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सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

“घुडसवार” ददुआ के पुत्र वीर सिंह ने शुरू की “साइकिल यात्रा”



घोड़े की सवारी से जो काम न हो सका, वो काम
साइकिल कर दिखाएगी !!

विशेष संवाददाता


मुहर लगेगी हाथी पे, वरना गोली चलेगी छाती पे ! बुंदेलखंड के जंगलों-गांवों में ये नारा लगाने वाला खुंखार डाकू ददुआ का बेटा वीर सिंह इन दिनों चुनाव लड़ रहा.

ददुआ अब मारा जा चुका है. पिछले चुनाव में उसने दल बदल करके हाथी के बजाय साइकिल की सवारी शुरू की. साइकिल का टायर पंक्चर हुआ और माया की पुलिस ने ददुआ को मार गिराया.

तीन दशक तक ददुआ का आतंक और रोबिन्हुडगिरी चलती रही थी. अनेक किस्से-कहानियाँ सुनी जाती हैं उसकी. उसके बल पे अनेक लोग नेता बने, और नेता बनके
डाकू बने. यानि जनता को लूटने के काम किये. कम से कम दस विधान सभा सीटें ददुआ का कार्य क्षेत्र" रहीं.

ददुआ ने अपना साम्राज्य बनाये रखने के लिए
समाज सेवा के अनेक काम किये, जो कि नेता से डाकू बने नेताओं-मंत्रियों ने नहीं किया. ये है बुनियादी फर्क जंगल के डाकू और नेता में.

ददुआ पुत्र ने देखा कि उसके पिता का नाम लेकर अनेक लोग नेता-मंत्री बन गए, तो वो क्यों नहीं. बदनामी के डर से किसी दल ने उसे टिकट देना नहीं चाहा तो वह सदल-बल चढ बैठा मुलायम के दफ्तर. आखिरकार उसे टिकट मिल ही गया. (कहां हो अखिलेश? आपने तो कहा था कि दागदार लोगों को आपके यहां टिकट नहीं मिलती !!) सपा वालों का कहना है कि वीर सिंह डाकू नहीं. उसे उसके पिता के अपराध की सज़ा क्यों मिले ? लेकिन, वीर पे भी अपहरण, हत्या, और फिरौती के कोई नौ मामले तो चल ही रहे हैं.

बहरहाल, उत्तर प्रदेश में अनेक उम्मीदवार कुछ इसी तरह के हैं. ऐसे में अकेले ददुआ -पुत्र को
दोष देना ठीक नहीं. सभी दलों में हैं अनेक ददुआ-पुत्र या खुद ददुआ.

ददुआ-पुत्र का कहना है कि वो नेता बनके समाज सेवा करेगा. गरीबों की भलाई के काम करेगा. अब्दी अच्छी बात. जो काम नेता से डाकू बने लोग नहीं कर सके, वो काम अगर डाकू-संतान और खुद भी एक अपराधी नेता बनके कर सके तो देश का कल्याण !! लेकिन...... ???? एक बड़ा सवालिया निशान..?

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

चेर्नबिल त्रासदी से नयी चेतना की उत्पत्ति

सम्पादकीय

चेर्नबिल त्रासदी से नयी चेतना की उत्पत्ति

किरण पटनायक

भारत में हुए भोपाल गैस काण्ड को हुए २५ साल से ज्यादा बीत चुके. उसके बाद भारत जैसे "पिछड़े" देश में भी एक नयी चेतना पैदा हुई. सरकारों में नहीं, राजनीतिक दलों में नहीं, बल्कि आम जन-गण में. इसीलिए आज देश के विभिन्न प्रान्तों में स्वतः स्फूर्त रूप से पर्यावरण की रक्षा, जंगल-झाड़ की रक्षा के अभियान-आन्दोलन चलने लगे हैं. बल्कि कहा जाय कि भोपाल गैस त्रासदी की घटना के पहले से ही प्रकृति बचाओ आंदोलनों की शुरुआत इस देश में हो चुकी थी, गैस काण्ड के बाद जिसमें गुणात्मक तेजी आयी.

