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बुधवार, 28 सितंबर 2011

न्यूट्रिनो की खोज में पिछड़ता भारत

केंद्र सरकार की लापरवाही

न्यूट्रिनो की खोज में पिछड़ता भारत

किरण पटनायक

भारत सरकार की लापरवाही और पर्यावरणवादियों की उनुचित जिद के कारण ब्रह्मांड में सरपट दौड़ती न्यूट्रिनों की खोज में अग्रणी रहा भारत पिछड़ता जा रहा है। पिछले ढ़ाई वर्षों से केंद्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय को कारण जहां इंडिया बेस्ड न्यूट्रिनो ऑब्जवेटरी (आईएनओ) का कार्यान्वयन अधर में लटका हुआ है, वहीं पिछले बीस वर्षों से भारत सरकार की अदूरदर्शिता तथा लापरवांी की वजह से न्यूट्रिनो की शिनाख्त के शोध कार्य में अगुवा रहने के बावजूद भारत बहुत पिछड़ गया।

हालांकि 1930 में ही एक ऑस्ट्रियाई वैज्ञानिक होल्फगॉन्ग पॉली ने न्यूट्रिनो नामक एक घोस्ट पार्टिकल्स यानि भूतिया कण के अस्तित्व का अनुमान लगा लिया था, मगर इसकी शिनाख्त सबसे पहले भारत के कर्नाटक स्थित कोलार के सोने की खदान में ही हुई। ऐसा दावा है टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) के वैज्ञानिक नवकुमार मंडल का। नवकुमार आईएनओ के एक प्रमुख वैज्ञानिक हैं। 1950 के दशक में ही महान वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने अपने अ‍धीनस्थ शोधकर्ता वीवी श्रीकांतन को कोलार खदान के नीचे शोधकार्य के लिए भेजा। जमीन के नीचे विभिन्न गहराइयों में म्युअन नामक कणों की उपस्थिति किस-किस मात्रा में, इसा मापने का काम उन्हें करना था। कई सालों तक खदान में शोध करने के बाद श्रीकांतन तथा उनके साथियों को पता चला कि जमीन की कई किमी गहराई न्यूट्रिनो पर शोध करने के लिए उत्कृष्ट स्थान है

1965 में वहां न्यूट्रिनो पर अनुसंधान शुरू हुआ। श्रीकांतन, एकजीके मेनन और वीएस नरसिंह्म जैसे भारतीय वैज्ञानिकों के साथ ओसाका विश्वविद्यालय और डरहम विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक भी शामिल हुए। ध्यान रहे कि यहीं ब्रह्मांड में चक्कर लगानेवाले सूक्ष्म न्यूट्रिनो कणों को पहली बार पहचाना गया। इसी बीच जापान और अमेरिका में न्यूट्रिनो अनुसंधान के लिए प्रयोगशालाएं बनीं और वहां के अनुसंधान की सफलता के लिए उन देशों के वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार भी मिले। मगर भारत में क्या हुआ? 25 वर्षों तक अनुसंधान चलने के बाद पैसे और प्रोत्साहन की कमी से उसे बंद कर देना पड़ा। 1990 में कोलार खान बंद हो गया। खान बहुत गहरे खोदा जा चुका था, मगर वहां से सोना की मात्रा बहुत ही कम हो गयी थी। अनुसंधान खर्च उठाना वैज्ञानिकों के लिए संभव नहीं था। और भारत सरकार को इससे कुछ लेना-देना नहीं था। सो भारतीय वैज्ञानिक यूरोप और अमेरिकी की प्रयोगशालाओं की ओर चल पड़े।

