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बुधवार, 6 जून 2012

राष्ट्रपति पाटिल से जुड़ा एक और विवाद: "जीवनदान" का क्या रहस्य?

                                                      विशेष संवाददाता
पांच साल बीत जाने के बाद भी राष्ट्रपति पाटिल का नाम विवादों से अलग नहीं हो पा रहा. अनेक विवादों के बाद अब राष्ट्रपति द्वारा फांसी की सजा पाये अपराधियों को "क्षमादान" पे विवाद खड़ा हो गया है. ये क्षमादान मानवता के आधार पे दिये गए, या इसके पीछे भी कोई भ्रष्टाचार है? यह सवाल उठ रहा है.
सूचना के अधिकार के तहत पिछले साल जुलाई में एक आवेदन किया गया था, जिसमें राष्ट्रपति के पास हत्या और बलात्कार के लिए मृत्युदंड प्राप्त अपराधियों को जीवनदान करने या उनकी सजा को कम करने के लिए पहुंचे आवेदनों के बारे में जानकारी मांगी गयी थी. राष्ट्रपति के सचिव सुभाष चंद्र अग्रवाल ने जो जवाब दिया उसके अनुसार 2005 से लेकर जुलाई 2011 तक 17 आवेदन विचारार्थ पहुंचे थे. जिसमें से 10 अपराधियों की फांसी की सजा को माफ करते हुए राष्ट्रपति ने आजीवन कारावास में बदल दिया. लेकिन गृह मंत्री पी. चिदंबरम के बयान के मुताबिक मार्च 2012 तक राष्ट्रपति के पास ऐसे आवेदनपत्रों की संख्या 33 हो गयी। 33 मामलों में 50 से अधिक अपराधियों को जीवनदान करने का मामला राष्ट्रपति के दफ्तर में विचारार्थ पड़ा हुआ है.

अन्य राष्ट्रपतियों की तुलना में प्रतिभा पाटिल के कार्यकाल में सबसे अधिक बला‍त्कारियों और हत्यारों को दी गयी चरम सजा को कम किया गया. जुलाई 2011 तक सर्वोच्च अदालत द्वारा 10 अपराधियों की फांसी की सजा को राष्ट्रपति ने कम कर उनकी सजा को आजीवन कारावास में बदला. और 2007 से लेकर 2011 तक  कार्यकाल में कुल 18 हत्या और बलात्कार के खतरनाक अपराधियों को फांसी के फंदे से राष्ट्रपति ने राहत दी. दिलचस्प है कि प्रतिभा पाटिल ने महज 16 महीने में 18 अपराधियों को "जीवनदान" दिया. जाहिर है कि अब जब राष्ट्रपति से जुड़े तरह-तरह विवादों की चर्चा हो रही है तब मृत्युदंड प्राप्त अपराधियों को जीवनदान दिए जाने के औचित्य को लेकर भी बहस शुरू हो गयी है. अब तो यह बहस गरमाने भी लगी है.

संविधान ने राष्ट्रपति को जो अधिकार दिए हैं, उनमें से एक है संविधान की धारा 72 के अनुसार मृत्युदंड प्राप्त अपराधियों को जीवनदान देने का अधिकार. लेकिन प्रतिभा पाटिल के कार्यकाल में देखने में आया कि राष्ट्रपति भवन से ऐसे अपराधियों को क्षमादान किया गया
, जिनके भयंकरतम अपराध अदालत में प्रमाणित हो चुके हैं. ऐसे नृशंस हत्यारों की फांसी की सजा से छुटकारा दिया गया, जिन्होंने समाज के बहुत सारे लोगों से उनके जीने का अधिकार छीन लिया. जीवनदान प्राप्त अपराधियों की इस फेहरिस्त में छोटे व नन्हें बच्चों और किशोर उम्र के बच्चे सहित बुजुर्ग और महिलाओं के हत्यारे शामिल हैं. इन फांसी के सजायाफ्ताओं ने न सिर्फ बड़ी नृशंसता के साथ लोगों की हत्याएं की हैं; बल्कि कहा जाए तो छोटे बच्चों तक को रोंगटे खड़े कर देनेवाले तरीके से तड़पा-तड़पा कर उनकी जान ली. लेकिन राष्ट्रपति ने उन्हें जीवनदान दे दिया. 
 
