. क्या तब भी हम सरकार पर इतना ही दबाव बना पायेंगे. क्या तब भी मीडिया हमें इतनी तवज्जो देगा. मुझे नहीं लगता कि मीडिया किसी छोटे राजनीतिक दल को वो वेटेज देता है जो हमें मिलती आयी है. एक जन आंदोलन की ताकत एक राजनीतिक दल की अपेक्षा कहीं ज्यादा होती हैं. जन आंदोलन व्यापक होता है, जन आंदोलन पवित्र होता है.

आन्दोलनों से राजनीतिक दल बनने का और उनके नायकों के राजनेता बनने का सिलसिला बहुत पुराना है. और जनता को इस राह पर हमेशा धोखा ही मिला है. कांग्रेस भी एक आंदोलन के लिए ही बनी थी. आज के दौर के कई बड़े नेता जेपी आंदोलन से निकले हैं. पर क्या ये सब देश की राजनीति को एक बेहतर विकल्प दे पाए. हमें याद रखना होगा कि ये सारे राजनीतिक दल जब बने थे तो इसी वादे के साथ कि वो देश को एक बेहतर विकल्प देंगे और ऐसा भी नहीं है कि सबकी मंशा ही खराब थी पर इस खराब सिस्टम में उतरकर गंदा हो जाना ही उनकी नियति थी, उनकी मजबूरी थी.

इस बारे में एक बात और बहुत महत्वपूर्ण है कि हमारे आंदोलन में मंच की ऊंचाई बढ़ती ही जा रही है. ऊपर बैठे हमारे नायक नीचे जमीन पर बैठे समर्थकों से मिलना भी पसंद नहीं करते. जंतर मंतर पर कितने लोग नीचे उतरकर आये और आंदोलन के आम समर्थकों से मिले. इस अनशन के दौरान हमारे कुछ नायक जहां एक भी रात जंतर मंतर पर नहीं रुके तो कुछ लोग एसी कारों में खिड़कियों पर भीतर से अखबार लगाकर सोते रहे और मंच से लोगों की देशभक्ति को जागाने वाले नारे लगाते रहे. क्या इन नायकों ने उन लोगों के साथ खड़े होने की कोशिश की जो रोज सुबह से शाम तक वही खटते थे और रात को वहीं जमीन पर सो जाते थे. वालंटियर्स की लंबी कतारों से घिरी कारों में बैठकर सीधे मंच तक जाने वाले इन नायकों से हम कौन सी उम्मीद रखें जो जनता के बीच से अपने क़दमों से गुजरना भी पसंद नहीं करते. हमारे सांसदों से भी हम नहीं मिल पाते और ये जन नायक भी हमारी पहुच के बाहर हैं. और वो भी तब जब ये कोई चुनाव नहीं जीते हैं, गाड़ियों पर लाल बत्ती नहीं लगी हैं. फिर भला चुनाव जीतने पर और सत्ता में आ जाने पर ये कैसे हमारी पहुच में होंगे ये समझना मुश्किल है. ऐसे में ये राजनीतिक दल सत्ता में आने पर भी कोई बेहतर विकल्प दे पाएगा इसमें हमें गंभीर संदेह हैं.

और जहां तक आंदोलन से निराश होने की बात है. हमें मानना होगा कि यह आंदोलन शुरू हुए अभी डेढ़ साल भी नहीं हुए और हमने पूरे देश में चेतना की लहर देखी. लोगों में उम्मीद की किरण देखी. इतने कम समय में इतनी सफलता मिलना हमारे देश का सौभाग्य ही था. ज़रूरत थी धैर्य रखकर इसीतरह चलते रहने की. आज़ादी की लड़ाई को भी मुकम्मल अंजाम तक पहुचने में सौ साल लगे थे. ऐसे में डेढ़ साल में निराश होना और विकल्प तलाशना बेहद जल्दबाजी भरा कदम था. क्या बेहतर नहीं होता अगर हम राजनीतिक दल बनाने की बजाय अपने आंदोलन को गाँव और कस्बों तक ले जाते. हर जगह छोटी छोटी स्थानीय टीमें बनाते. जो वहाँ हो रहे भ्रस्टाचार के मामलों के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करती. आरटीआई का इस्तेमाल कर सिस्टम पर दबाव बनाती और ज़रूरत पड़ने पर लोगों को संगठित कर अनशन, सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा का सहारा लेकर स्थानीय स्तर पर क्रान्ति की बुनियाद रख पाती. और ज़रूरत पड़ने पर एक केन्द्रीय टीम उनकी सहायता के लिए पहुच जाती. अरविन्द जी, आप शुरू से कहते थे कि जब कोई तुमसे कहे कि मेरा राशन कार्ड नहीं बन रहा है तो उससे कहो कि लोकपाल पास करवाओ, राशन कार्ड अपने आप बन जाएगा. क्या आपको नही लगता कि अब हमें ढंग बदलने की ज़रूरत थी. अब हम पहले राशन कार्ड बनवाते, लोगों की समस्याओं को दूर करते और फिर उनसे उम्मीद करते कि वो लोकपाल और दुसरे मुद्दों पर हमारे साथ कंधा मिलाकर खड़े हों. ऐसे में हम अपने संघर्ष का लाभ सीधे आम जनता तक पहुचा पाते. अब हम किस हक से चुनावी अखाड़े में कदम रखने जा रहे हैं. हमें सोचना होगा कि हमारी उपलब्धियां ही क्या हैं. जन्लोकपाल, जिसे हम पास नहीं करा पाए, राईट टू रीकॉल एंड रिजेक्ट जिसकी हमने बात करना भी बंद कर दिया. प्रश्न है कि क्या हमारे अचीवमेंट्स लोगों को भरोसा दिलाने के लिए काफी हैं. आप ही तो कहते थे कि हम मालिक हैं और हम सेवक क्यों बनें. आप ही तो कहते थे कि क्या अच्छे इलाज़ के लिए हमें खुद डॉक्टर बनना पडेगा, अच्छी शिक्षा के लिए क्या हमें खुद टीचर बनना होगा, अच्छे प्रशासन के लिए हमें खुद अधिकारी बनना होगा. तो फिर हम भला क्या क्या बनेंगे ? नेता, अधिकारी, डॉक्टर, टीचर, लॉयर और पता नहीं क्या क्या ? फिर तो देश की सफाई बड़ी मुश्किल हो जायेगी और शायद नामुमकिन भी. इसलिए बेहतर होगा कि हम ये सब कुछ बनने की बजाय सिविल सोसाइटी बने रहें और इन सबको मजबूर करें अपना काम बेहतर ढंग से करने के लिए.

अरविन्द जी, हम सभी आप पर विश्वास करते हैं और समूचा देश आपके प्रति कृतज्ञता की भावना से देखता है कि आपने लोगों को संगठित कर इस बड़े आंदोलन को मूर्त रूप देने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है. ऐसे में आपसे हम लोगों की आशा होना बेहद लाजिमी है कि आप आंदोलन को गलत राह पर नहीं जाने देंगे. इस चेतना की नदी पर बाँध नहीं बनने देंगे. क्योंकि अगर ये आंदोलन यहाँ खत्म हुआ तो लोग आने वाले समय में कभी सिविक सोसाइटी के आन्दोलनों पर भरोसा नहीं कर पायेंगे. हमने अपनी उम्र में पहली बार देखा कि सिविल सोसाइटी का एक आंदोलन कैसे शहरों के ड्राइंग रूम तक, मॉर्निंग वाकर्स असोसिएशन तक, पान की गुमटी तक और गाँव की चौपाल तक पहुच गया. भैंस के चट्टों और नाई की दुकानों पर एक क़ानून की बारीकियों के बारे में बहस होने लगी. अगर जाने अनजाने हमने लोगों का भरोसा तोड़ा तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा. फिर शायद ये मुमकिन नहीं होगा कि लोग एक आंदोलन पर इतना भरोसा करेंगे कि उस पर अपना सब कुछ कुर्बान करने को तैयार हो जायें.

इसलिए अरविन्द जी, आप से हमारा बस इतना ही अनुरोध है कि राजनीतिक दल बनाने के अपने निर्णय को वापस ले लें और अगर राजनीतिक दल बनाने का निर्णय बदला नहीं भी जा सकता हो, तो भी ये आंदोलन स्वतंत्र रूप से चलता रहे, और इसका किसी भी राजनीतिक दल से कोई सम्बन्ध न रहे. जिन लोगों को राजनीति में हिस्सा लेना है, चुनाव लड़ना है, वो पोलिटिकल पार्टी का हिस्सा बन जायें और जो लोग इस निर्णय से सहमत नहीं हैं वो पहले की तरह ही इस आंदोलन को लेकर आगे बढते रहें. आप ये सुनिश्चित करें कि इसका नेतृत्व पोलिटिकल पार्टी के नेतृत्व से अलग हो. जिससे ये आंदोलन और राजनीतिक दल एक ही सिक्के के दो पहलू न बन जाएँ. हमें तय करना होगा कि आन्दोलन और पार्टी की स्थिति संघ और भाजपा जैसी न हो जाए कि लोग हमारे आंदोलन को निरपेक्ष दृष्टि से देखना ही बंद कर दें. ये आंदोलन न तो किसी पार्टी के साथ हो और ना किसी के खिलाफ. 'पाप से घृणा करो, पापी से नहीं' के सिद्धांत पर चलकर इस आंदोलन के सिपाही राजनीति और समाज की सफाई में लगे रहें. और ज़रूरत पड़ने पर आंदोलन से निकले राजनीतिक दल के खिलाफ आवाज़ उठाने से भी गुरेज़ न करें.

अंत में आपसे बस इतना कहना चाहूँगा कि हमारे विरोध और आपत्तियों का मकसद इस आंदोलन की बेहतरी है ना कि महज़ बौद्धिक विलास. और हमारी इन आपत्तियों पर उस तरह रिएक्ट न किया जाये जैसे सरकार अपनी आलोचनाओं पर करती है. हमें विरोध और असहमति के कारणों को समझना होगा और ये भी तय करना होगा कि किसी निर्णय के खिलाफ विरोध के स्वर मुखर करने वालों को हाथापाई और बदसलूकी का शिकार न होना पड़े.