विदेश चले तो गए, मगर देशप्रेम उन्हें कोंचता रहा। नवकुमार मंडल कहते हैं कि हममें से कई को बड़ा अफसोस हुआ करता कि परमाणु भौतिक विज्ञान के आधुनितम स्तर के अनुसंधान का जो सुनहरा मौका हमारे देश में बहुत पहले से था, हमने उसका फायदा नहीं उठाया, बल्कि उसे गंवा दिया। इसीलिए साल 2000 में चेन्नई स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ मैथमैटिकल साइंस (आईएमएससी) के विशेषज्ञों के सम्मेलन में इसे फिर से शुरू करने के लिए गंभीर चर्चा हुई। और आखिरकार देश के जानेमाने वैज्ञानिक संस्थानों ने मिलजुल कर इंडिया बेस्ड न्यूट्रिनो ऑब्जरवेटरी बनाना शुरू किया। आईएनओ ने लग-भिड़ कर परमाणु ऊर्जा विभाग, विज्ञान व प्राद्योगिकी मंत्रालय तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्वीकृति पाने के बाद अगस्त 2005 में प्रधानमंत्री की विज्ञान सलाहकार समिति के सामने रिपोर्ट पेश की। इतनी मेहनत-मशक्कत करने के बाद आखिरकार केंद्र सरकार नींद से जगी और योजना आयोग ने 11वीं पंचवर्षीय योजना में आईएनओ के लिए 950 करोड़ रु. आवंटित किया। रुपए आवंटित करने के बाद केंद्र सरकार फिर से गहरी नींद सो गयी।


पैसे की समस्या बड़े हद तक हल हो जाने के बाद अनुसंधान के लिए स्थान चयन की बड़ी समस्या आ खड़ी हुई। न्यूट्रिनो की पहचान करने के लिए आईएनओ बनाया गया, जबकि इसके कणों या अणुओं को पहचानना बहुत ही दुरूह कार्य है। इसकी पहचान करने के लिए सबसे पहले इसे अणुओं की भीड़-भाड़ से अलग करना जरूरी है। धरती की सतह पर अन्य अनेक कणों या अणुओं की इतनी भारी भीड़ होती है कि उसकी शिनाख्त में गड़बड़ी हो ही जाएगी। इसीलिए इस उपकरण को किसी पहाड़ की गहराई में लगाना तय हुआ; जिससे उसके ऊपर चारों अओर से एक किमी से अधिक मोटी चट्टानों की चादर घिरी रहे। इससे अवंछित कण या अणु उस चादर में अटक जाएं।



इसके लिए ऐसे पहाड़ की खोज शुरू हुई, जिसकी चट्टान काफी सख्त हो और जिसमें हजार से डेढ़ हजार मीटर गहराई तक ड्रिल कर प्रयोगशाला स्थापित की जाए। इससे वह सुरक्षित रहेगी और उसके धसने का खतरा नहीं रहेगा। नीगिरि पर्वत श्रृंखला में ऐसा स्थान मिल गया। भू-वैज्ञानिकों की मदद से व्यापक अनुसंधान के बाद आईएनओ ने बंगलुरू से 250 किमी दूर तमिलनाडु के सिंगारा के करीब पहाड़ की चोटी पर 1300 मीटर गहराई में न्यूट्रिनो डिक्टेटर बिठाना तय किया।

उसके बाद शुरू हुआ बाघ बनाम विज्ञान विवाद। वो स्थान नीलगिरि बायोस्फियर रिजर्व का हिस्सा है। यह बाघ और हाथियों का अभयारण्य है। बहरहाल, वहां न्यूट्रिनो डिक्टेटर लगाये जाने से जंगली जानवारों पर बुरा असर पड़ेगा या नहीं; इसके लिए बंगलुरू के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के हाथी विशेषज्ञ रमण सुकुमार से सलाह ली गयी। सुकुमार के अनुसार डिक्टेटर से वन्यप्राणी के जीवन को खतरा नहीं पहुंचनेवाला। लेकिन पर्यावरणवादियों ने उनकी बात नहीं मानी। यहां यह गौरतलब है कि पर्यावरणवादी दो प्रकार के होते हैं। एक जो खुद पर्यावरण वैज्ञानिक हैं। वे पर्यावरण के विनाश और उससे उत्पन्न खतरों से लोगों को अवज्गत कराते हैं। ऐसे लोग शुद्ध रूप से अधिकांशत: पर्यावरणीय चिंता किया करते हैं। दूसरा किस्म पर्यावरण कार्यकर्ताओं का है, जिनके साथ दूसरे प्रकार के स्वार्थ भी जुड़े हो सकते हैं। अनेक पर्यावरणवादी संगठन साम्राज्यवादी पैसों से भी चलाये जा रहे हैं, जो अनेक स्थान पर तिल का ताड़ बना कर राष्ट्रीय हितों के उचित मामलों में भी टांग अड़ाया करते हैं। देखा गया है कि ऐसे अपने पर्यावरणवादी तब चुप्पी साध लेते हैं या औपचारिक विरोध के बाद शांत हो जाते हैं; जब कृषि भूमि पर महापूंजी के सेज सजाये जाते हैं या जंगलों-पहाड़ों का पूरी तरह से नाश करके बड़ी-बड़ी कंपिनयोंद्वारा खनिज पदार्थों का दोहन किया जाता है।

