बचपन को बचपन - जिंदगी को जिंदगी रहने दें
रेस का घोडा न बनाएँ
विशेष संवाददाता
विपिन के पिता रेलवे में हैं। मां घरेलू महिला। विपिन दो भाइयों में बड़ा है और अगले साल उसको ज्वाइंट एंट्रेंस की परीक्षा देनी है। छोटा भाई नरेंद्रपुर रामकृष्ण मिशन बोर्डिंग स्कूल में है। विपिन की सबसे बड़ी समस्या खुद उसके पिता ही हैं। वह साफ-साफ कहता है कि पिता के साथ उसके संबंध अच्छे नहीं हैं। क्यों? जब वह अच्छे नंबर लाता है तो पिता उसके साथ बहुत अच्छा सलूक करते हैं। लेकिन पहले की अपेक्षा जरा भी कम नंबर लाने से पिता का व्यवहार किसी दुश्मन जैसा हो जाता है। एसएससी परीक्षा में 90 फीसदी नंबर लाकर विपिन फर्स्ट आया था। तब पिता की आंखों का तारा बन गया। लेकिन हायर सेकेंड्री में वह इतना अच्छा न कर पाया। और तबसे पिता के साथ उसकी एक दूरी बन गयी। उसका कहना है कि वैसे भी उसके पिता स्वभाव से बहुत ही चिड़चिड़े किस्म के इंसान हैं। मां के साथ भी उनका बहुत अच्छा व्यवहार नहीं है।
विपिन बताता है कि बचपन से ही उसके पिता उसे पढ़ाते रहे हैं। और पढ़ाने के दौरान वे अक्सर मार-पीट किया करते रहे। परीक्षा में एक नंबर के प्रश्न का उत्तर भी गलत लिख कर आने पर अच्छी-खासी धुलाई होती। और इस पर अगर मां बीच-बचाव करती तो उन्हें भी खरी-खोटी और अपमानजनक बाते सुननी पड़ती। इतना ही नहीं, विपिन के पिता की सोच अन्य अनेक पिताओं से बिल्कुल अलग है। बचपन से ही उन्होंने अपने बच्चों को सिर्फ टीवी से ही नहीं, नाच-गाना, खेल-कूद; यहां तक कि कहानी की किताबों तक से भी दूर रखा। उनका मानना है कि इन सबसे समय नष्ट होता है। ऐसे में विपिन मां को अपने बहुत करीब पाता है। मां से उसका रिश्ता दोस्ताना है। मां विपिन से कहती है कि डॉक्टरी में चांस लेकर वह हॉस्टल चला जाए। ताकि शांति से पढ़ाई-लिखाई कर सके। इसीलिए विपिन एंट्रेंस के लिए जी-जान लगाकर तैयारी कर रहा है।
यह तो हुई विपिन की बात। आइए अब देखते हैं रोहन की समस्या। बचपन से ही रोहन पढ़ाई-लिखाई में बहुत ही अच्छा है। माता-पिता के साथ भी उसका संबंध बहुत अच्छा रहा है। 2007 में एसएससी की परीक्षा में 94 फीसदी नंबर लाकर दक्षिण दिनाजपुर जिले में उसने प्रथम स्थान प्राप्त किया था। इसके बाद गांव से वह कोलकाता चला आया। यहां हायर सेकेंड्री में वह प्रथम नहीं आ पाया। उसके नंबर महज 85 फीसदी रहे। रोहन की समस्या है कि 85 फीसदी नंबर लाने के बावजूद आज माता-पिता, पड़ोसी और यहां तक कि स्कूल के शिक्षक भी उसकी उपेक्षा कर रहे हैं। उसे फिकरे सुनने पड़ते हैं। और यह उसे किसी भी कीमत में बर्दास्त नहीं हो रहा है।
आगे की पढ़ाई के लिए पहले तो कोलकाता के एक कॉलेज में उसने दाखिला लिया। लेकिन पारिवारिक दवाब के कारण उस कॉलेज को छोड़कर हुगली जिला के एक गैर सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज में दोबारा दाखिला लेना पड़ा। उसके माता-पिता का मानना है कि इंजीनियरिंग ही एकमात्र ऐसा पेशा है जिसमें मोटी रकम कमाने की गुंजाइश है। जबकि वह आईएएस बनना चाहता था। अब कुंठित मन से वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई तो कर रहा है। लेकिन जीवन के प्रति उसके मन में वितृष्णा भर गयी है। मायूसी भरे क्षण में बार-बार रोहन यही कहता रहता है कि अब उसकी जिंदगी में कुछ रस नहीं है। सब कुछ खत्म हो गया। जीने का कोई मतलब नहीं रहा।
आजकल की नौजवान पीढ़ी को ऐसे ही या इसी तरह की समस्या से अक्सर दो-चार होना पड़ता है। माता-पिता बच्चों पर अपने सपने लाद रहे हैं। कुछ माता-पिता की नजरों में बच्चे किसी विनिवेश से कम नहीं हैं। यानि कितना पैसा लगाया और कितना मिलेगा – जैसी सोच हावी हो गयी है। कहने की जरूरत नहीं कि बच्चों के साथ यह सरासर अन्याय है। बच्चों के साथ घरेलू हिंसा आज आम है, फिर वह शारीरिक हो या मानसिक। और यह सब बाल अधिकारों का उल्लंघन है। ऐसे मामलों में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि जो लोग हिंसा कर रहे हैं वे उनके बेहद करीबी लोगों में से हैं।