इस आंदोलन का एक छोटा सा सिपाही,
असीम त्रिवेदी.

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

अरविन्द जी, आपके मन में खोट है....!!

   मैं चुनाव नहीं लडूंगा और न ही सत्ता में शामिल होऊंगा. मैं बाहर रह कर इन लोगों पर नज़र रखूंगा. अगर ये कोई गलती करेंगे तो कान मरोड़ कर इन्हें ठीक करूंगा---- अन्ना हजारे...

ये बात अन्ना ने जब कही थी, उसके बाद के उनके दो ब्लॉग पढ़ लें... खासकर पहला ब्लॉग..उसमें भी साफ़ कहा गया है कि पहले गांवों-मुहल्लों में जाकर जनलोकपाल आन्दोलन करो..और वहीं अपने सामने लोगों की राय लो, स्वस्थ विकल्प बनाने के बारे में.  
(अन्ना के वो दोनों ब्लॉग अब एकदम नीचे की दोनों लिंक में नहीं है, जो ५-६ अगस्त के थे. वो ब्लॉग खोजके पढ़ लिये जाएँ.) {नौ नंबर विन्दु में अन्ना द्वारा अपने साथियों की जान बचाने के बारे में लिखा है. देखें. उसको ही ये अरविन्द टीम वाले सामने रखते हैं.अन्ना की बाकी सब बातों की अनदेखी करते.} [इस ब्लॉग में बस इतना ही सम्पादित किया गया. इतनी ही बात जोड़ी गयी. बाकी सब ५-६ अगस्त की ही बातें जस की तस हैं.]

प्रिय अरविन्द केजरीवाल,
सप्रेम वंदे.
आपके पत्र के पहले ही पैराग्राफ में अनेक अर्द्ध सत्य व भ्रामक बातें हैं.

http://mayankgandhi05.blogspot.in/2012/08/arvinds-letter-to-volunteers-after-fast.html

 १. आपने लिखा कि ..
हालांकि आम जनता ने आन्दोलन के लक्ष्य को हासिल करने के हमारी राजनैतिक विकल्प देने की पहल का स्वागत किया है. .. किस आम जनता की बात कर रहे आप? वो जो जंतर-मंतर में थी?? अगर, उसकी बातों को मान भी लिया जाय, तो वो जनता क्या पूरे देश का प्रतिनिधित्व करती है? नहीं न ??

२. फिर आप एक बहुत ही सतही बात लिखते हैं, जिससे पता चलता है कि आप इस देश को जानते ही नहीं... आप लिखते हैं...
विभिन्न चैनलों के सर्वे के मुताबिक़ और आई ए सी के अपने सर्वे के मुताबिक़ ९० प्रतिशत जनता ने इस निर्णय का स्वागत किया है.... आप चैनलों के सर्वेक्षण को देश की आम जनता की राय बता कर खुद को एकदम सतही व्यक्ति बना रहे हो. इस तरह के सर्वेक्षण से क्या इस देश में कोई स्वस्थ राजनीतिक विकल्प बनेगा? क्या बकवास बात है!! मुझे तो आपकी बुद्धि-विवेक पे अब तरस आने लगा है.... और, आई ए सी ने कब ये सर्वे कराया? क्या आप उस एस एम एस सर्वे का तो हवाला नहीं दे रहे, जिसमें हाँ या नहीं में जवाब माँगा गया है? अगर आप इसी सर्वे की बात कर रहे, तो फिर तो आपकी और आपके साथी सलाहकारों की बुद्धि की बलिहारी. इससे भी यही पता चलता कि आपलोग कितने सतही हो और इस देश को असल में शून्य जानते हो.!!

३. फिर आप लिखते हैं
.... हालांकि ऐसे साथियों की संख्या कम है. .. आपने ये कैसे जान लिया कि ऐसे साथियों की संख्या कम है? क्या टीवी वाले सर्वेक्षण से? या अपने आई ए सी के उस बेकार एस एम एस से?? आपके चरों ओर क्या चमचों की ही फ़ौज जुटी रहती है? जो आप उनसे बाहर की दुनिया देख नहीं पा रहे?? या फिर आपने जान-बूझ कर शुतुरमुर्ग जैसी सोच बना ली है? बाहर आके देखें तो आपको पता चलेगा कि आप जिन त्यागी और चमचागिरी से दूर साथियों की बात कर रहे हैं, उनका ९० फीसदी आपके शौकिया विकल्प के पक्ष में नहीं... वो तो अन्ना के रास्ते चलना चाहता. (कृपया अन्ना का इस सिलसिले का पहला ब्लॉग पढ़ें...... ). उसमें स्वस्थ विकल्प की बात तो है, मगर वो किस प्रक्रिया में बने, ये भी स्पष्ट लिखा हुआ है. उस ब्लॉग को पढ़ने के बाद भी आपका यह आधा-अधूरा और बड़े हद तक मिथ्यापूर्ण पत्र आने का अर्थ ये हुआ कि आपकी नीयत में जरुर कोई न कोई खोट है. वो खोट क्या है, आप खुद बता दें... तो अच्छा..वरना, मुझे पता है कि वो क्या खोट है. उसपे बाद में..

४. पहले पैरा में ही आपने एक जगह लिखा है...
किसी भी निर्णय से १०० प्रतिशत लोग सहमत नहीं हो सकते. एकदम सच बात. और, आपके इस निर्णय से सचमुच सौ फीसदी लोग सहमत नहीं....सिर्फ नब्बे फीसदी लोग ही आपसे असहमत हैं... (इस तरह की चालाकी भरी बातें अच्छे आंदोलनकारियों को शोभा नहीं देतीं).

५. आप बार-बार आमरण अनशन तोड़ने पे इतनी सफाई क्यों दे रहे, वो भी अपनी
ईमानदारी के हवाले से? हम जैसे अन्ना आन्दोलनकारी कभी चाहते ही नहीं कि हमारा कोई साथी इस तरह शहीद हो जाय. या आम शब्दों में कहा जाय तो.. मर जाय. आपलोगों ने आमरण अनशन तोड़ कर बहुत अच्छा काम किया. जो लोग इसपे सवाल उठा रहे, वे असल में हमारे साथी नहीं, बल्कि दूसरे एक-दो संगठनों के घुसपैठिये हैं. उनकी क्या परवाह करना? (इस बारे में मैंने अपने ब्लॉग में लिखा भी है..देखा होगा.  नहीं तो देखें........)

६. इसके बाद आपने लिखा है...
इस दौरान अन्ना जी हमारी सेहत पे नज़र बनाए हुए थे................. ..... ..... देश भर से अन्ना जी को सन्देश भी आ रहे थे.... :) यहां बड़ा लोचा है. यानि गडबड है. आमरण अनशन के मामले में आपलोगों ने कोई ड्रामा नहीं किया. इसमें अनेक सच्चे अन्ना आंदोलनकारियों को कोई संदेह नहीं. मगर, इस पैराग्राफ में आपलोगों की ड्रामे बाजी साफ़ दिख रही... आप अन्ना जी की बात कितनी मानते हो, ये हम देख रहे. लेकिन, यहां बड़ी चतुराई से अन्ना को अपनी ढाल जरुर बना रहे. सरकार एसआईटी और जनलोकपाल की बात नहीं मानेगी, ये बात तो अन्ना और सभी समझदार आंदोलनकारियों को २५ जुलाई आन्दोलन की घोषणा के पहले से ही पता था. इसमें नयी क्या बात थी. अन्ना भी पहले से ही ये सब जानते रहे. फिर आप उनका नाम लेकर अपना बचाव क्यों कर रहे? ये है आपकी कमी या कोई खोट.
 
इसी पैरा में आपने लिखा कि
तीसरे-चौथे दिन से ही जनता के बीच से आवाजें आने लगी कि अन्ना जी को देश को राजनीतिक विकल्प देना चाहिए. लोग इस बारे में नारे लगा रहे थे. पर्चे बाँट रहे थे, बैनर लेकर खड़े थे. देश भर से अन्ना जी के पास इस तरह के सन्देश भी आ रहे थे. .. वाह. क्या सीन बनाया है अपने!! शाब्बाश!! ये है असली ड्रामा. समझे. सब आपकी वेतनभोगी कार्यकर्ताओं के कारनामे थे. और, अब भी आपके अनेक वेतनभोगी कार्यकर्ता इस सिलसिले में बड़े सक्रिय हैं. और मेरे जैसों के पास आकर कुछ गाली-गलौज भी कर रहे, ठीक संघियों की स्टाईल में.

   अपने ब्लॉग में एक जगह मैंने ये भी लिखा है...
५. अरविन्द व अन्य साथी क्यों आमरण अनशन करने की जिद पे अड़े रहे? इस सवाल का जवाब वे खुद यहां दें तो बेहतर. (वैसे यह प्रक्रिया और इसके पीछे की मानसिकता मैं अच्छी तरह समझ रहा, जिसपे फिर कभी.).
ये जो कोष्ठक में मैंने
मानसिकता की बात लिखी है, उसी मानसिकता की वजह से आपने आमरण अनशन का नारा दिया और उसकी समाप्ति का भी पहले से ही इंतजाम कर लिया... इस मानसिकता के बारे में आप खुद बता दें..वरना, मैं ही बताऊंगा फिर कभी.

http://kiranshankarpatnaik.blogspot.in/2012/08/blog-post.html

७. इसके अगले पैराग्राफ में भी आप
तिल को ताड़ बना कर पेश कर रहे. ये सही है कि पिछले अगस्त में जैसा समर्थन अन्ना के आमरण अनशन को मिला था, वैसा इस बार आपको नहीं मिला. भले ही अन्ना ने आपका पूरा साथ दिया, मगर लोग जान रहे थे कि ये अन्ना को अपदस्थ करने की आपलोगों की एक चाल ही है...बहरहाल, फिर भी मुंबई-बंगलोर, चेन्नई आदि अनेक स्थानों में ये आन्दोलन बड़े हद तक सफल रहा, जिसका आप उल्लेख करना जरुरी नहीं समझ रहे. क्यों? ये आप अच्छी तरह जानते....(इसके अलावा, अन्ना के महाराष्ट्र दौरे में उमडती आम जनता का भी आपने जिक्र नहीं किया.)
 