फांसी की सजा को लेकर पूरी दुनिया में बहस जारी है. दुनिया के बहुत सारे देशों में फांसी या मृत्युदंड की सजा खत्म कर दी गयी है. जाहिर है भारत में भी इस पर बहस शुरू हो चुकी है.  कोलकाता में धनंजय चटर्जी को स्कूली छात्रा हेतल पारेख की बलात्कार के बाद हत्या के मामले में निचली अदालत से मिली फांसी की सजा को जब सर्वोच्च अदालत ने विरल से विरलतम अपराध करार देकर निचली अदालत की सजा को बहाल रखा तो धनंजय ने जीवनदान के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से गुहार लगायी. उस दौरान धनंजय के मामले की दुनिया भर में चर्चा हुई. इस मामले में भार‍तीय समाज पहले से ही फांसी की सजा को लेकर बंट गया था. समाज के एक धड़े का कहना था कि सभ्य समाज में फांसी जैसी नृशंस सजा नहीं दी जानी चाहिए। जवाब में दूसरे धड़े का मानना है कि अगर अपराध विरल से विरलतम या हद दर्जे की नृशंसपूर्ण तरीके से की गयी है तो फांसी की सजा जायज है. वहीं अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन से लेकर विभिन्न देशों से फांसी की सजा को आजीवन कारावास में तब्दील कर देने की अपील की गयी थी. लेकिन भारतीय जनमानस में धनंजय के खिलाफ जनमत को देखते हुए एपीजे अब्दुल कलाम ने धनंजय की गुहार को खारिज कर दिया. 
 अब जब राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के कार्यकाल में जिन नृशंस हत्यारों की फांसी की सजा को माफ कर आजीवन कारावास में बदल दिया गया तो इस पर जनता में रोष देखने को मिल रहा है. 

यहां राष्ट्रपति के इस विशेषाधिकार की प्रक्रिया पर चर्चा कर लेना प्रासंगिक होगा। राष्ट्रपति को संविधान की धारा 72 के तहत मृ‍त्युदंड प्राप्त अपराधी जीवनदान या क्षमादान का अधिकार है। मृत्युदंड के अपराधी राष्ट्रपति के पास जीवनदान के लिए गुहार लगाते हैं. परिस्थिति पर विचार कर अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करके राष्ट्रपति कभी-कभार सजा को कम कर देते हैं.
किसी भी फांसी की सजा या मृत्युदंड जैसी सजा को कम करने से पहले नियमानुसार राष्ट्रपति का दफ्तर संबंधित मामले  पर गृह मंत्रालय से सलाह मांगता है. लेकिन क्षमादान या जीवनदान या सजा को कम करने से संबंधित राष्ट्रपति द्वारा लिये गए फैसले पर हस्ताक्षर राष्ट्रपति का ही होता है. प्रतिभा पाटिल के अब तक के कार्यकाल में ऐसे अपराधियों को जीवनदान मिला, जिनका अपराध इतना जघन्य है कि मानवता भी शर्मसार हो जाए.