2006 में आईएनओ द्वारा आवेदन किया गया था। मगर वर्षों बीत जाने के बाद भी मंजूरी नहीं मिली। विश्व के कई बड़े वैज्ञानिकों ने भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इसके लिए मंजूरी देने का अनुरोध किया। मगर अमेरिका की सेवा में व्यस्त मनमोहन सिंह ने इसे खास तवज्जो नहीं दिया। भारतीय ‍वैज्ञानिक तो लगभग निराश ही हो चले थे। बड़े पूंजीपतियों तथा व्यापारियों को लालफीता शाही की जकड़ से मुक्त करने के लिए मनमोहन सरकार उदार से उदारतर होती जा रही है, लेकिन हैरानी की बात यह है कि भारत के गर्व विज्ञान अनुसंधान को इस लालफीता शाही से मुक्त करना उसके वश में नहीं!

बहरहाल, वैज्ञानिकों की काफी कोशिश के बाद केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने सिंगारा क्षेत्र का दौरा किया। उन्होंने खुद को भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान का बड़ा समर्थक बताते हुए कहा कि अनुसंधानकर्ताओं को निरूत्साहित करने के लिए वे कोई काम नहीं करेंगे। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि फैसला लेने में उन्हें ढाई साल लग गए। और फैसला भी क्या लिया गया? सिंगारा पहाड़ पर न्यूट्रिनो डिटेक्टर लगाने की अनुमति नहीं दी गयी। मदुरई के करीब सुरीलिया पहाड़ पर उसे लगाने का सुझाव दिया गया। तमिलनाडु के ठेणी जिले के सुरूली जलप्रपात क्षेत्र में यह पहाड़ है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह क्षेत्र भी सुरक्षित है। यहां हजारों पेड़ काटने पड़ेंगे, जबकि सिंगारा में पेड़ काटने की जरूरत नहीं। पर्यावरण की चिंता में दुबले हो रहे पर्यावरवादियों ने इससे जुड़ी इस अहम तथ्य पर गौर ही नहीं किया।

जयराम रमेश को समझना जरूरी है कि बीटी बैंगन या शरद पवार जैसे ओछे कृषिमंत्री की विदेशी कंपिनयों की दलाली से जुड़ा यह मामला नहीं है। यह ब्रह्मांड के रहस्यों को जानने जैसे मानव जाति के सबसे अहम कर्तव्य से जुड़ा विषय है, जिसमें भारत ने भी झंडे गाड़ने आरंभ कर दिए हैं। चांद पर पानी को खोज में भारत की सफलता और चांद पर मानव उपनिवेश बनाने के भारतीय प्रयास जैसा ही (या उससे भी कहीं अधिक गंभीर) एक प्रयास है न्यूट्रिनो को जानना-पहचानना। भारत के विभिन्न राज्यों में महाविनाशकारी परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाने का विरोध करते नहीं दिखते जयराम रमेश। लेकिन भारतीय वैज्ञानिकों के देशभक्तिपूर्ण पहलकदमी पर रोड़े जरूर अटकाये जा रहे हैं! यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।

भारतीय वैज्ञानिकों का मानना है कि सुरूलिया पहाड़ की चट्टाने अनुसंधान के लिए उतनी अच्छी नहीं है, जितनी की सिंगारा की। संबंधित वैज्ञानिक सख्त नाराज हैं। फिर भी उनका कहना है कि लेकिन किया भी क्या जा सकता है। हमें वहां डिटेक्टर लगाने का काम शुरू करना ही पड़ेगा।

आखिर है क्या न्यूट्रिनो?