आप फिर से झूठ बोल रहे कि लोगों का भरोसा टूटता देख और लोगों के सन्देश आता देख आपने आमरण अनशन तोड़ने और विकल्प देने की घोषणा की. लोगों का भरोसा अन्ना आन्दोलन से नहीं टूटा है, न टूटेगा, बशर्ते कि आपलोग जी-जान लगा कर उसे तोड़ न दें... हाँ, आप पर से जरुर टूटा है..खासकर आपकी ये सब नौटंकी देखने के बाद... और, देश भर से आ रहे
सन्देश भी असल में आपके द्वारा प्रायोजित ही थे.

८. इसके अगले पैर ग्राफ में आप लिखते हैं...
अनशन के नौवें दिन देश के २३ महानुभावों की चिट्ठी प्राप्त हुई. जिसमें उन्होंने अनशन समाप्त कर देश को राजनैतिक विकल्प देने की अपील की. बहुत बढ़िया. एक तरफ आम जनता सामने खड़े होके मांग कर रही, दूसरी ओर सन्देश पे सन्देश आ रहे. और ऊपर से ये २३ महानुभाव... एकदम सही स्किप्ट है. वेरी गुड. आपलोग अब मुम्बैया फिल्मों में जाके कोई सस्पेंस स्क्रिप्ट लिखे. इस जन आन्दोलन का पीछा छोड़ दें. (ये सब मैं भारी मन से लिख रहा. शैली की जगह इसके सार पे ध्यान दें).
  इसी पैरा में आपने जिस एस एम एस और टीवी सर्वे का जिक्र किया है, उस बारे मैं ऊपर लिख चुका. दलाल चैनलों पे आपको इतना भरोसा?? समझ से परे.

९. इसके बाद के पैरा में फिर आपने अन्ना को अपनी ढाल बनायी है. अन्ना को उस वक्त जो उपाय आपने
मुहैया कराया वे उसी उपाय के जरिए आपलोगों की जान बचाई. आखिर बाप हैं, अपने बच्चों को मरता कैसे देख सकते.

अब मैं आपको जवाब देते-देते बोर हो गया...लेकिन, आपकी बकवास जारी है, सो देना ही पड़ेगा.

१०. कोई असल सर्वे हुआ नहीं है. बार-बार ९० फीसदी जनता के समर्थन का दावा करना कुछ वैसा ही है, जैसे  कि भ्रष्ट कांग्रेसी सरकार अपने को
चुनी हुई सरकार बताती है. उसका चुनाव तो फिर भी आम मतदाताओं के एक छोटे से हिस्से ने किया ही है, जबकि   आपके पास कुछ वफादार कार्यकर्ताओं के अलावा ऐसा कुछ नहीं है... सो, ये ९० फीसदी का एकदम झूठा राग कहीं ऐसी जगह सुनाएं, जिन्हें देश का कुछ पता नहीं.... आप जन भावनाओं की कद्र... का भी इस्तेमाल इस तरह कर रहे, जैसे कि कांग्रेसी या अन्य कोई भ्रष्ट सरकार किया करती है.. गाहे-बगाहे.

फिलहाल मैं पूरा बोर हो गया हूं, आपकी बकवास का जवाब देते हुए.... आपके और आपके कुछ साथियों के मन में सचमुच खोट नहीं है तो अन्ना के बताए उस सही रास्ते से
स्वस्थ राजनीतिक विकल्प बनाने के काम करें... आखिर आपने अपने इस पत्र में खुद को अन्ना का बड़ा भक्त भी दिखाया है... सो, उनके पहले ब्लॉग में लिखे अनुसार गांवों में जाएँ..मुहल्लों में जाएँ..वहां जन लोकपाल, पूर्ण चुनाव सुधार आदि आन्दोलन चलाते हुए आमने-सामने बैठ कर विकल्प पे राय लें. लिखित में भी.सबके नाम-पते भी हों. उनके अपने दस्तखत भी हों.... http://news.indiaagainstcorruption.org/annahazaresays/?p=194

(अन्ना के इस ब्लॉग के शीर्षक पे न जाया जाय. असल बात उन्होंने कुछ और ही लिखी है. जिसपे ये तथाकथित कुछ "अन्ना भक्त" ध्यान देना जरुरी नहीं समझते. क्योंकि अन्ना ज़मीन से और पूरे देश से जुड़ने की बात कर रहे और ये जनाब "हवा-हवाई" ही रहना चाहते.).

http://news.indiaagainstcorruption.org/annahazaresays/?p=200

(अन्ना के इस दूसरे ब्लॉग में भी ऐसी ही ज़मीनी बात लिखी गयी है. मगर, ये उड़न-छू क्रांतिकारी एकदम से रॉकेट में सवार होके सीधे संसद में लैंड करना चाहते. ऐसे लोग क्या ख़ाक बनाएंगे स्वस्थ राजनीतिक विकल्प?).

फिलहाल इतना ही... मुझे माफ करना...



आपका एक साथी-
किरण (शंकर) पटनायक.




सोमवार, 6 अगस्त 2012

अन्ना आन्दोलन की आत्म-आलोचना

 अन्ना टीम ये बताए कि "अंतिम कुर्बानी" का नारा कब दिया जाता है?
क्या  इसे  रूमानी क्रांतिकारिता कही जाय या  फिर बचकानापन या शुद्ध लफ्फाजी ?
इस तरह की नारेबाजी से बचा जाय. बाबा रामदेव भी कुछ इस तरह का बचकानापन करते दिख रहे.

इस पोस्ट में पिछले तीन दिनों में मेरे दिये सुझाव व अन्ना आन्दोलन की आत्म-आलोचना  को एक साथ पेश की जा रही है. ये सुझाव व आलोचना अन्ना आन्दोलन को मजबूती प्रदान करने के ही उद्देश्य से है. इसपे सभी साथी गंभीरता से ध्यान दें.

इस पोस्ट में कुछ नयी बातें भी दी जा रही हैं, जिन्हें रेखांकित किया जा रहा.

४ अगस्त
राजनीतिक विकल्प के लिए अन्ना आन्दोलन ने "हाँ" या "ना" में जो एसएमएस जवाब मगवाये हैं, वो सही नहीं. आम जनता से उनके पूरे विचार मंगवाए जाएँ.

२. और, जो व्यक्ति "विकल्प" पे अपने पूरे विचार रखे, उसका नाम-पता-फोन-मेल आदि भी हो. इससे उस व्यक्ति की सच्चाई-ईमानदारी का पता चल पाएगा.

३..आम जनता के भेजे सभी विचारों को पढ़ा जाय. यह काम ईमानदार-त्यागी बुद्धिजीवियों की बड़ी समिति करे. इसपे मंथन हो. छोटे-बड़े सेमीनार हों.

४..विभिन्न राज्यों के हज़ारों गांवों-मुहल्लों में इसपे कईकई बार "चर्चा समूह" आयोजित हो. जनता केबीच गहन चर्चा.फिर वहां जनसंघर्ष समिति बने.

५..जो लोग अपने मौजूदा दलों-नेताओं के बचाव में अनर्गल बकवास कर रहे, वैसे लोगों की पहचान उनके नाम-पते-फोन आदि से कर ली जाय.वे पूर्वाग्रही.

६.. "राजनीतिक विकल्प" के लिए हडबडी करने की कोई ज़रूरत नहीं. उक्त प्रक्रिया से हमलोग जनलोकपाल आन्दोलन को और व्यापक बना सकते हैं.

७.सबको पता, हमारा उद्देश्य मजबूत जनलोकपाल.और, देश की संसद में सच्चे देशभक्तों को भेजना.इसके लिए एकएक गांव-मुहल्लों पे ध्यान केंद्रित हो.

 ८. जनलोकपाल के साथ अब पूर्ण चुनाव सुधार की मांग भी बेहद जरुरी. इसके बिना आगे का रास्ता नहीं खुलने वाला. इसपे भ राय मंगवाएं.

सेना के दो महान सैनिक एक साथ. अब दोनों ही देश के अंदर के जनता के दुश्मनों से लड़ने को कटिबद्ध: 

५ अगस्त


आमरण अनशन एक ब्रह्मास्त्र. इसे एकदम अंत में चलाया जाता. और, उस “अंत” को ठीक से समझ लेना जरुरी. वरना,  ब्रह्मास्त्र भी  फुस्स साबित हो सकता.



२. आमरण अनशन रूपी इस ब्रह्मास्त्र के चलाये जाने की टाइमिंग पे ही अन्ना आन्दोलन, खासकर अरविन्द टीम ने बड़ी भारी भूल की  है.



३. इस भूल की ओर मैं “बाद में” इशारा नहीं कर रहा, बल्कि कुछ साथियों को याद होगा कि मैंने कोई महीना भर पहले ही इस बारे कहा था.



४. तब मैंने अरविन्द आदि से कहा था कि आमरण अनशन करना जरुरी नही, आन्दोलन के हजारों तरीके. मगर, उन सबने बात नहीं सुनी. क्यों?



५. अरविन्द व अन्य साथी क्यों आमरण अनशन करने की जिद पे अड़े रहे? इस सवाल का जवाब वे खुद यहां दें तो बेहतर. (वैसे यह प्रक्रिया और इसके पीछे की मानसिकता मैं अच्छी तरह समझ रहा, जिसपे फिर कभी.).