जहाँ तक केंद्र सरकार सहित विभिन्न राज्य सरकारों की बात है
, तो ये आज भी ५० साल पुरानी और पिट चुकी "पश्चिमी नीति" की नक़ल करके खुद को बड़े प्रगतिशील समझ कर "देश के विकास" का राग अलाप रही हैं. इन्हें भोपाल गैस काण्ड और चेर्नबिल परमाणु त्रासदी के बाद भी होश नहीं आया है. विभिन्न राजनीतिक दल आज भी परमाणु ऊर्जा को अनिवार्य रूप से जरुरी बताकर देश सहित दुनिया का संकट बढाने में जुटे हुए हैं. इसके लिए खासकर कांग्रेस की साम्राज्यवाद-परस्त नीतियाँ ही जिम्मेवार हैं. अपने अस्थायी और सामयिक निजी स्वार्थ के लिए बड़े उद्योगपति और उनकी मीडिया इस विध्वंसकारी नीति में कांग्रेस सरकार का साथ दे रही है.

दिल्ली के कबाड़ से निकले जानलेवा रेडीएशन से देश की सरकार और दलों को सचेत हो जाना चाहिए था, लेकिन इसके कोई संकेत नहीं मिल रहे कि केंद्र सरकार को होश आया है. हर बड़े मामलों की तरह इस पर भी लीपापोती की जाने लगी है. जब इतने छोटे से रेडीएशन के एक्सपोजर से कई लोगों की जान जा सकती है या उन्हें जीवन-मरण की लड़ाई लडनी पड़ रही हो, तब चेर्नबिल या भोपाल जैसे कांडों के घटित होने की भयावहता को समझा ही जा सकता है. लेकिन अमेरिकी हाथों की कठपुतली मनमोहन सरकार से ऎसी किसी समझदारी की उम्मीद करना रेत से तेल की आशा करने जैसा ही है. जो सरकार अपने देशवासियों को अब तक यूनियन कार्बाइड और डाऊ जैसी अमेरिकी कंपनियों से उचित मुआवजा दिलाने में विफल साबित हो चुकी हो, उससे क्या उम्मीद की जा सकती है.

यह सरकार तो इतनी घटिया और निर्मम है कि यह अब फिर से डाऊ (यूनियन कार्बाइड) को वापस लेन के लिए दाँव-पेंच में लगी हुई है. इतना ही नहीं, अमेरिका की यह दलाल सरकार अब इसकी गारंटी में भी लगी हुई है कि भोपाल या चेर्नबिल जैसी कोई बहुत भयंकर घटना घट जाय तो अमेरिकी- यूरोपीय कंपनियों को मुआवजा नहीं देना पड़े और उन पर मुकदमा भी न हो. इसीलिए पिछले दिनों संसद में परमाणु दायित्व विधेयक लाने का प्रयास किया गया था, मगर जोरदार विरोध की आशंका के मद्देनजर इसे फिलहाल गतालखाते में रख छोड़ा गया है. इसे ही कहते हैं देशद्रोह. सिर्फ माधुरी गुप्ता जैसे लोग ही देशद्रोही नहीं होते, बल्कि देश विकास के नाम पर देश की जनता के जीवन को खतरे में डालने वाली सरकार भी देशद्रोही हो सकती है. ऐसे देशद्रोहियों और जनता की दुश्मन सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए देश की आम जनता को एक नयी चेतना से लैस होना जरुरी है. जैसा कि चेर्नबिल काण्ड के बाद उक्रेन और सोवियत देशों सहित यूरोप में एक हद तक हुआ और हो रहा है.

२५-२६ अप्रैल 1986 की रात में चेर्नबिल काण्ड को हुए साल हो चुके. इस काण्ड ने पूरे यूरोप में एक नयी चेतना को जन्म दिया, विशेषकर "सोवियत" देशों में. राजनीतिक रूप से इस चेतना को किसी विचारधारा के साथ जोड़कर नहीं देखा जा सकता. न साम्यवादी, पूंजीवादी. यह शुद्ध रूप से पृथ्वी सहित मानवीय अस्तित्व की रक्षा से जुड़ी चेतना है.