यहां ऐसे कुछ अपराधियों के तथ्य दिए जा रहे हैं, नवंबर 2010 से लेकर फरवरी 2011 तक 16 महीनों में 18 जघन्य अपराधियों को राष्ट्रपति से जीवनदान मिला. जीवनदान मिले अपराधियों में से एक वह अपराधी भी शामिल है जिस पर 38 लोगों की हत्या का अपराध सबित हो चुका है. इन 38 हत्याओं में 12 शिशुओं से लेकर किशोर वय के बच्चे शामिल हैं.
  राष्ट्रपति द्वारा जबरन दिये गए "जीवनदानों" में से कुछ का नीचे जिक्र किया जा रहा है.
मलाई राम और संतोष यादव पर 16 साल की लड़की के साथ बलात्कार करने के बाद हत्या का अपराध साबित हो चुका है. मध्यप्रदेश के मलाई राम रीवा के सेंट्रल जेल में सुरक्षाकर्मी के तौर पर काम करता था. इसी जेल में संतोष यादव किसी अन्य मामले में सजायाफ्ता था. दोनों की ही नजर रीवा जेल के सहयोगी जेलर की 16 साल की बेटी पर थी. एक दिन मौका पाकर दोनों लड़की पर टूट पड़े. जेल के एक सुनसान कोने में ले जाकर उसके साथ दोनों ने बारी-बारी से बलात्कार किया. बलात्कार के बाद दोनों ने लड़की की हत्या की. शिनाख्त न हो सके, इसके लिए दोनों मिलकर लड़की की लाश को नृशंसतापूर्वक तोड़-मरोड़ और विकृत करके सेप्टिक टैंक में ठिकाने लगा दिया. इन दोनों का यह सारा अपराध निचली कई अदालतों में साबित हो गया था. मृत्युदंड की सजा हुई. अंत में मामला 1999 में सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने भी इन दोनों के अपराध को विरल से विरलतम अपराध करार देते हुए फांसी की सजा को बहाल रखते हुए फांसी पे चढ़ाने का फैसला सुनाया. मगर, ऐसे जघन्य अपराधी मलाई राम और संतोष यादव को राष्ट्रपति पाटिल से जीवनदान मिल गया.

यही हाल पंजाब के पियारा सिंह और उसके तीन बेटों सबरजीत सिंह, गुरदेव सिंह और सतनाम सिंह का है. जिनके खिलाफ 1991 में अमृतसर में शादी के समारोह में शामिल होने जा रहे एक सात साल के बच्चे समेत 17 लोगों की हत्या का अपराध प्रमाणित हो गया है. पहले फरवरी 2001 में और इसके बाद जनवरी 2006 को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने इन्हें मृत्युदंड सुनाया. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 2003 में मृत्युदंड की सजा को बहाल रखा. अपराधियों ने जीवनदान के लिए राष्ट्रपति से गुहार लगायी गयी. राष्ट्रपति ने मामले को गृह मंत्रालय के पास विचार के भेजा. गृह मंत्रालय ने जीवनदान की अपील को खारिज करने की सिफारिश की. मगर, राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने गृह मंत्रालय से मामले पर पुनर्विचार के लिए कहा. बाद में मंत्रालय ने अपनी सिफारिश में संशोधन करते हुए जीवनदान की सिफारिश कर दी. ऐसा भला कैसे हो गया? धनंजय की याचिका पर गृह मंत्रालय ने जीवनदान का लगातार विरोध किया था! इस बार क्या पाटिल को "खुश" करने के लिए ऐसा किया गया??
तमिलनाड़ू का मोहन और गोपी, हरियाणा के धमेंद्रपाल सिंह और नरेंद्र यादव के मामले भी कुछ ऐसे ही हैं.
   
 राष्ट्रपति पाटिल द्वारा दिये "जीवनदान" में ऐसे कई मामले ऐसे हैं जिसमें गृह मंत्रालय ने राष्ट्रपति के दफ्तर से जीवनदान की उनकी अपील को खारिज करने की सलाह दी थी.  मौजूदा क्षमादान के ज्यादातर मामलों में मंत्रालय ने अपनी सिफारिश पर साफ शब्दों में ‍लिखा था कि मामले से संबंधित तमाम तथ्यों पर विचार करते हुए मंत्रालय इस नतीजे पर पहुंचा है कि अपराध जघन्य और अपने आप में विरलतम हैं. लेकिन बताया जाता है कि राष्ट्रपति के दफ्तर ने इन मामलों को पुनर्विचार के लिए मंत्रालय को वापस भेजा. और, पता नहीं किस कारण से मंत्रालय ने "जीवनदान" की पाटिल की जिद मान ली !!
इन "जीवनदानों" पे फिर से विचार होना जरुरी. साथ ही, ये भी देखा जाना जरुरी कि आखिर वो क्या वजह हैं, जिस कारण पाटिल ने "जीवनदान" की जिद की. क्या इनमें भी घोटाला है?? (समाप्त)

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