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सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

माओवादियों जितनी "सफलता" भी नहीं मिलनी अरविन्द टीम को

अन्ना आंदोलन ही है एकमात्र विकल्प. इससे ही निकल पाएगा कोई स्वस्थ-सशक्त विकल्प. इस आंदोलन में फूट डालने वालों को "सफलता" नहीं मिल सकती!!  इस ऐतिहासिक आंदोलन को खत्म करने की  साज़िश में लगे  दलों  और नेताओं  का दरअसल कोई भविष्य नहीं!!


१.       इसमें कोई शक नहीं कि मौजूदा राजनीतिक दल अधिकांशतः सड़ चुके हैं. स्थिर पानी की तरह इनमें अनेक प्रकार के विषाणुओं का जन्म हो चुका है. जो अब इतनी जड़ जमा चुके कि उनके खात्मे के लिए किसी बहुत बड़े ऑपरेशन की सख्त ज़रूरत है.

२. न सिर्फ कांग्रेस-भाजपा-मुलायम-लालू-पवार-ठाकरे-अकाली-फारुख-करुणा-जयललिता-नवीन-नितीश-माया जैसे दक्षिणपंथी दलों में ये सडन देखी जा रही, बल्कि अनेक वाम दलों में एक बड़े हद तक यथास्थितिवादी प्रवृत्ति ने जड़ जमा ली है. और, यथास्थितिवाद जब जड़ जमा ले तो उस दल या सरकार या व्यवस्था का सड़ना लाजिमी है. ये हाल सीपीएम, सीपीआई, आर एस पी, फारवर्ड ब्लॉक, लाल निशान पार्टी, कृषक-कामगार पार्टी आदि का है.

सीपीआई-एमएल, एसयूसीआई जैसे दल फिलहाल उतने सड़े-गले नहीं माने जा रहे, मगर इनमें भी एक तरह का ठहराव देखा जा रहा. इतने वर्षों में ये दल न तो देश भर में फ़ैल पाए और न ही दो-चार राज्यों में कब्जा कर पाने की स्थिति में हैं. जुझारू आंदोलनों के बावजूद विभिन्न कारणों से इनका विस्तार नहीं हो पा रहा. (इनपे बाद में विस्तार से कभी होगी चर्चा. फिलहाल, इस आलेख का उद्देश्य अलग है.). 

जहाँ तक ममता बनर्जी की बात है तो वे
मध्यमार्गी दिखती हैं. मगर, असल  में, मध्यमार्गी कोई होता नहीं. जो मध्यमार्गी लगता है, या खुद के लिए ऐसा दावा करता है, वो मूलतः दक्षिणपंथी ही होता. सो, ममता के तमाम आंदोलनकारी तेवरों के बावजूद उनसे भी किसी आमूल चूल परिवर्तन की उम्मीद रखना बेकार ही होगा. जन लोकपाल, जन लोकायुक्त मुद्दों पे उनका रवैया भाजपा, कांग्रेस, मुलायम आदि जैसा ही है.

३. यानि, इस वक्त देश में स्वस्थ-स्वच्छ-क्रांतिकारी दल या दलों का भारी अकाल-सा दिख रहा.  जो कि  बिल्कुल सही दिख रहा. एक वैक्यूम
एक शून्य बना हुआ है. मोटे तौर पर आम जनता  इन सभी दलों की सामूहिक बंधुआगिरी में फंसी दिख रही. इन दलों के चंगुल में फंसी जनता छटपटा रही. चंगुल से निकलने के लिए बेचैन है.

ऐसे वक्त कोई बहुत सारे क्रांतिकारी नारे लगाते हुए कोई जत्था वैकल्पिक दल बनाने चला आये, तो आम जनता उसका स्वागत ही करेगी. इसमें भी कोई शक नहीं. डूबते हुए को एक आस बंधेगी. लेकिन, देखने की बात ये है कि क्या वो जत्था सचमुच में देश को (किसी एक क्षेत्र या छोटे से प्रान्त को नहीं) स्वस्थ-सशक्त विकल्प देने लायक है भी या नहीं.

वर्तमान समय में एक जत्था (अरविन्द केजरीवाल टीम) कुछ इसी तरह के नारे देके आम जनता को एक राष्ट्रीय विकल्प देने की लगातार घोषणा कर रहा है. जिसे कुछ लोगों ने समर्थन भी देना शुरू कर दिया है. और, अनेक लोग ऊहापोह की हालत में हैं. यहां हम कांग्रेसी-भाजपाई आदि दलों से जुड़े लोगों की बात कत्तई नहीं कर रहे. यहां शुद्ध रूप से उस
आम जनता की बात हो रही, जो कि एक स्वस्थ-नया-क्रांतिकारी विकल्प चाहती है.