यह और बात है कि इसका सरासर अनुचित इस्तेमाल करने में पूंजीवादी - साम्राज्यवादी शक्तियां जुट गयीं. इस वर्ग विभाजित विश्व में अगर किसी नयी चेतना के साथ वर्ग दृष्टिकोण न हो तो उसका नाजायज लाभ पूंजीवादी ताकतें उठाया करती हैं. इसे सोवियत यूनियन में देखा गया. इसका खामियाजा वहां के मजदूर वर्ग सहित दुनिया के मेहनतकश अवाम को भरना पड़ रहा है. उस नयी व शुद्ध चेतना का अनुचित लाभ उठा कर देश-दुनिया का शोषक वर्ग मेहनतकशों से उनके अधिकार छीनने के प्रयास में जुटा हुआ है, जो अधिकार अमेरिका के शिकागो में १ मई के रक्तरंजित युद्ध के बाद प्राप्त होना शुरू हुआ था.

मई दिवस के अवसर पर जनसमाचार भोपाल और चेर्नबिल काण्ड के
पीड़ितों के साथ अपनी हार्दिक संवेदना प्रकट करते हुए भारत सहित विश्व के आम लोगों का आह्वान करना चाहता है कि सरकारों की ऎसी हर कार्रवाई का पुरजोर विरोध किया जाय , जो आम जनता सहित पूरी मानवता और इस हमारी जननी पृथ्वी के लिए घातक हो. ऐसे अनेक आन्दोलन देश के विभिन्न क्षेत्रों में चल भी रहे हैं. इन्हें और भी आगे बढ़ाकर सचेत रूप से वर्ग दृष्टिकोण के तहत ऐक्यबद्ध करना जरुरी है। इसे राजनीतिक सिद्धांतों के घेरे में बांधना भी उचित नहीं। क्योंकि , जैसा कि पहले ही कहा गया है, यह मानवता और पृथ्वी की रक्षा का आन्दोलन है.

बहरहाल, सोवियत संघ सहित यूरोप में २७ अप्रैल तक किसीको इसका पता ही नहीं था कि चेर्नबिल के चौथे रिएक्टर में हुए विस्फोट के कारण नागासाकी-हिरोशिमा से चार सौ गुना अधिक सेजियम-१३७, स्ट्रेंसीयम-९० और अन्यान्य पदार्थो से रेडियोधर्मिता वातावरण में फैलती जा रही है. चेर्नबिल पूर्व सोवियत देश उक्रेन में है. राजधानी किएव से मात्र १३५ कि.मी. दूर. यह "दुर्घटना" रासायनिक थी, नाभिकीय नहीं. नाभिकीय होती तो न जाने क्या होता?

इसका असर स्पेन को छोड़ कर लगभग पूरे यूरोप में इसका दुष्प्रभाव पड़ा. उक्रेन और पूर्व यूरोप के वरिष्ठ पर्यावरण नेता विटाली कनोनौव के अनुसार "२५ अप्रैल की रात वहां ३६० लोग कार्यरत थे. उनमे से अब कोई नहीं बचा. कोई उसी समय मारे गये तो एनी कुछ महीनों बाद. वहां के कर्मचारियों के परिवारों को प्रिपीयात शहर से बाहर ले जाते समय अधिकारियों ने कहा था कि ज्यादा सामान ले जाने की जरुरत नहीं, क्योंकि जल्द ही वापस आजाना है. यह झूठ नहीं कहने से अच्छा होता. आम लोगों को संकट की भयावहता के बारे में बताना जरुरी था. " वे सभी दस साल बाद १९९६ में ही वापस आ सके , जो बचे रह गये थे.