६. अरविन्द और साथियों को समझना चाहिए कि यह देश का मामला. बच्चों की “जिद” के लिए यहां कोई जगह नहीं.



७/१. अरविन्द बार-बार ये कहते रहे कि हम देश के लिए कुर्बानी देने को तैयार हैं, और डायबिटीज वाले क्यों नहीं दे सकते देश के लिए  कुर्बानी!



७/२. ये अच्छे बोल, मगर, इसकी टाइमिंग गलत. इसे बचकानापन भी कह सकते. ऐसे बचकानेपन से देश बचाओ आन्दोलन नहीं चलता.



८/१ . अरविन्द व साथी यहां जवाब जरुर दें. मैं उन सबसे बहुत-बहुत प्यार करता. वे सच्चे देशभक्त हैं. भूल सबसे होती है. उसे  स्वीकारना भी जरूरी.



८/२. अरविन्द व साथी आत्मआलोचना करें तो बहुत अच्छा हो. मेरा विश्लेषण आगे भी जारी रहेगा. इसलिए नहीं कि मैं उन सबको  आन्दोलन से हटाना चाहता.



८/३...या इस आन्दोलन को नुकसान पहुंचाना चाहता. बल्कि चाहता कि अरविन्द व साथी आत्म मंथन करके इस आन्दोलन को और मजबूत करें. विश्वास जीतें.



अरविन्द व साथियों से मेरा विनम्र अनुरोध कि मुझ जैसे अदने से भी अदने आम लोगों की सलाह पे ध्यान दिया जाय.मुझे पता कि  आपलोग ध्यान देते हो... मगर "२५ जुलाई" आमरण अनशन पे मुझ सहित कई साथियों की बात न मानना एक बड़ी भूल. अब इसके लिए आत्मआलोचना जरुरी. विश्वास जितना भी जरुरी.


६ अगस्त



हमलोग खुद ही महीनों से एक स्वस्थ विकल्प के लिए बराबर बोलते रहे हैं. सो, ऐसे किसी कोई विकल्प का स्वागत करना ही है. इसमें कोई शंका नहीं.



२. मैंने खुद ही कोई एक साल पहले अरविन्द तथा साथियों से कहा था कि अच्छे लोगों को राजनीति में आना ही चाहिए. उस वक्त ये लोग अति-शुद्धतावादी बने हुए थे.



३. ईमानदारी से कोई स्वस्थ राष्ट्रीय राजनीतिक विकल्प बनता है तो हर सच्चे भारतीय को उसके साथ आना ही चाहिए. क्योंकि  फिलहाल अधिकांश दल भ्रष्ट व निहित स्वार्थी.


http://
kiranshankarpatnaik.blogspot.in/2011/04/blog-post_12.html?spref=tw

 ५. ३ अगस्त २०१२ को जिस तरीके से ‘स्वस्थ विकल्प” की घोषणा हुई, मुझे उसपे आपत्ति है. आमरण अनशन तोड़ने के लिए कोई  दूसरा उपाय सोचना चाहिए था.


६. कल ही लिखा है कि “आमरण अनशन” का ये फैसला एक बड़ी भूल थी. इसके बजाय आन्दोलन के दूसरे हथियारों का प्रयोग करना चाहिए था.


७. अनशन तोड़ने के फैसले से मैं बेहद खुश. हमारे अनमोल रत्नों की जान भ्रष्ट-बेरहम सरकार -दलों के कारण नहीं जानी चाहिए.अनशन तोडना अच्छा फैसला.


८. मगर, अनशन तोड़ने केलिए जिस ‘स्वस्थ विकल्प” की आड़ ली गयी, वो गलत. इतने बड़े फैसले के

लिए यह "मज़बूरी का मौका" पूरीतरह से गलत.टाइमिंग गलत.


९. इससे इस स्वस्थ विकल्प की घोषणा एक मजाक बन कर रह गयी. ये और बात है कि हम जैसे लाखों लोग झक मार कर भी इसके साथ.


१०. स्वस्थ राजनीतिक विकल्प की घोषणा से पहले इस मुद्दे पे पूरे देश का दौरा करना जरुरी था. अन्ना का भी दौरा इस घोषणा से पहले  होना चाहिए था.


११. जनलोकपाल मुद्दे पे एक साल से अन्ना का देशव्यापी दौरा बार-बार टल रहा. क्यों? इसका जवाब अन्ना के बजाय अन्ना टीम दे तो बेहतर.



१२. अन्ना का दौरा जनलोकपाल के लिए होना था. उसी दौरे में स्वस्थ विकल्प की पृष्ठभूमि भी बनायी जा सकती थी. जो कि नहीं हुआ. क्यों?


१३. एक बात मैं बड़ी विनम्रता से कहना चाहता कि कांग्रेस-भाजपा-सपा आदि दलों की तरह हमें भी आम जनता को “भेंड़-बकरी” नहीं समझ लेना चाहिए.


१४.मर्जी से आम जनता को यहां-वहां हांकने की प्रवृत्ति हममे विकसित हो रही है. इसीका परिणाम है ३ अगस्त की वो घोषणा. इसपे लगाम लगाना जरुरी.



१५. अभी हमें सिर्फ जनलोकपाल व चुनाव सुधार आन्दोलन को ही व्यापक बनाने के रास्ते पे चलना जरुरी है. उसके लिए हर राज्य-जिले-प्रखंड का दौरा हो.



१६. इन्हीं आंदोलनात्मक दौरों में आम जनता से आमने-सामने मौखिक-लिखित राय मांगी जाय “स्वस्थ विकल्प” के बारे में. और, संघर्ष समिति बनायी जाय.

१७. जल्दबाजी में कोई लिया कोई "अंतिम फैसला" अन्नाआन्दोलन के लिए बहुत ही नुकसानदेह साबित होगा. और, जनता का यह आन्दोलन वर्षों पीछे चला जाएगा.


१८. अभी के इस अंत में, सभी अन्ना आन्दोलनकारी अन्ना जैसी सादगी में जीवन बिताएं. खासकर अग्रणी कार्यकर्ता. इससे सबको प्रेरणा मिलेगी. 



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अन्ना आन्दोलन में मध्य वर्गीय रुझान हावी है. मध्य वर्ग में जिस तरह की रूमानी क्रांतिकारिता देखी जाती है, वो अन्ना आन्दोलन  में बड़े हद तक है. रूमानी क्रांतिकारिता से भी उग्रवादिता का बचकानापन पैदा होता है. उसी बचकानेपन  का नतीजा था "२५ जुलाई का आमरण अनशन". हालांकि उस दिन से आन्दोलन शुरू करने में कोई हर्ज नहीं था, मगर आन्दोलन के लिए हथियार दूसरे होने चाहिए थे. ये बात मैंने पहले ही कह दी है.


मध्य वर्ग में एक सुविधावादी रुझान  भी होता है, वो भी अन्ना आन्दोलन में देखा जा रहा. आराम की जिंदगी जीते हुए, सारी उपलब्ध  सुविधाओं का उपभोग करते हुए "भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन" चला रहे कुछ लोग. इस कारण भी गांवों-मजदुर इलाकों, बस्तियों में  इसका फैलाव नहीं हो पा रहा. इसपे भी हमें खास ध्यान देने की सख्त ज़रूरत है.


जब तक किसानों-मजदूरों को इसमें पूरी तरह शामिल नहीं किया जाता, तब तक यह आन्दोलन सच्चे मायने में राष्ट्रीय रूप धारण नहीं कर सकता. मजदुर तबके की एक खासियत ये है कि वे जल्द ही किसी आन्दोलन का त्याग नहीं करते. जबकि मध्य वर्ग आम तौर पे  ऐसा करता रहता. क्योंकि उसके पास अपनी निजी जिंदगी और शौकिया सामाजिक जिंदगी चलाने के अनेक सुविधावादी विकल्प  खुले रहते  
हैं. जो कि मजदूरों के पास नहीं. इसपे गंभीरता से ध्यान देना जरुरी...







बुधवार, 6 जून 2012

राष्ट्रपति पाटिल से जुड़ा एक और विवाद: "जीवनदान" का क्या रहस्य?

                                                      विशेष संवाददाता
पांच साल बीत जाने के बाद भी राष्ट्रपति पाटिल का नाम विवादों से अलग नहीं हो पा रहा. अनेक विवादों के बाद अब राष्ट्रपति द्वारा फांसी की सजा पाये अपराधियों को "क्षमादान" पे विवाद खड़ा हो गया है. ये क्षमादान मानवता के आधार पे दिये गए, या इसके पीछे भी कोई भ्रष्टाचार है? यह सवाल उठ रहा है.
सूचना के अधिकार के तहत पिछले साल जुलाई में एक आवेदन किया गया था, जिसमें राष्ट्रपति के पास हत्या और बलात्कार के लिए मृत्युदंड प्राप्त अपराधियों को जीवनदान करने या उनकी सजा को कम करने के लिए पहुंचे आवेदनों के बारे में जानकारी मांगी गयी थी. राष्ट्रपति के सचिव सुभाष चंद्र अग्रवाल ने जो जवाब दिया उसके अनुसार 2005 से लेकर जुलाई 2011 तक 17 आवेदन विचारार्थ पहुंचे थे. जिसमें से 10 अपराधियों की फांसी की सजा को माफ करते हुए राष्ट्रपति ने आजीवन कारावास में बदल दिया. लेकिन गृह मंत्री पी. चिदंबरम के बयान के मुताबिक मार्च 2012 तक राष्ट्रपति के पास ऐसे आवेदनपत्रों की संख्या 33 हो गयी। 33 मामलों में 50 से अधिक अपराधियों को जीवनदान करने का मामला राष्ट्रपति के दफ्तर में विचारार्थ पड़ा हुआ है.