मुझ सहित अनेक
आम जनता का इस जत्थे के क्रांतिकारी घोषणाओं  व नारों पे यकीन नहीं. क्यों? इस बारे में मैंने तथा अनेक लोगों ने पहले भी कई बार इसके कारण बताए हैं. जिन्हें देखने के बावजूद इसपे ध्यान देना इस जत्थे ने बिल्कुल ही जरुरी नहीं समझा. मेरी बातों पे ध्यान नहीं दिया, तो नहीं दिया, उसका मलाल नहीं. मगर, इस जत्थे ने उस व्यक्ति के सुझावों को भी सिरे से नहीं माना, जिनके नाम व आदर्शों की बात करके ये वैकल्पिक दल बनाने जा रहा. उस व्यक्ति का नाम है अन्ना हजारे. अन्ना ने अनेक सुझावों के साथ-साथ कुछ बेहद जरुरी सवाल भी पूछे हैं, उनका जवाब भी इसने नहीं दिया. इससे ये साफ़ हो जाता है कि ये  जत्था  असल में कोई स्वस्थ-सशक्त राष्ट्रीय विकल्प देने के बजाय कुछ और एजेंडे पे काम कर रहा है. (अन्ना के सुझाव और उनके जरुरी सवाल भी अनेक बार पेश किये जा चुके हैं. जिन्हें वो सब देखना हो, वे अन्ना के ५-६ अगस्त के ब्लॉग देख लें).

इस जत्थे पे यकीन नहीं करने की मात्र इतनी ही वजह नहीं है, बल्कि और भी कई कारण हैं... सबसे बड़ा कारण तो ये है कि इसका चरित्र शुद्ध रूप से मध्यवर्गीय है. और, मध्य वर्ग के अनेक लोगों ने भले ही अनेक आंदोलनों और  क्रांतियों की अगुआई की हो, मगर मध्य वर्ग ने कभी भी कोई व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को उसके लक्ष्य तक नहीं पहुंचाया. बल्कि, चरित्र से बहुत ही अस्थिर और घोर सुविधावादी होने के कारण इसने अनेक गम्भीर आंदोलनों व क्रांतियों के साथ दगेबाजी ही की है. और, यह जत्था
विकल्प दल बना ही रहा है दगेबाजी व अस्थिर चरित्र की बुनियाद पे. (इसपे भी मैंने कई बार लिखा है, ट्विटर में, फेसबुक में और अपने ब्लॉग में भी. सो, इसे और लंबा नहीं किया जा रहा फिलहाल).

यहां माओवादियों का जिक्र करना प्रासंगिक होगा. माओवादी खुद को दुनिया के सबसे बड़े क्रांतिकारी बताते नहीं थकते. जबकि बात ऐसी है नहीं. आदिवासी-जंगल-ग्रामीण क्षेत्रों में उन्होंने बहुत सारे आंदोलन चलाये थे कभी..नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान.. मगर, अब वे बस बन्दूकबाज भर बनके रह गए हैं, जिनका लक्ष्य सत्ता पे क्रांतिकारी कब्जा करना तो है, मगर रास्ता गलत चुन लिया है.
 साथ ही,  वे महज जंगलों को ही भारत मान रहे. भारत की केंद्रीय सत्ता पे काबिज होने के घोषित लक्ष्य के बावजूद असल में उनकी ऐसी कोई इच्छा और वैसी कार्रवाई दिख नहीं रही. ऐसे में, अनेक लोगों का यह मानना सही लगता कि दरअसल  केन्द्रीय सत्ता को हटाने में उनकी कोई दिलचस्पी है ही नहीं.

अब आएं इन तथाकथित नये
क्रांतिकारियों पे. अरविन्द टीम भी खुद को कम से कम भारत का सबसे क्रांतिकारी जत्था बता रही, जबकि यहाँ भी बात ऐसी नहीं. पुराने नक्सलो  और नये माओवादियों ने गांवों-जंगलों-कस्बों में ही सही, अनेक जन आंदोलन चलाये, और एक हद तक अब भी चला रहे. भले ही उनका रास्ता बंदूक की नली से निकलता है. जबकि अरविन्द टीम के पास उस तरह के किसी भी आंदोलन का कोई अनुभव है ही नहीं. (उस तरह के आन्दोलन का मतलब बन्दूकबाजी से नहीं है, बल्कि ग्रामीण तथा आम जनता के आंदोलन से है.). अरविन्द टीम के पास मेधा पाटकर, ममता बनर्जी, विभिन्न ट्रेड यूनियनों, विभिन्न खेत मजदूर संगठनों, किसान आंदोलनों, झोपड़पट्टी निवासी आंदोलनों आदि का भी कोई अनुभव नहीं है.