ऐसे मामलों में सबसे बड़ा नुकसान बच्चों-किशोरों का ही होता है। उनके मन में नकारात्मक भावना घर कर जाती है। और कभी-कभी इसका असर कुछ इस तरह होता है कि उनके मन में जीवन से मुंह मोड़ने की भावना पैदा होने लगती है। यही कारण है कि आजकल युवाओं में आत्महत्या की वारदातें बढ़ रही है। और शिक्षा को लेकर चूहा दौड़ का ऐसा दौर शुरू हो चुका है कि युवा पीढ़ी पर हर जगह अव्वल होने का दबाव बढ़ता ही चला जा रहा है। और चिंता का विषय है कि यह दबाव उनके माता-पिता की ओर से पड़ रहा है। हरेक माता-पिता यही चाहते हैं कि उनका बच्चा शीर्ष स्थान पर हो। लेकिन जहां तक दिमागी संरचना का सवाल है हर किसीका दिमाग एक-सा नहीं होता। प्रतिभा हर किसीमें होती है। लेकिन जरूरी नहीं कि वह प्रतिभा तथाकथित रूप से किसी विषय विशेष शिक्षा से ही जुड़ी हो। ऐसे में अधिक दबाव न सह पाने की स्थिति में युवा जीवन से विमुख होने को मजबूर हो रहे हैं।
कम उम्र के युवाओं व किशोरों की अकाल मृत्यु के दस कारणों में से एक आत्महत्या ही हुआ करती है। यही नहीं, युवाओं की बात अगर जाने भी दें तो समाज में चल रही भयंकर प्रतिस्पर्धा ही वह विडंबना है कि आठ-नौ साल के छोटे बच्चे भी परीक्षा के खराब नतीजे के कारण आत्महत्या का रास्ता अख्तियार कर रहे हैं। जाहिर है इसके लिए माता-पिता ही मुख्य रूप से दोषी हैं। विपिन और रोहन के मामले में भी यही बात साबित होती है। इन दोनों पर भी अच्छे नतीजे के लिए इस तरह दबाव बनाया गया कि रिश्ते पर आंच आ गयी है। और जीवन बेरस होता जा रहा है।
मनोचिकित्सक रीमा मुखर्जी का कहना है कि माता-पिता बच्चों के लिए मानसिक-भावनात्मक खुराक का काम करते हैं, इसीलिए बच्चे उनसे अच्छे दोस्त और हमदर्द होने की अपेक्षा रखते हैं। लेकिन “आधुनिक” माता-पिता अपने ही बच्चों के जान के दुश्मन बनते जा रहे हैं। यही माता-पिता है जो बच्चों में अव्यावहारिक महत्वाकांक्षा की भावना जगाते हैं। महत्वाकांक्षा और उच्चाकांक्षा में फर्क करना जरूरी है। अपनी उच्चाकांक्षा बच्चों पर नहीं लादनी चाहिए, कि उनका नौनिहाल जीवन से नाता तोड़ने की सोचने लग जाए।
जुवेनाइल वेलफेयर बोर्ड के मनोचिकित्सक हिरण्मय साहा का कहना है कि ज्यादातर मामलों में किशोरों और युवाओं की असली समस्या उनके घरों से ही शुरू होती है। अभिभावक व माता-पिता अपने बच्चों की क्षमता जाने बिना उनसे कुछ अधिक अपेक्षाएं कर लेते हैं। किसी सूदखोर या मुनाफाखोर साहूकार की तरह नफा-नुकसान का हिसाब लगाने लग जाते हैं। जैसा कि विपिन और रोहन के मामले में देखने में आया। बच्चों की पढ़ाई पर कितना खर्च या मेहनत किया और बदले में कितने नबंर आए?
रीमा मुखर्जी कहती हैं कि परीक्षा के नतीजे के आधार पर अगर परिवार का प्रेम निर्भर करता है तो इससे बड़ी हताशा की बात और क्या हो सकती है? माता-पिता व परिवार का दूसरा नाम ही आत्मीयता और सहयोग है। और यह बच्चों को मिलना ही चाहिए, लेकिन खेद का विषय यह है कि यह मिल नहीं पा रहा है। माता-पिता के प्रेम में मिलावट आ गयी है, वे बच्चों की शिक्षा के मद में किए गए खर्च को निवेश के रूप में देखने लगे हैं।
हिरण्मय इन सबके लिए शिक्षा पद्धति को भी जिम्मेवार ठहराते हुए कहते हैं कि किसी भी बोर्ड की परीक्षा का नतीजा आने के साथ मेरिट लिस्ट और टॉप टेन को लेकर इतना हंगामा मचता है कि अगले साल परीक्षा देनेवालों पर अपने आप दबाव बढ़ता चला जाता है। हाल ही में बोर्ड की परीक्षाओं में ग्रेड दिए जाने की घोषणा की गयी, लेकिन हमारी सोच ऐसी हो गयी है कि वहां भी ग्रेड को लेकर हंगामा मचना निश्चित है। शिक्षा का मकसद नित नयी चुनौतियों के लिए बच्चों तैयार करना है, न कि आपसी प्रतिस्पर्धा में सिर-फुटौव्वल के लिए और हताशा-निराशा को बढ़ावा देने के लिए।
इस सिलसिले में कुछ समाजविज्ञानियों की राय है कि फिल्म ‘तारे जमीन पर’ को माता-पिता, अभिभावक और शिक्षक-शिक्षिकाएं अवश्य देखें। यह फिल्म बच्चों के लिए नहीं; बल्कि अभिभावकों के लिए है। (समाप्त)
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