अन्य राष्ट्रपतियों की तुलना में प्रतिभा पाटिल के कार्यकाल में सबसे अधिक बला‍त्कारियों और हत्यारों को दी गयी चरम सजा को कम किया गया. जुलाई 2011 तक सर्वोच्च अदालत द्वारा 10 अपराधियों की फांसी की सजा को राष्ट्रपति ने कम कर उनकी सजा को आजीवन कारावास में बदला. और 2007 से लेकर 2011 तक  कार्यकाल में कुल 18 हत्या और बलात्कार के खतरनाक अपराधियों को फांसी के फंदे से राष्ट्रपति ने राहत दी. दिलचस्प है कि प्रतिभा पाटिल ने महज 16 महीने में 18 अपराधियों को "जीवनदान" दिया. जाहिर है कि अब जब राष्ट्रपति से जुड़े तरह-तरह विवादों की चर्चा हो रही है तब मृत्युदंड प्राप्त अपराधियों को जीवनदान दिए जाने के औचित्य को लेकर भी बहस शुरू हो गयी है. अब तो यह बहस गरमाने भी लगी है.

संविधान ने राष्ट्रपति को जो अधिकार दिए हैं, उनमें से एक है संविधान की धारा 72 के अनुसार मृत्युदंड प्राप्त अपराधियों को जीवनदान देने का अधिकार. लेकिन प्रतिभा पाटिल के कार्यकाल में देखने में आया कि राष्ट्रपति भवन से ऐसे अपराधियों को क्षमादान किया गया
, जिनके भयंकरतम अपराध अदालत में प्रमाणित हो चुके हैं. ऐसे नृशंस हत्यारों की फांसी की सजा से छुटकारा दिया गया, जिन्होंने समाज के बहुत सारे लोगों से उनके जीने का अधिकार छीन लिया. जीवनदान प्राप्त अपराधियों की इस फेहरिस्त में छोटे व नन्हें बच्चों और किशोर उम्र के बच्चे सहित बुजुर्ग और महिलाओं के हत्यारे शामिल हैं. इन फांसी के सजायाफ्ताओं ने न सिर्फ बड़ी नृशंसता के साथ लोगों की हत्याएं की हैं; बल्कि कहा जाए तो छोटे बच्चों तक को रोंगटे खड़े कर देनेवाले तरीके से तड़पा-तड़पा कर उनकी जान ली. लेकिन राष्ट्रपति ने उन्हें जीवनदान दे दिया. 
 
फांसी की सजा को लेकर पूरी दुनिया में बहस जारी है. दुनिया के बहुत सारे देशों में फांसी या मृत्युदंड की सजा खत्म कर दी गयी है. जाहिर है भारत में भी इस पर बहस शुरू हो चुकी है.  कोलकाता में धनंजय चटर्जी को स्कूली छात्रा हेतल पारेख की बलात्कार के बाद हत्या के मामले में निचली अदालत से मिली फांसी की सजा को जब सर्वोच्च अदालत ने विरल से विरलतम अपराध करार देकर निचली अदालत की सजा को बहाल रखा तो धनंजय ने जीवनदान के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से गुहार लगायी. उस दौरान धनंजय के मामले की दुनिया भर में चर्चा हुई. इस मामले में भार‍तीय समाज पहले से ही फांसी की सजा को लेकर बंट गया था. समाज के एक धड़े का कहना था कि सभ्य समाज में फांसी जैसी नृशंस सजा नहीं दी जानी चाहिए। जवाब में दूसरे धड़े का मानना है कि अगर अपराध विरल से विरलतम या हद दर्जे की नृशंसपूर्ण तरीके से की गयी है तो फांसी की सजा जायज है. वहीं अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन से लेकर विभिन्न देशों से फांसी की सजा को आजीवन कारावास में तब्दील कर देने की अपील की गयी थी. लेकिन भारतीय जनमानस में धनंजय के खिलाफ जनमत को देखते हुए एपीजे अब्दुल कलाम ने धनंजय की गुहार को खारिज कर दिया. 
 अब जब राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के कार्यकाल में जिन नृशंस हत्यारों की फांसी की सजा को माफ कर आजीवन कारावास में बदल दिया गया तो इस पर जनता में रोष देखने को मिल रहा है. 

यहां राष्ट्रपति के इस विशेषाधिकार की प्रक्रिया पर चर्चा कर लेना प्रासंगिक होगा। राष्ट्रपति को संविधान की धारा 72 के तहत मृ‍त्युदंड प्राप्त अपराधी जीवनदान या क्षमादान का अधिकार है। मृत्युदंड के अपराधी राष्ट्रपति के पास जीवनदान के लिए गुहार लगाते हैं. परिस्थिति पर विचार कर अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करके राष्ट्रपति कभी-कभार सजा को कम कर देते हैं.
किसी भी फांसी की सजा या मृत्युदंड जैसी सजा को कम करने से पहले नियमानुसार राष्ट्रपति का दफ्तर संबंधित मामले  पर गृह मंत्रालय से सलाह मांगता है. लेकिन क्षमादान या जीवनदान या सजा को कम करने से संबंधित राष्ट्रपति द्वारा लिये गए फैसले पर हस्ताक्षर राष्ट्रपति का ही होता है. प्रतिभा पाटिल के अब तक के कार्यकाल में ऐसे अपराधियों को जीवनदान मिला, जिनका अपराध इतना जघन्य है कि मानवता भी शर्मसार हो जाए.

यहां ऐसे कुछ अपराधियों के तथ्य दिए जा रहे हैं, नवंबर 2010 से लेकर फरवरी 2011 तक 16 महीनों में 18 जघन्य अपराधियों को राष्ट्रपति से जीवनदान मिला. जीवनदान मिले अपराधियों में से एक वह अपराधी भी शामिल है जिस पर 38 लोगों की हत्या का अपराध सबित हो चुका है. इन 38 हत्याओं में 12 शिशुओं से लेकर किशोर वय के बच्चे शामिल हैं.
  राष्ट्रपति द्वारा जबरन दिये गए "जीवनदानों" में से कुछ का नीचे जिक्र किया जा रहा है.
मलाई राम और संतोष यादव पर 16 साल की लड़की के साथ बलात्कार करने के बाद हत्या का अपराध साबित हो चुका है. मध्यप्रदेश के मलाई राम रीवा के सेंट्रल जेल में सुरक्षाकर्मी के तौर पर काम करता था. इसी जेल में संतोष यादव किसी अन्य मामले में सजायाफ्ता था. दोनों की ही नजर रीवा जेल के सहयोगी जेलर की 16 साल की बेटी पर थी. एक दिन मौका पाकर दोनों लड़की पर टूट पड़े. जेल के एक सुनसान कोने में ले जाकर उसके साथ दोनों ने बारी-बारी से बलात्कार किया. बलात्कार के बाद दोनों ने लड़की की हत्या की. शिनाख्त न हो सके, इसके लिए दोनों मिलकर लड़की की लाश को नृशंसतापूर्वक तोड़-मरोड़ और विकृत करके सेप्टिक टैंक में ठिकाने लगा दिया. इन दोनों का यह सारा अपराध निचली कई अदालतों में साबित हो गया था. मृत्युदंड की सजा हुई. अंत में मामला 1999 में सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने भी इन दोनों के अपराध को विरल से विरलतम अपराध करार देते हुए फांसी की सजा को बहाल रखते हुए फांसी पे चढ़ाने का फैसला सुनाया. मगर, ऐसे जघन्य अपराधी मलाई राम और संतोष यादव को राष्ट्रपति पाटिल से जीवनदान मिल गया.

यही हाल पंजाब के पियारा सिंह और उसके तीन बेटों सबरजीत सिंह, गुरदेव सिंह और सतनाम सिंह का है. जिनके खिलाफ 1991 में अमृतसर में शादी के समारोह में शामिल होने जा रहे एक सात साल के बच्चे समेत 17 लोगों की हत्या का अपराध प्रमाणित हो गया है. पहले फरवरी 2001 में और इसके बाद जनवरी 2006 को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने इन्हें मृत्युदंड सुनाया. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 2003 में मृत्युदंड की सजा को बहाल रखा. अपराधियों ने जीवनदान के लिए राष्ट्रपति से गुहार लगायी गयी. राष्ट्रपति ने मामले को गृह मंत्रालय के पास विचार के भेजा. गृह मंत्रालय ने जीवनदान की अपील को खारिज करने की सिफारिश की. मगर, राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने गृह मंत्रालय से मामले पर पुनर्विचार के लिए कहा. बाद में मंत्रालय ने अपनी सिफारिश में संशोधन करते हुए जीवनदान की सिफारिश कर दी. ऐसा भला कैसे हो गया? धनंजय की याचिका पर गृह मंत्रालय ने जीवनदान का लगातार विरोध किया था! इस बार क्या पाटिल को "खुश" करने के लिए ऐसा किया गया??
तमिलनाड़ू का मोहन और गोपी, हरियाणा के धमेंद्रपाल सिंह और नरेंद्र यादव के मामले भी कुछ ऐसे ही हैं.
   