अन्ना हजारे के साथ जुड़ने के बाद ही थोड़ा-बहुत आंदोलन का अनुभव मिलना शुरू हुआ. उससे पहले  ये लोग बड़े हद तक एनजीओ कर्मी या समाज सेवी के रूप में ही जाने जाते रहे. आरटीआई से नाता होने के बावजूद जन आंदोलनों का खास अनुभव नहीं. अन्ना के साथ आने के बाद भी इन्होने अन्ना के पूरे संग्राम से खुद को जोड़ना जरुरी नहीं समझा, वरना शांतिपूर्ण आंदोलनों के साथ-साथ ग्रामीण विकास के अन्ना के व्यावहारिक सिद्धांत को समझ जाते. भारत को समझ जाते. असली भारत को.
लेकिन, इनका मकसद तो कुछ और ही था. सो, इन्होने अन्ना आन्दोलन जैसे एक ऐतिहासिक आंदोलन के साथ सरासर गद्दारी की. इसपे मैंने और अनेक लोगों ने काफी कुछ लिखा और कहा है. (कुछ लिंक नीचे दे दिये जा रहे हैं, ताकि दो माह पुरानी बातें जो जानना चाहे, जान सकेंगे.)

बहरहाल, अरविन्द टीम माओवादियों की तरह हिंसक रास्ते तो नहीं चल रही, न ही इन्हें चलना है; लेकिन इनका इरादा भी दरअसल केंद्रीय सत्ता पे काबिज होने का कत्तई नहीं.
ये भी किसी तरह बस इस संसदीय राजनीति में अपने लिए थोड़ी-सी जगह बना लेने भर के लिए इतनी
राजनीति कर रहे. ये बात मैं कोई हवा में नहीं लिख रहा. बल्कि खुद अरविन्द टीम की लगभग हर गतिविधि, बयान, भाषण, नारे, आदि इस बात  के गवाह हैं, जिन्हें मैं अक्सर ही अपने ट्वीट्स और फेसबुक में बताता रहता हूं. अन्ना का सुझाव न मानना और अन्ना के सवालों के जवाब न देना भी इस बात का ही सबूत है कि इनका असल मकसद कुछ और है. भले ही ये कितने ही क्रांतिकारी नारे देते रहें, और भले ही ये कितने ही जुझारू दिखने वाले छोटे-मोटे आंदोलन चलाते रहें. (इन छोटे-मोटे कस्बाई किस्म के आंदोलनों को सिर्फ और सिर्फ दलाल मीडिया के कारण इतना प्रचार मिल रहा. वरना, इससे सौ गुना बड़े आंदोलनों को भी ये दलाल मीडिया घास नहीं डालती, नहीं डाल रही. जन-सत्याग्रह-२०१२ का वो लॉन्ग मार्च इसका एक ज्वलंत मिसाल है. तो दलाल मीडिया अरविन्द के कस्बाई किस्म के आंदोलन को राष्ट्रीय क्यों बना रही? इसपे सभी लोग गंभीरता से विचार करें तो बात समझ में आ जाएगी.).

माओवादियों को जंगल में ही रहने का शौक  है तो अरविन्द टीम को बड़े नगरों में ही पूरा भारत दिख रहा. वो भी एक-दो-तीन या चार स्थानों में. और, अभी तो बस दिल्ली महानगरीय छोटे-से राज्य में. अगर ये सचमुच में पूरे देश के बारे में सोच रहे होते तो अन्ना के सुझावों को तुरंत मान लिया होता. यानि, शहरों सहित गांवों में भी ये अन्ना आंदोलन यानि जनलोकपाल आन्दोलन यानि चुनावसुधार आंदोलन, महंगाई विरोधी आंदोलन, बेरोजगारी विरोधी आंदोलन, ग्रामसुधार आन्दोलन ले जाते. लेकिन, इन्होने तो पहले से ही किसी गुप्त कमरे में बैठ कर अपने दो-चार लोगों के साथ कुछ और ही फैसला कर लिया था. इसीलिए अन्ना के सारे सुझावों को ताक पे रख दिया गया, अन्ना के जरुरी सवालों की ओर देखना तक जरुरी नहीं समझा.