राष्ट्र संघ के चेर्नबिल फोरम के अनुसार २८ अग्निशमन कर्मचारियों के अलावा ६०० लोगों की मृत्यु उसी समय हो गयी थी. इसके बाद भी इस दुर्घटना से लोगों का मरना जारी रहा. छः लाख से ज्यादा लोगों पर रेडिएशन का दुष्प्रभाव पडा. कम से कम चार हजार लोगों की मृत्यु थायरायड कैंसर से हुई और हो सकती है. लोगों के दिमाग और मानसिकता पर चेर्नबिल का बहुत ही गभीर प्रभाव पड़ा. इससे एक नयी चेतना का विकास आरम्भ हुआ. विटाली कनोनौव के इस मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से अनेक लोग सहमत नहीं होने के बावजूद यह बड़े हद तक सच है. क्योंकि इसके बाद से ही यूरोप में पर्यावरण आन्दोलन का आरम्भ हुआ, जिसे वहां ग्रीन आन्दोलन कहा जाता है.

इतना ही
नहीं, इसके बाद से सोवियत संघ के पतन की भी शुरुआत हुई. उसके पतन के और भी कई प्रमुख कारण हैं, जिन पर काफी चर्चा हो चुकी है और आगे भी होगी, मगर कनोनौव के विश्लेषण को भी नकारा नहीं जा सकता. यहाँ इस बहस का प्रारम्भ करना प्रासंगिक होगा कि सोवियत संघ ने मानवता और इस सृष्टि की रक्षा में खुद की बलि चढ़ा दी. यह काम अमेरिका जैसा कोई साम्राज्यवादी-पूंजीवादी देश नहीं कर सकता. हालाँकि सोवियत संघ के पतन के अन्य राजनीतिक-आर्थिक कारण भी हैं. फिलहाल, यह अलग लम्बी बहस का मुद्दा है.

विटाली कनोनौव कहते हैं कि "तबसे ही हमारे यहाँ सब्ज आन्दोलन शुरू हुआ. उससे विभिन्न संस्थाओं का जन्म हुआ, कम्युनिष्ट पार्टी के साथ मिल-जुल कर. लोगों के बहुत करीब जाकर हमने काम किये. यह काम अनेक दिनों से नहीं हो रहा था. सत्ता में रहते-रहते ऐय्याशी बढ़ गयी थी. सही काम नहीं हो रहा था. लोगों को आतंकित किया जा रहा था. इसीलिए नयी चेतना का उदय हुआ. इस चेतना की उदगम वही चेर्नबिल है. "

लेकिन कम्युनिष्ट होते हुए भी कनोनौव एक बात भूल गये कि वर्ग नजरिये के बिना कोई भी नयी चेतना अपने अंतिम लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाती. इसी कारण उस नयी चेतना का इस्तेमाल करके साम्राज्यवादी देश पूर्व सोवियत देशों सहित विश्व में अपना एजेंडा लागू करने के षड्यंत्र में व्यस्त हैं. ग्लोबल वार्मिंग के मामले में भी ये देश अपने स्वार्थों को सर्वोपरी रख कर अपनी मनमानी चलाने के प्रयास में लगे हुए हैं.


इसीलिए कनोनौव भी स्वीकार करते हैं कि यूरोप की संसदों में सब्ज आन्दोलन के प्रतिनिधियों की भरमार के बावजूद अमेरिका-यूरोप सहित अन्य पूंजीवादी देशों को होश नहीं आया है. इसीलिए भी इतनी बड़ी दुर्घटना के बावजूद चेर्नबिल संयंत्र को बंद करते चार-पांच साल लग गये थे. उनके अनुसार अभी भी कोयला-गैस या फौसिल फ्युएल की तुलना में परमाणु ऊर्जा को कहीं अधिक सुरक्षित माना जा रहा है, यह सच नहीं है, चेर्नबिल से सबक लेनी चाहिए.भारत की सरकार तो ऎसी कोई सबक लेने से रही, लेकिन आम लोग अगर इससे सबक ले लें तो वे ऎसी मानवता-विरोधी सरकारों को सबक जरुर सीखा सकते हैं. .(समाप्त)