 राष्ट्रपति पाटिल द्वारा दिये "जीवनदान" में ऐसे कई मामले ऐसे हैं जिसमें गृह मंत्रालय ने राष्ट्रपति के दफ्तर से जीवनदान की उनकी अपील को खारिज करने की सलाह दी थी.  मौजूदा क्षमादान के ज्यादातर मामलों में मंत्रालय ने अपनी सिफारिश पर साफ शब्दों में ‍लिखा था कि मामले से संबंधित तमाम तथ्यों पर विचार करते हुए मंत्रालय इस नतीजे पर पहुंचा है कि अपराध जघन्य और अपने आप में विरलतम हैं. लेकिन बताया जाता है कि राष्ट्रपति के दफ्तर ने इन मामलों को पुनर्विचार के लिए मंत्रालय को वापस भेजा. और, पता नहीं किस कारण से मंत्रालय ने "जीवनदान" की पाटिल की जिद मान ली !!
इन "जीवनदानों" पे फिर से विचार होना जरुरी. साथ ही, ये भी देखा जाना जरुरी कि आखिर वो क्या वजह हैं, जिस कारण पाटिल ने "जीवनदान" की जिद की. क्या इनमें भी घोटाला है?? (समाप्त)

सोमवार, 4 जून 2012

भ्रष्ट संघियों से सावधान रहें अन्ना-बाबा

इन संघियों ने जेपी आन्दोलन के सारतत्व को न सिर्फ नष्ट किया, बल्कि उसके खिलाफ भी लगातार काम करते गए. इसीलिए इनके शासन में इतना भ्रष्टाचार.
२. जेपी आन्दोलन में इन्हें किसी मजबूरी में नहीं लाये थे जयप्रकाश. बल्कि "कांग्रेस-विरोधी" हवा को बल देने के लिए लाया गया था.
३..इसे संघियों ने अपनी शक्ति मान ली. और, महंगाई तथा भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ जेपी आन्दोलन पे कब्जा करना शुरू कर दिया.
४. जनतापार्टी बनने के बाद तो संघियों ने समझ लिया कि इनका ही शासन आ गया.सो, मनमानी चलाने लगे.सबसे पहले बिहार-यूपी आदि में जमके दंगे करवाए.
५. खुद सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ही इन दंगों के लिए ज़मीन तैयार करते रहे.

उस समय हमारे छात्र-युवा संगठन ने कई बार लोगों को चेताया कि देवरस जहाँ भी जा रहे, वहां उनके जाने के बाद सांप्रदायिक दंगे भडक रहे. इसपे तीन बार हजारों की संख्या में लीफलेट भी बांटे गए. मगर, किसी दल या नेता ने इसपे ध्यान देना जरुरी नहीं समझा. बाद में, जब दंगे भडके, तब एक नेता ने हमारे छात्र-युवा संगठन की बड़ी तारीफ़ की. बस, वे भी उतना ही करके शांत बैठ गए. मगर, देवरस का दंगा अभियान जारी रहा.
दंगे के दौरान हमारे संगठन ने कई जगह जान पे खेल कर दंगा रोकने का काम किया. इसे उन मुहल्लों के पुराने लोग अब भी याद रखे हुए हैं.

यह शायद उस वक्त की बात है, जब अन्ना सेना में अपनी जान की बाजी लगा कर देश बचाने की सेवा में लगे हुए था और बाबा अपने इस वतर्मान के प्रारम्भ काल में थे.

उस समय तक छात्र संघर्ष समिति का नाम बदलकर छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी रख दिया गया था. उस वाहिनी पे भी संघियों ने कब्जे की बड़ी कोशिश की, मगर, वो अंततः जेपीवादी समाजवादियों के पास ही रही. जिसने बाद में बोध गया में ज़मींदारी के खिलाफ बडी लड़ाई लड़ी और एक हद तक जीत भी हासिल की. उस वक्त ये संघी ज़मींदार के साथ ही खड़े पाए गए.
बहरहाल, दंगों के अलावा उस वक्त भी संघियों के शासन में आर्थिक भ्रष्टाचार हुए. बिहार में कर्पूरी ठाकुर जैसे ईमानदार नेता को हटाकर संघियों ने अपनी कठपुतली सरकार बनायी और मजे से अपनी साम्प्रदायिकता तथा भ्रष्टाचार चलाते रहे.
६. कैलाशपति मिश्र हों या अन्य संघी मंत्री-नेता कई पे भ्रष्टाचार के आरोप लगे. अभी तो ये भ्रष्टाचार मामले में कांग्रेसियों से होड ले रहे. 

७. संघियों की इसी बदचलनी को ध्यान में रख कर अन्ना आन्दोलन ने इनसे एक दूरी बनाए रखी. जो इन्हें शुरू से ही खलती रही.
८. और, इसीलिए इनकी एक टुकड़ी यानि ग्रुप अन्ना आन्दोलन के खिलाफ लगा दी गयी. जो तथाकथित "मतभेद' के नाम पे ज़हर भर उगलती है.

९. अन्नाआन्दोलन के अलावा संघियों ने बाबाआन्दोलन पे भी कब्जा करने की कोशिश की. बाबा के नाम पे इन संघियों ने खूब सांप्रदायिक नफरत फैलाई.
१०. बाबा ने सर्व धर्म समभाव को अपना सिद्धांत घोषित कर दिया तो इसी संघ की एक टुकड़ी अन्ना आन्दोलन का गुण गाते हुए बाबा पे हमले करने लगी.
११. उस वक्त संघियों ने सोचा था कि बाबा पे हमले करने से अन्ना अन्दोल्कारी इनकी तारीफ़ करेंगे, मगर इसका उल्टा हुआ. इनकी खिंचाई हुई.
१२. और, जब अन्ना-बाबा ने एक मंच पे फिर से आने का फैसला किया तो संघियों की नींद हराम हो गयी. इनका शेख चिल्ली का सपना टूटने लगा.
१३. अन्ना-बाबा की मित्रता को अटूट देख ये संघी भी उतने ही बौखलाए हुए, जितना कि सोनिया कांग्रेस. सो, ये भी अब अनर्गल प्रलाप करने लगे हैं.
१४. अरविन्द का मामला कुछ भी नहीं. उसे तिल का ताड़ बनाके पेश कर रही कांग्रेस दलाल मीडिया. और उसके सुर में सुर मिला रहे ये गंदे संघी.

इसपे मैंने परसों ही साफ़-साफ़ लिखा है:  उसे जस का तस यहां पेश कर रहा:
 
१.दलाल मीडिया को एक और मौक़ा मिला अन्ना-बाबा के बीच "फूट" की "खबर" उड़ाने का, जब अरविन्द ने कुछ नेताओं के नाम भाषण में ले लिये.
२. आज बाबा ने अपनी ओर से किसी चोर का नाम नहीं लेने का फैसला लिया था. यह उनका फैसला था.जो अतिथियों पे थोपा नहीं जा सकता था.
३.बाबा ने किसीपे थोपा भी नहीं. अरविन्द द्वारा कुछ चोर-उचक्कों के नाम लेने के बाद उन्होंने हंसी के साथ अपना यह फैसला दुहराया.
४. बाबा ने कहा कि आज किसीका नाम नहीं लेना था, मगर जब अरविन्द जी ने ये काम कर ही दिया है तो फिर उसपे कोई विवाद नहीं करना.
५. फिर भी दलाल मीडिया को तो विवाद करना ही था. सो, वे अब तक अपना दलाल राग बजाये जा रहे.
६.अरविन्द का जाना तय था.उनकी तबीयत ठीक नहीं.उनका सर दर्द से फटा जारहा था.वे जल्दी बोलना चाहते थे. बोलने के बाद इजाजत ले चलेगए.
७. दलाल मीडिया ने इसे भी बड़ा मुद्दा बना दिया कि बाबा से नाराज हो वे चले गए. यानि वाकआउट किया. हद है दलाली की !!
८.अरविन्द ने नाम ले भी लिया तो कोई गुनाह नहीं किया. नाम लिये बिना आप किस भ्रष्टाचारी को जेल भेजोगे? किसका काला धन लाओगे?
९. रणनीतिक दृष्टि से कुछ वक्त के लिए नाम न भी लिया जाय, तो भी लालू, मुलायम, चिदु, सिब्बल, देशमुख आदि को जेल तो भेजना ही है.
१०. यह आन्दोलन का आरंभ नहीं. इसे एक साल से अधिक हो गए.और, इस बीच सबके चेहरे सामने आ चुके. ऐसे में नाम न लेने का कोई तुक नहीं.
११. अब तो नाम लेने से ही यह आन्दोलन और मजबूती से आगे बढ़ेगा. और, इससे भ्रष्टों पे दबाव बढ़ेगा.

असल में, बाबा रामदेव जी फिर से अपने आन्दोलन की शुरुआत कर रहे हैं. वे अन्ना आन्दोलन की तर्ज पे सभी नेताओं से मिलने जा रहे....इसीलिए वे चोरों के नाम लेने से बच रहे. ..मगर, अब वो वक्त काफी पीछे छूट गया है. अब तो जनता को जगाकर ही काला धन आन्दोलन सफल हो सकता.

अरविन्द केजरीवाल द्वारा चोरों के नाम लेने के सिलसिले में की गयी उक्त टिप्पणियों से स्थिति लगभग स्पष्ट हो जाती है, खासकर उन लोगों के लिए जो कांग्रेस सरकार के महा भ्रष्टाचार से बुरी तरह पीड़ित हैं. लेकिन, फिर भी विपक्षी होने का दावा करने वाले कुछ संघी-भाजपाई कांग्रेसी दलाल मीडिया के ही सुर में सुर मिलाते हुए अन्ना आन्दोलन के खिलाफ अपनी भडास निकाल रहे.

अन्ना-बाबा हर तरह की रणनीति अपना रहे. अपनानी भी चाहिए. दुश्मनों के दुश्मन से दोस्ती की भी रणनीति अपनायी जानी चाहिए. इसमें कोई गुनाह नहीं. साथ ही ये ध्यान रखना जरुरी कि एक दुश्मन से निजात पाने के चक्कर में हम दूसरे दुश्मन की साज़िश के शिकार न हो जाएँ. एक महा भ्रष्ट को हटाने के बाद हम एक दूसरे भ्रष्ट के महा भ्रष्ट बनने का रास्ता न खोल दें.

इसीलिए सबसे पहले मजबूत जन लोकपाल की लड़ाई पे पूरा ध्यान केंद्रित किया जाना जरुरी. इससे भ्रष्टों को भ्रष्टाचार करने का मौका ही नहीं मिल पाएगा. और, किसीने किया तो उसे जेल में चक्की पीसने के लिए भी तैयार रहना होगा. (फिलहाल.  समाप्त)




















बुधवार, 23 मई 2012

भारत के स्वदेशी कितने स्वदेशी, कितने विदेशी और कितने इटैलियन!

भारत के स्वदेशी कितने स्वदेशी, कितने विदेशी और कितने इटैलियन !
 