हालांकि, माओवादियों को जितने बड़े इलाके में जितनी भी "सफलता" मिली है, उसका एक चौथाई भी अरविन्द की टीम को नहीं मिलने वाला. क्योंकि, इस टीम की बुनियाद ही गलत है. माओवादियों (पुराने नक्सल) की बुनियाद एक ठोस सिद्धांत पे पड़ी थी, जबकि अरविन्द टीम के दल की नीव में अति-महत्वाकांक्षा, विश्वासघात, अहंकार, झूठ-फरेब है.
दिल्ली में भी जो आंदोलन चल रहा है, उसका मकसद कोई क्रांति करना नहीं है. वो साफ़ तौर  पे एक चुनावी अभियान है. संसदीय कम्युनिस्टों ने इससे भी बड़े बड़े जुझारू आन्दोलन न जाने कितने चलाये हैं. अब वे भी इस तरह के आंदोलन छिटपुट ही चलाया करते हैं. जब चलाते हैं तो उसे मीडिया में जगह नहीं मिलती, इसीलिए वो स्थानीय आंदोलन बनके ही रह जाते हैं. दिल्ली जैसे महानगर में अब काफी समय से कोई जुझारू आंदोलन चला नहीं. एक-दो दिवसीय विरोध प्रदर्शन भर ही चलते रहे. ऐसे वक्त कोई छोटा-मोटा भी जुझारू आंदोलन चलता है तो वो लोगों का ध्यान आकर्षित करेगा ही. क्योंकि आम जनता की हालत बद से बदतर  होती जा रही है. इसीलिए भी दिल्ली में अरविन्द टीम को थोड़ी लोकप्रियता मिलने लगी है. और, बाकी जगह के लिए दलाल मीडिया अपने काम कर ही रहा. लेकिन, मीडिया से कभी भी कोई क्रांति नहीं हो सकती, न ही कोई क्रांतिकारी दल बन सकता. वैसे मीडिया की भूमिका से इंकार नहीं. मगर, इस कस्बाई किस्म के आंदोलन को दलाल मीडिया द्वारा राष्ट्रीय रूप देने की क्या वजह है, ये सोचने की बात है, इसपे ऊपर लिख चुका.

अरविन्द टीम के इस चुनावी आंदोलन से उसे कुछ वोट मिल भी जाएँ या कुछ सीट भी मिल जाएँ तो राष्ट्रीय स्तर पे क्या फर्क पड़ने वाला है? इनकी पार्टी महाराष्ट्र की किसी रिपब्लिकन पार्टी या कृषक-श्रमिक पार्टी या बंगाल-त्रिपुरा-केरल की आरएसपी या फारवर्ड ब्लॉक की तरह दो-चार कोने में पड़ी अपनी जिंदगी काट रही होगी, उससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकती ये पार्टी.

(ऐसे वक्त कोई नया राष्ट्रीय स्तर का स्वस्थ-सशक्त दल बनता है, तो आम जनता उसका स्वागत करेगी. अन्ना आंदोलन के पूरे दौरान हम लोग खुद ही एक नया विकल्प दल देने की मांग लगातार करते रहे हैं. अन्ना से भी और बाबा रामदेव से भी. और अन्ना-बाबा दोनों से भी. क्योंकि, इनके अलावा और कोई तीसरा दिख नहीं रहा. बाबा ने अलग विकल्प दल बनाने की योजना बना भी ली थी. बाद में, उन्होंने न जाने किस कारण उसे स्थगित कर दिया. जबकि बिल्कुल ही नहीं मानने वाले अन्ना बाद में मान गए. लेकिन, वे विकल्प देने के लिए सशर्त राजी हुए. मगर, अरविन्द टीम ने अन्ना के सुझावों को माने बिना ही बड़ी हडबडी में अपना दल बनाना शुरू किया. ऐसे दल का कोई भविष्य नहीं. ये तय बात है. क्यों तय बात है, इसपे भी मैंने अनेक बार ट्विटर और फेसबुक में लिखा है. बाद में उन बातों  को फिर से एक लेख में रखूंगा... इसके अलावा इस दल की सिद्धांतविहीनता पे भी एक लेख लिखना है....  फिलहाल इतना ही.)