यह एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणु है। प्रकाश कण फोटोन भारहीन होते हैं। ऊन्हें छोड़ दिया जाए तो न्यूट्रिनो ब्रह्मांड के सभी अणुओं में सबसे हल्का होता है। परमाणु कण इलेक्ट्रॉन का भार एक मिलीग्राम के 1,000,000,000,000,000,000,000,000 (एक के पीछे 24 शून्य) भाग का एक भाग होता है। जबकि न्यूट्रिनो उस इलेक्ट्रॉन की तुलना में पांच लाख गुना हल्का होता है।


इसकी गति इतनी तेज होती है कि हर पल, पल भर में ही इसके अरबों-खरबों कण हमारे शरीर को पार करते हुए ब्रह्मांड की सैर को निकल जाते हैं। इनके लिए हमारे शरीर का मानो कोई अस्तित्व ही न हो। हर पल ऐसा खरबों (लगभग पांच खरब) न्यूट्रिनो कण हमारे शरीर के प्रतिवर्ग सेंटीमीटर हिस्से में प्रवेश कर पल भर में शरीर के दूसरी ओर से किसी तीर की तरह निकल जाया करते हैं। ये तीर इतने सूक्ष्म हैं और इनमें इतना अधिक वेग होता है कि हमें इनके आने-जाने का कुछ पता ही नहीं चलता।


इन तीरों से हम आहत भी नहीं होते। जिन साधारण तीरों के लगने से प्राणी घायल होता है या उसकी जान चली जाती है, वो तीर हाड़-मांस भेद कर ज्यादा दूर नहीं जा पाते। किसी भी गतिशील पदार्थ में ऊर्जा होती है। उन तीरों में भी होती है। भेदते समय तीर वो ऊर्जा प्राणी के शरीर में जमा कर देते हैं। इससे शरीर को चोट लगती है। और उस कारण उसकी अनुभूति होती है। लेकिन न्यूट्रिनो के तीर लगभग प्रकाश की गति से सरपट दौड़ लगाते हुए समान गति से हमारे शरीर को पार कर जाते हैं, इसी कारण हमारे शरीर में जरा भी ऊर्जा जमा नहीं कर पाते। हाड़-मांस में कहीं अटक जाने से ही तो ऊर्जा जमा होगी। मानव शरीर अणु-परमाणुओं का एक पहाड़ है। उसे भेद कर बाहर निकल जाने की क्षमता साधारण तीरों की नहीं होती। लेकिन न्यूट्रिनो नामक तीर कितने सूक्ष्म होते हैं, यह ऊपर बताया जा चुका है।


लेकिन बात ऐसी नहीं है कि हल्का होने के कारण ही न्यूट्रिनो मानव शरीर में नहीं अटक पाते। एक्स-रे या गामा-रे तो भारहीन प्रकाश कण फोटोन के स्रोत हैं। फिर भी प्राणियों के हाड़-मांस को नुकसान पहुंचाने में सक्षम हैं। क्योंकि उस प्रकार के फोटोन हाड़-मांस के अणुओं के साथ कोई-न-कोई प्रतिक्रिया करते हैं। इसलिए शरीर को नुकसान पहुंचता है।


आमलोग अपने चारों ओर विभिन्न प्रकार की घटनाएं देखा करते हैं। वैज्ञानिक इन सबके पीछे विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रिया अथवा बल का खेल देखते हैं। इस ब्रह्मांड में चार प्रकार के बल होते हैं। ब्रह्मांड में चाहे जितनी भी घटनाएं घट रही हों, वैज्ञानिकों के अनुसार वे चार में से किसी एक बल के कारण हो रही हैं। पेड़ के सेव को गुरुत्वाकर्षण शक्ति या बल जमीन पर ले आता है। चुबंकीय व विद्युतीय शक्ति की मिली-जुली क्रिया से जीव-जंतु भोजन से पुष्टि ग्रहण करते हैं। बहुत ही शक्तिशाली स्ट्रांग फोर्स या दृढ़ बल के प्रभाव से किसी भी पदार्थ के परमाणु के केंद्र में अनेकानेक प्रोटोन तथा न्यूट्रोन दृढ़ता से बंधे होते हैं।