विशेष संवाददाता

भारत के स्वदेशी कहे जानेवाले उद्योगपति टाटा समूह की हैसियत कितनी स्वदेशी है और कितनी स्वतंत्र, इसका पर्दाफाश करनेवाले तथ्य सामने आए हैं। कहा जाता है कि टाटा मोटर्स ने पहली स्वदेशी कारें भारत को दी हैं, लेकिन यह तथ्‍य कम लोगों को पता है कि टाटा समूह कार उत्पादन, वितरण और मार्केटिंग के मामलों में इटली की कंपनी के फ्रंट संगठन के रूप में काम करता रहा है।
 फिएट के सी ई ओ सर्जियो मर्शियोंने
    मोटर कारों के निर्माण और विपण्ण के मामले में फिएट दुनिया की पांच सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है। एक करारनामे के तहत टाटा मोटर्स की रंजनगांव स्थि‍त फैक्टरी में टाटा ग्रुप की सारी कारों का निर्माण मूलत: फिएट कंपनी करती रही है। इंजन सहित अनेक महत्वपूर्ण पुरजों को इटली से आयात किया जाता है। रंजनगांव की टाटा फैक्टरी बुनियादी तौर पर एसंबलिंग शॉप है, जहां इटालियन कंपनी के बनाये गए इंजन और पुरजों को जोड़कर अलग-अलग मार्का कर बनायी जाती हैं। टाटा मोटर्स और फिएट के बीच संबंध ठीक वैसा ही है जैसा कि मारूति और जापानी सुजुकी का। मूल सामग्री विदेशी कंपनी की होती है, केवल लेबल भारतीय कंपनी का होता है।
    जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे पता चलता है टाटा कारों को पूरी तरह से भारतीय बताना जनता को गुमराह करना है। गौरतलब है कि टाटा ग्रुप मोटर कारों के नाम पर जो मुनाफा कमाता है, उसका अधिकांश भाग फिएट को चला जाता है। यानि भारत में हो रहे इस मुनाफे से अधिकांश पूंजी निर्माण इटली में होता है। अभी-अभी एक अंग्रेजी दैनिक ने हेडिंग लगायी- फिएट फाइनली सेज, बाय-बाय टू टाटा। यह खबर भी लोगों को गुमराह करने के लिए चलायी गयी है। दरअसल, इस खबर के जरिए यह बताने की कोशिश की जा रही है कि टाटा ग्रुप एक स्वतंत्र और स्वदेशी कंपनी थी, और आगे भी रहेगी। बीच में कुछ दिनों के लिए फिएट के साथ उसका व्यापारिक संबंध था, जो कि अब खत्म हो रहा है। जबकि यह सच नहीं है। टाटा और फिएट के बीच हुए करारनामे के अनुसार फिएट कंपनी टाटा मोटर्स की कारों का निर्माण करती रहेगी और बाजार में फिएट कंपनी अपने नाम की कारों को भी उतारेगी। इस तरह फिएट कंपनी भारत से दोहरा मुनाफा ले जाएगी और पूंजी निर्माण होगा इटली में।

इस करारनामे से यह साफ हो गया है कि उत्पादन और विनिर्माण में दोनों कंपनियां साथ-साथ रहेंगी। सिर्फ वितरण के क्षेत्र में दोनों अलग हो जाएंगी।
   
इन दोनों कंपनियों की संयुक्त घोषणा से यह साफ हो गया है कि भारत के टाटा, अंबानी, बिड़ला आदि महासेठ घराने असल में विदेशी कंपनियों के भारतीय फ्रंट हैं। यही वजह है कि कथित भारतीय महासेठ घरानों का एफडीआई और एफआईआई आदि विदेशी पूंजीनिवेश के बल पर कारोबार चल रहा है। ये घराने लगातार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि विदेशी पूंजीनिवेश और विदेशी कंपनियों को भारत लाया जाए।

साफ है नैनो कार का विनिर्माण फिएट ने ही किया है। टाटा उत्पादन के नाम पर जहां-जहां कृषि भूमि या सर्वजनिक भूमि लेने की कोशिश की गयी है या ले ली गयी है वह दरअसल, मूलत: फिएट कंपनी के लिए ही है।

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

“घुडसवार” ददुआ के पुत्र वीर सिंह ने शुरू की “साइकिल यात्रा”



घोड़े की सवारी से जो काम न हो सका, वो काम
साइकिल कर दिखाएगी !!

विशेष संवाददाता


मुहर लगेगी हाथी पे, वरना गोली चलेगी छाती पे ! बुंदेलखंड के जंगलों-गांवों में ये नारा लगाने वाला खुंखार डाकू ददुआ का बेटा वीर सिंह इन दिनों चुनाव लड़ रहा.

ददुआ अब मारा जा चुका है. पिछले चुनाव में उसने दल बदल करके हाथी के बजाय साइकिल की सवारी शुरू की. साइकिल का टायर पंक्चर हुआ और माया की पुलिस ने ददुआ को मार गिराया.

तीन दशक तक ददुआ का आतंक और रोबिन्हुडगिरी चलती रही थी. अनेक किस्से-कहानियाँ सुनी जाती हैं उसकी. उसके बल पे अनेक लोग नेता बने, और नेता बनके
डाकू बने. यानि जनता को लूटने के काम किये. कम से कम दस विधान सभा सीटें ददुआ का कार्य क्षेत्र" रहीं.

ददुआ ने अपना साम्राज्य बनाये रखने के लिए
समाज सेवा के अनेक काम किये, जो कि नेता से डाकू बने नेताओं-मंत्रियों ने नहीं किया. ये है बुनियादी फर्क जंगल के डाकू और नेता में.

ददुआ पुत्र ने देखा कि उसके पिता का नाम लेकर अनेक लोग नेता-मंत्री बन गए, तो वो क्यों नहीं. बदनामी के डर से किसी दल ने उसे टिकट देना नहीं चाहा तो वह सदल-बल चढ बैठा मुलायम के दफ्तर. आखिरकार उसे टिकट मिल ही गया. (कहां हो अखिलेश? आपने तो कहा था कि दागदार लोगों को आपके यहां टिकट नहीं मिलती !!) सपा वालों का कहना है कि वीर सिंह डाकू नहीं. उसे उसके पिता के अपराध की सज़ा क्यों मिले ? लेकिन, वीर पे भी अपहरण, हत्या, और फिरौती के कोई नौ मामले तो चल ही रहे हैं.

बहरहाल, उत्तर प्रदेश में अनेक उम्मीदवार कुछ इसी तरह के हैं. ऐसे में अकेले ददुआ -पुत्र को
दोष देना ठीक नहीं. सभी दलों में हैं अनेक ददुआ-पुत्र या खुद ददुआ.

ददुआ-पुत्र का कहना है कि वो नेता बनके समाज सेवा करेगा. गरीबों की भलाई के काम करेगा. अब्दी अच्छी बात. जो काम नेता से डाकू बने लोग नहीं कर सके, वो काम अगर डाकू-संतान और खुद भी एक अपराधी नेता बनके कर सके तो देश का कल्याण !! लेकिन...... ???? एक बड़ा सवालिया निशान..?

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

चेर्नबिल त्रासदी से नयी चेतना की उत्पत्ति

सम्पादकीय

चेर्नबिल त्रासदी से नयी चेतना की उत्पत्ति

किरण पटनायक

भारत में हुए भोपाल गैस काण्ड को हुए २५ साल से ज्यादा बीत चुके. उसके बाद भारत जैसे "पिछड़े" देश में भी एक नयी चेतना पैदा हुई. सरकारों में नहीं, राजनीतिक दलों में नहीं, बल्कि आम जन-गण में. इसीलिए आज देश के विभिन्न प्रान्तों में स्वतः स्फूर्त रूप से पर्यावरण की रक्षा, जंगल-झाड़ की रक्षा के अभियान-आन्दोलन चलने लगे हैं. बल्कि कहा जाय कि भोपाल गैस त्रासदी की घटना के पहले से ही प्रकृति बचाओ आंदोलनों की शुरुआत इस देश में हो चुकी थी, गैस काण्ड के बाद जिसमें गुणात्मक तेजी आयी.

जहाँ तक केंद्र सरकार सहित विभिन्न राज्य सरकारों की बात है
, तो ये आज भी ५० साल पुरानी और पिट चुकी "पश्चिमी नीति" की नक़ल करके खुद को बड़े प्रगतिशील समझ कर "देश के विकास" का राग अलाप रही हैं. इन्हें भोपाल गैस काण्ड और चेर्नबिल परमाणु त्रासदी के बाद भी होश नहीं आया है. विभिन्न राजनीतिक दल आज भी परमाणु ऊर्जा को अनिवार्य रूप से जरुरी बताकर देश सहित दुनिया का संकट बढाने में जुटे हुए हैं. इसके लिए खासकर कांग्रेस की साम्राज्यवाद-परस्त नीतियाँ ही जिम्मेवार हैं. अपने अस्थायी और सामयिक निजी स्वार्थ के लिए बड़े उद्योगपति और उनकी मीडिया इस विध्वंसकारी नीति में कांग्रेस सरकार का साथ दे रही है.

दिल्ली के कबाड़ से निकले जानलेवा रेडीएशन से देश की सरकार और दलों को सचेत हो जाना चाहिए था, लेकिन इसके कोई संकेत नहीं मिल रहे कि केंद्र सरकार को होश आया है. हर बड़े मामलों की तरह इस पर भी लीपापोती की जाने लगी है. जब इतने छोटे से रेडीएशन के एक्सपोजर से कई लोगों की जान जा सकती है या उन्हें जीवन-मरण की लड़ाई लडनी पड़ रही हो, तब चेर्नबिल या भोपाल जैसे कांडों के घटित होने की भयावहता को समझा ही जा सकता है. लेकिन अमेरिकी हाथों की कठपुतली मनमोहन सरकार से ऎसी किसी समझदारी की उम्मीद करना रेत से तेल की आशा करने जैसा ही है. जो सरकार अपने देशवासियों को अब तक यूनियन कार्बाइड और डाऊ जैसी अमेरिकी कंपनियों से उचित मुआवजा दिलाने में विफल साबित हो चुकी हो, उससे क्या उम्मीद की जा सकती है.