अन्ना आंदोलन की आत्म-आलोचना:
http://kiranshankarpatnaik.blogspot.in/2012/08/blog-post.html



8 टिप्‍पणियां:

  1. "इस वक्त कोई नया राष्ट्रीय स्तर का स्वस्थ-सशक्त दल बनता है, तो आम जनता उसका स्वागत करेगी." ... अंत में लिखे इस कथन से यही उभर कर आ रहा है कि, ईमानदार नेताओं के अकाल से जूझ रहे इस देश में, आने वाले समय में कई दूसरे अति-उत्साही गुट भी तथाकथित क्रांतिकारी होने का दावा करते हुए राजनैतिक 'विकल्प' बनने की कोशिश करते दिखाई पड़ेंगे ... ऐसे सभी नवागंतुक संगठनों को पहले ठोस ज़मीनी कार्य करके दिखाना ही होगा ... वर्ना उनकी 'पार्टियाँ' केवल 'चाय पार्टियां' ही बनकर रह जायेंगी ...

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    1. बिल्कुल सही बात कही आपने. ऐसे और भी 'क्रांतिकारी" आम जनता को भटकाने की कोशिश कर सकते हैं.

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  2. आ0 किरण जी,
    आपकी सब बातें यदि शत प्रतिशत सही भी हों तो भी एक प्रश्न शेष रह जाता है ?
    टीम केजरीवाल की पार्टी किस रूप में वर्तमान राजनैतिक दलों से खराब साबित होगी?
    वे अगर राजनैतिक विकल्प दे रहे हैं तो देने दीजिए न, हम काहे बौखलायें?
    भारतीय संस्कृति की विशेषता विचारों को अपनाना रहा है, व्यक्तियों को नहीं ।
    वेद इसके प्रमाण हैं, मन्त्रों के रचयिताओं को नहीं उसके तत्व को ग्रहण किया जाना इस संस्कृति की मौलिकता रही है ।
    तो वर्तमान दूषित परिस्थिति से भारत को कोई भी उबारने की बात करे, चाहे वह हजारे हो या केजरीवाल,
    यदि उनका साधन-साध्य सही हो तो हमें उनके व्यक्तिगत साथ या दूरी से क्या लेना-देना ?
    आशा है आप मेरी जिज्ञासाओं का समाधान करेंगे ।

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    1. मैंने कहीं भी निजी बात की नहीं. सार्वजनिक मुद्दों पे मैं अपने पिताजी से भी निजी बात नहीं किया करता था. न वे.

      मैं निजी साथ या दूरी की भी बात नहीं कर रहा. इस लेख सहित संबंधित सारे लेख अन्ना आन्दोलन पे ही केंद्रित हैं.

      जो लोग अन्ना आंदोलन को तोड़ सकते हैं, इस ऐतिहासिक आंदोलन के साथ घात कर सकते हैं, उनसे किसी स्वस्थ दल बनाने या स्वस्थ व्यवस्था बनाने की क्या उम्मीद की जाय?? यही है मेरा मूल मुद्दा. सभी लेख सम्बन्धित इसी मुद्दे पा आधारित.

      इतना ही नहीं, अन्ना जैसे माहत्मा पुरुष के विरुद्ध झूठी और गन्दी मुहिम भी चलाई गयी, और अब भी एक हद तक चलायी जा रही. अन्ना के नाम से खुद अरविन्द ने भी झूठ कहा. क्या कोई स्वस्थ विकल्प देने वाला व्यक्ति या जत्था ऐसा दुष्कर्म कर सकता है?

      बातें ढेर सारी हैं... आप इसी ब्लॉग के हालिया चार-पांच लेख पढ़ें और अपने विचारों से अवगत कराएं तो अभूत अच्छा हो.

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  3. ye jo team kejri hai wo jan bhuj kar ek sajish ke tahat kanoon torkar bijli (wo bhi kewal un ilako me jaha cong ki seate hai me bijli) jor rahi hai, aur ugra bayan baji, jaese aaj hi - gopal rai- hamne kanoon tora, hai himmat to hame pakro bhrst sarkar,
    wo cahte hai sarkar majburi me giraftar ya lathi charge kare aur 2,3 din tak 24*7 news chanel ki photage mile, janta ki sahanubhuti alag,
    iske alawa team kejri aur kuch nahi cahti

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  4. Aapke lekh mujhe jansagh se prerit lag rahe hai...

    Waise aapke anusar agar hum Arvind ka anusaran nahi kare to kise VOTE kare...

    Aapke anusaar kaun yaha par aisa hai jo is vyavastha ko badalne ki chahat rakhta hai...

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