न्यूट्रिनो इन तीन बलों में से किसी से भी चालित नहीं होता। प्रकृति में विद्यमान चौथे बल की क्रिया से ही यह चलायमान है। यह बल उतनी ताकतवर नहीं होने के कारण ही इसे मृदु बल या वीक फोर्स कहा गया। यह बल सिर्फ रेडियोए‍क्टिविटी या तेजस्क्रियता पैदा करता है। जब परमाणु केंद्र या न्यूक्लियस से इलेक्ट्रोन कण निकलते हैं। वैसे यह मामला बहुत स्वाभाविक नहीं हैँ, यह आसानी से घटित नहीं होता। मृदु बल की क्रिया विरल होने से ही किसी भी पदार्थ से उस तरह की रेडियोएक्टिविटी नहीं निकलती और न्यूट्रिनो इस तरह के मृदु बल के अलावा और किसी बल से प्रभावित नहीं होता, इसीलिए अरबों-खरबों की संख्या में हमारे शरीर को पार कर जाने के बावजूद उससे कोई क्षति नहीं होती।


जब आप यह रिपोर्ट पढ़ रहे होंगे, तब भी न्यूट्रिनो के कण आपके सिर से प्रवेश कर तालू की ओर से बाहर आकर सौ मंजिली इमारत के नीचे पृथ्वी को भेद कर अमेरिका होते हुए ब्रह्मांड की सीमा के सैर के लिए निकल जा रहे होंगे। यहां खासतौर पर ध्‍यान देने की बात यह भी है कि अब तक ब्रह्मांड के ओर-छोर का कोई पता नहीं चल पाया है। अंधविश्वासियों का मानान है कि ब्रह्मांड का कोई आदि-अंत नहीं। जबकि वैज्ञानिकों की राय में कभी-न-कभी इस ब्रह्मांड का आरंभ हुआ और कहीं-न-कहीं कोई अंत भी है। बिग बैंग का सिद्धांत इसी अओर इशारा करता है। अरबों साल पहले हमरा यह ब्रह्मांड ठीक ऐसा ही नहीं रहा होगा। यह इससे बहुत ही छोटा होगा। यह लगातार फैलता जा रहा है। अर्थात् असीम और अनंत के अंधविश्वास का खंडन हो जाता है। बिगबैन सिद्धांत के पहले से भी अनेक भौतिकवादियों ने इस आदि-अनंत के विश्वास को चुनौती दी थी। बौद्धिक, तार्किक तथा वैज्ञानिक सोच के कारण ही आज मनुष्य ब्रह्मांड की खोज करने में थोड़ा-बहुत सक्षम हो पाया है। वरना, किसी पेड़ के नीचे बैठकर ब्रह्मांड के अंतिम सत्य को पा जानेवालों की कोई कमी नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि न्यूट्रिनो के पदचिह्नों को पहचानने से ब्रह्मांड के गभीर रहस्यों से पर्दा हटाने के काम में मानव जाति एक कदम आगे बढ़ सकती है। यही वो कण है जो बेरोक-टोक पूरे ब्रह्मांड (ब्रह्मांड के ओर-छोर) का भ्रमण कर रहे हैं। इससे अनुसंधान के अगले चरणों में ब्रह्मांड के किसी रहस्य का पता चल सकता है। ऐसे में, भारतीय वैज्ञानिकों की इस पहलकदमी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, न कि इस या उस बहाने उनके रास्ते पर रोड़े अटकाने का काम। यह भी ध्यान रहे कि ज्यादातर वैज्ञानिक देशभक्त हैं, वरना ये लाखों डॉलर के लिए अमेरिकी, यूरोप, जापान की चाकरी कर सकते थे।