यह सरकार तो इतनी घटिया और निर्मम है कि यह अब फिर से डाऊ (यूनियन कार्बाइड) को वापस लेन के लिए दाँव-पेंच में लगी हुई है. इतना ही नहीं, अमेरिका की यह दलाल सरकार अब इसकी गारंटी में भी लगी हुई है कि भोपाल या चेर्नबिल जैसी कोई बहुत भयंकर घटना घट जाय तो अमेरिकी- यूरोपीय कंपनियों को मुआवजा नहीं देना पड़े और उन पर मुकदमा भी न हो. इसीलिए पिछले दिनों संसद में परमाणु दायित्व विधेयक लाने का प्रयास किया गया था, मगर जोरदार विरोध की आशंका के मद्देनजर इसे फिलहाल गतालखाते में रख छोड़ा गया है. इसे ही कहते हैं देशद्रोह. सिर्फ माधुरी गुप्ता जैसे लोग ही देशद्रोही नहीं होते, बल्कि देश विकास के नाम पर देश की जनता के जीवन को खतरे में डालने वाली सरकार भी देशद्रोही हो सकती है. ऐसे देशद्रोहियों और जनता की दुश्मन सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए देश की आम जनता को एक नयी चेतना से लैस होना जरुरी है. जैसा कि चेर्नबिल काण्ड के बाद उक्रेन और सोवियत देशों सहित यूरोप में एक हद तक हुआ और हो रहा है.

२५-२६ अप्रैल 1986 की रात में चेर्नबिल काण्ड को हुए साल हो चुके. इस काण्ड ने पूरे यूरोप में एक नयी चेतना को जन्म दिया, विशेषकर "सोवियत" देशों में. राजनीतिक रूप से इस चेतना को किसी विचारधारा के साथ जोड़कर नहीं देखा जा सकता. न साम्यवादी, पूंजीवादी. यह शुद्ध रूप से पृथ्वी सहित मानवीय अस्तित्व की रक्षा से जुड़ी चेतना है.


यह और बात है कि इसका सरासर अनुचित इस्तेमाल करने में पूंजीवादी - साम्राज्यवादी शक्तियां जुट गयीं. इस वर्ग विभाजित विश्व में अगर किसी नयी चेतना के साथ वर्ग दृष्टिकोण न हो तो उसका नाजायज लाभ पूंजीवादी ताकतें उठाया करती हैं. इसे सोवियत यूनियन में देखा गया. इसका खामियाजा वहां के मजदूर वर्ग सहित दुनिया के मेहनतकश अवाम को भरना पड़ रहा है. उस नयी व शुद्ध चेतना का अनुचित लाभ उठा कर देश-दुनिया का शोषक वर्ग मेहनतकशों से उनके अधिकार छीनने के प्रयास में जुटा हुआ है, जो अधिकार अमेरिका के शिकागो में १ मई के रक्तरंजित युद्ध के बाद प्राप्त होना शुरू हुआ था.

मई दिवस के अवसर पर जनसमाचार भोपाल और चेर्नबिल काण्ड के
पीड़ितों के साथ अपनी हार्दिक संवेदना प्रकट करते हुए भारत सहित विश्व के आम लोगों का आह्वान करना चाहता है कि सरकारों की ऎसी हर कार्रवाई का पुरजोर विरोध किया जाय , जो आम जनता सहित पूरी मानवता और इस हमारी जननी पृथ्वी के लिए घातक हो. ऐसे अनेक आन्दोलन देश के विभिन्न क्षेत्रों में चल भी रहे हैं. इन्हें और भी आगे बढ़ाकर सचेत रूप से वर्ग दृष्टिकोण के तहत ऐक्यबद्ध करना जरुरी है। इसे राजनीतिक सिद्धांतों के घेरे में बांधना भी उचित नहीं। क्योंकि , जैसा कि पहले ही कहा गया है, यह मानवता और पृथ्वी की रक्षा का आन्दोलन है.

बहरहाल, सोवियत संघ सहित यूरोप में २७ अप्रैल तक किसीको इसका पता ही नहीं था कि चेर्नबिल के चौथे रिएक्टर में हुए विस्फोट के कारण नागासाकी-हिरोशिमा से चार सौ गुना अधिक सेजियम-१३७, स्ट्रेंसीयम-९० और अन्यान्य पदार्थो से रेडियोधर्मिता वातावरण में फैलती जा रही है. चेर्नबिल पूर्व सोवियत देश उक्रेन में है. राजधानी किएव से मात्र १३५ कि.मी. दूर. यह "दुर्घटना" रासायनिक थी, नाभिकीय नहीं. नाभिकीय होती तो न जाने क्या होता?

इसका असर स्पेन को छोड़ कर लगभग पूरे यूरोप में इसका दुष्प्रभाव पड़ा. उक्रेन और पूर्व यूरोप के वरिष्ठ पर्यावरण नेता विटाली कनोनौव के अनुसार "२५ अप्रैल की रात वहां ३६० लोग कार्यरत थे. उनमे से अब कोई नहीं बचा. कोई उसी समय मारे गये तो एनी कुछ महीनों बाद. वहां के कर्मचारियों के परिवारों को प्रिपीयात शहर से बाहर ले जाते समय अधिकारियों ने कहा था कि ज्यादा सामान ले जाने की जरुरत नहीं, क्योंकि जल्द ही वापस आजाना है. यह झूठ नहीं कहने से अच्छा होता. आम लोगों को संकट की भयावहता के बारे में बताना जरुरी था. " वे सभी दस साल बाद १९९६ में ही वापस आ सके , जो बचे रह गये थे.

राष्ट्र संघ के चेर्नबिल फोरम के अनुसार २८ अग्निशमन कर्मचारियों के अलावा ६०० लोगों की मृत्यु उसी समय हो गयी थी. इसके बाद भी इस दुर्घटना से लोगों का मरना जारी रहा. छः लाख से ज्यादा लोगों पर रेडिएशन का दुष्प्रभाव पडा. कम से कम चार हजार लोगों की मृत्यु थायरायड कैंसर से हुई और हो सकती है. लोगों के दिमाग और मानसिकता पर चेर्नबिल का बहुत ही गभीर प्रभाव पड़ा. इससे एक नयी चेतना का विकास आरम्भ हुआ. विटाली कनोनौव के इस मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से अनेक लोग सहमत नहीं होने के बावजूद यह बड़े हद तक सच है. क्योंकि इसके बाद से ही यूरोप में पर्यावरण आन्दोलन का आरम्भ हुआ, जिसे वहां ग्रीन आन्दोलन कहा जाता है.

इतना ही
नहीं, इसके बाद से सोवियत संघ के पतन की भी शुरुआत हुई. उसके पतन के और भी कई प्रमुख कारण हैं, जिन पर काफी चर्चा हो चुकी है और आगे भी होगी, मगर कनोनौव के विश्लेषण को भी नकारा नहीं जा सकता. यहाँ इस बहस का प्रारम्भ करना प्रासंगिक होगा कि सोवियत संघ ने मानवता और इस सृष्टि की रक्षा में खुद की बलि चढ़ा दी. यह काम अमेरिका जैसा कोई साम्राज्यवादी-पूंजीवादी देश नहीं कर सकता. हालाँकि सोवियत संघ के पतन के अन्य राजनीतिक-आर्थिक कारण भी हैं. फिलहाल, यह अलग लम्बी बहस का मुद्दा है.

विटाली कनोनौव कहते हैं कि "तबसे ही हमारे यहाँ सब्ज आन्दोलन शुरू हुआ. उससे विभिन्न संस्थाओं का जन्म हुआ, कम्युनिष्ट पार्टी के साथ मिल-जुल कर. लोगों के बहुत करीब जाकर हमने काम किये. यह काम अनेक दिनों से नहीं हो रहा था. सत्ता में रहते-रहते ऐय्याशी बढ़ गयी थी. सही काम नहीं हो रहा था. लोगों को आतंकित किया जा रहा था. इसीलिए नयी चेतना का उदय हुआ. इस चेतना की उदगम वही चेर्नबिल है. "

लेकिन कम्युनिष्ट होते हुए भी कनोनौव एक बात भूल गये कि वर्ग नजरिये के बिना कोई भी नयी चेतना अपने अंतिम लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाती. इसी कारण उस नयी चेतना का इस्तेमाल करके साम्राज्यवादी देश पूर्व सोवियत देशों सहित विश्व में अपना एजेंडा लागू करने के षड्यंत्र में व्यस्त हैं. ग्लोबल वार्मिंग के मामले में भी ये देश अपने स्वार्थों को सर्वोपरी रख कर अपनी मनमानी चलाने के प्रयास में लगे हुए हैं.


इसीलिए कनोनौव भी स्वीकार करते हैं कि यूरोप की संसदों में सब्ज आन्दोलन के प्रतिनिधियों की भरमार के बावजूद अमेरिका-यूरोप सहित अन्य पूंजीवादी देशों को होश नहीं आया है. इसीलिए भी इतनी बड़ी दुर्घटना के बावजूद चेर्नबिल संयंत्र को बंद करते चार-पांच साल लग गये थे. उनके अनुसार अभी भी कोयला-गैस या फौसिल फ्युएल की तुलना में परमाणु ऊर्जा को कहीं अधिक सुरक्षित माना जा रहा है, यह सच नहीं है, चेर्नबिल से सबक लेनी चाहिए.भारत की सरकार तो ऎसी कोई सबक लेने से रही, लेकिन आम लोग अगर इससे सबक ले लें तो वे ऎसी मानवता-विरोधी सरकारों को सबक जरुर सीखा सकते हैं. .(समाप्त)