बहरहाल, न्यूट्रिनो की इस गतिविधि के कारण ही इसे घोस्ट पार्टिकल्स या भूतिहा कण कहा गया। यह नामकरण गलत है, क्योंकि भूत-प्रेत काल्पनिक हैं, जबकि न्यूट्रिनो वास्तविक। वैज्ञानिकों का मानना है कि बिग बैंग से ब्रह्मांड की उत्पत्ति होने के बाद ही न्यूट्रिनो पैदा हुए। इसके अलावा सूर्य या अन्य ताराकुंड में ये जन्म लेते हैं। उम्र समाप्त होने पर जब विस्फोट के साथ तारा अपना अस्तित्व खोता है, तब बड़ी मात्रा में न्यूट्रिनो फैल जाया करते हैं। परमाणु ऊर्जा संयंत्र से बिजली पैदा करने के समय भी न्यूट्रिनो बाहर आते हैं। वैज्ञानिकों के हिसाब से सभी स्रोतों से इतने अधिक न्यूट्रिनो निकलते हैं कि ब्रह्मांड में सर्वत्र एक घन मीटर आयतन में तैंतीस करोड़ न्यूट्रिनो कण पाये जाते हैं। हमरे चारों ओर इतने कण भरे पड़े हैं, उनमें से ऐकाध के पदचिह्न की ‍शिनाख्त करने के लिए दुनिया भर में वैज्ञानिक अनेक देशों में साधना रत हैं।


भारत सरकार की उदासीनता के कारण पिछड़ गए भारतीय वैज्ञानिक भी इस अभियान में एक बार फिर से जुटने के लिए बेकरार हैं। इसीलिए आईएनओ की नींव डाली गयी। लेकिन केंद्र सरकार की लापरवाही के कारण देर पर देर होती जा रही है। वैज्ञानिक जहां कहे वहीं यह प्रयोगशाला लगायी जानी चाहिए। पर्यावरण की चिंता करनेवाले मंत्रियों और अन्य लोगों को उन क्षेत्रों में अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए, जिनकी वजह से सबसे अधिक प्रदूषण पैदा हो रहा है। मसलन; परमाणु ऊर्जा संयंत्रों पर रोक लगाना, कार उद्योगों पर लगाम लगाना, सौर ऊर्जा सहित सुरक्षित ऊर्जा विकल्पों पर जोर देना, कृषि भूमि-वनभूमि पर निजी सरकारी उद्योगों पर पूरी रोक, नदी-नालों को गंदा करनेवाली फैक्ट्रियों पर कड़ी कार्रवाई, सिगरेट उद्योग पर पाबंदी, भवनों-शहरों के चारों ओर लाखों पेड़ लगाने और उनके संरक्षण को कड़ाई से पालन करवाने आदि के जरिए पर्यवरण की सुरक्षा की जा सकती है। इसके लिए ब्रह्मांड के रहस्यों की खोज के काम को बलि का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए। (समाप्त) (यह लेख कोई दो साल पहले लिखा गया था.. जल्द ही ताजा लेख भी पेश किया जाएगा.).

2 टिप्‍पणियां:

  1. बोहत अच्छा लेख है किरण जी इसको पढ़ कर मन खुश भी हुआ और दुखी भी, खुश्ही इस बात की है की ब्रह्माण्ड के रहस्यों की जानकारी सबसे पहले हमरी देश के विज्ञानिक लगा रहे है मगर दुःख इस बात का है की उनको सही प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा, हमारा भरष्ट तंत्र इनको सही सहयोग नहीं दे रहा और अफ़सोस की बात यह है की हम भी उस्सी तंत्र का हिस्सा है और चाह कर भी कोई चेष्ठा नहीं कर सकते.....अंत मैं जो अपने पर्यावरण सभ्न्धी तर्क दियें है वोह कबीले तारीफ है .....अप्प को बोहत -२ शुभ कामनाएं ............जय हिंद

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  2. धन्यवाद हेमंत जी. इस प्रोत्साहन से मैं शायद और भी कुछ अच्छे लेख आपलोगों के लिए पेश कर सकूँ.

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