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शनिवार, 21 जनवरी 2012

हिंदी के साथ ये अन्याय क्यों?

हिंदी के लिए सुसमाचार

राष्ट्र भाषा के नाते हिंदी को इसका सम्मान कब का मिल जाना चाहिए था जो कि अब तक नहीं मिला। हिंदी को तमाम राज्यों में अनिवार्य विषय बना दिया जाना चाहिए था, मगर यह अब तक नहीं हो पाया। कई गैर हिंदी राज्यों में एक वैकल्पिक विषय के रूप में यह पढ़ाई जाती है, जबकि लादी गयी साम्राज्यवादी अंग्रेजी ज्यादातर राज्यों में अनिवार्य है। और तो और, हिंदी भाषी राज्यों में इसकी उपेक्षा की जा रही है। हिंदी के बजाए अंग्रेजी को तरजीह देने की प्रवृत्ति दिनोंदिन बढ़ रही है। अनेक शिक्षा संस्थानों में हिंदी को दूसरी भाषा का दर्जा प्राप्त है। लेकिन अंग्रेजी को प्रथम स्थान। यह हिंदी सहित तमाम भारतीय भाषाओं के साथ भीतरघात है। यह भीतरघात सरकारी और प्रशासनिक स्तर पर हो रहा है. ऐसे में जरूरी है कि आमलोग जागरूक बने। अपनी सदियों पुरानी राष्ट्रीयता को पहचाने और हिंदी भाषा की अस्मिता और भारतीय राष्ट्रीयता के लिए आगे आए, और अंग्रेजी के बढूते वर्चस्व को समाप्त कर राष्ट्र भाषा को स्थापित करे।

बहरहाल, इस अंधकार में असम से आशा की एक किरण आती दिख रही है। हिंदी को अनिवार्य शिक्षा बनाने की दिशा में बढ़ रहा है असम। वहां के माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने दसवीं की परीक्षा में हिंदी को अनिवार्य करने का प्रस्ताव सरकार के पास भेजा है। बोर्ड सचिव डी. महंत के अनुसार, भारत में विभिन्न प्रकार की स्थितियों का सामना करने के लिए हिंदी जानना जरूरी है।

प्रस्ताव अभी आया भी नहीं था कि असम, बंगाल के मुट्ठी भर लोगों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। ये चंद लोग शुरूआत से ही अंग्रेजों और अंग्रेजी के भक्त रहे हैं। ऐसे ही एक अंग्रेजी भक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इंग्लैंड में जाकर पिछले दिनों भारत में ब्रिटिश शासन की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। ऐसे ही गुलाम मानसिकता के लोगों ने ही आजादी प्राप्ति के पहले से ही हिंदी का हौवा खड़ा करना शुरू कर दिया था। अंग्रेज सांप्रदायिक भेदभाव के साथ-साथ भाषाई भेदभाव को भी बढ़ावा देने में लगे रहे। अब भी अंग्रेजों, अमेरिकियों और अंग्रेजी के भक्तों ने भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ाते रहने की नीति जारी रखा हुआ है। यह और बात है कि बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल, आंध्र, महाराष्ट्र, मणिपुर, गुजरात, मेघालय आदि के करोड़ों आमलोग अंग्रेजी नहीं, बल्कि हिंदी को ही पसंद किया करते हैं। स्थानीय या प्रांतीय भाषा की रक्षा के नाम पर अहिंदी भाषी राज्यों में बहुत दिनों से राजनीतिक रोटियां सेकी जा रही हैं, मगर सच्चाई यह है कि उन तमाम राज्यों की मातृ भाषाओं की घोर उपेक्षा करते हूए साम्राज्यवादी अंग्रेजी को ही बढ़ावा दिया जा रहा है। असमिया, बांग्ला, तमिल, तेलुगु, मराठी, कन्नड भाषा जाननेवालों को अच्छी-बड़ी नौकरी नहीं मिल पाती। जबकि सिर्फ अंग्रेजी जाननेवालों को बड़े से बड़े पद पर बिठा दिया जाता है। दरअसल, हिंदी का हौआ अंग्रेजी के गुलामों ने ही खड़ा किया है, और इसीके जरिए वे लोग विभिन्न राज्यों सहित भारत के उच्चपदों पर कब्जा जमाये हुए बैठे हैं। अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण ही प्रांतीय भाषाओं और भाषा-भाषियों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। बंगालियों और तमिलों को इस पर गंभीरता से ध्यान देना जरूरी है।

बहरहाल, तमाम विरोधों को बावजूद असम माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का मानना है कि असमियों की बहुमुखी तरक्की के लिए हिंदी सीखना अनिवार्य रूप से जरूरी है। बोर्ड सचिव डी. महंत कहते हैं कि फिलहाल, हिंदी पांचवीं कक्षा से सातवीं तक पढ़ाई जाती है। मगर अधिकांश विद्यार्थी इसे सतही ढंक से ही पढ़ते हैं। ऐसे में जब वे राज्य से बाहर जाते हैं तब उन्हें बड़ी दिक्कत पेश आती है। इसीलिए पांचवीं से दसवीं तक हिंदी पढ़ना और उसमें उत्तीर्ण होना अनिवार्य किए जाने का प्रस्ताव है। यहां प्रसंगवश इसका उल्लेख किया जा रहा है कि बंगाल और ‍तमिलनाडु ने हिंदी का विरोध करनेवाले कुछ लोग जब कभी चेन्नई, मुंबई, कोलकाता या दिल्ली जाते हैं तब अकसर हिंदी को अनिवार्य रूप से जरूरी करार देते हैं। बल्कि प्रणय रॉय जैसे अंग्रेजीदां जो हिंदी का एक शब्द भी बोलना अपना अपमान समझते हैं, भी जब दक्षिणी राज्यों में जाते हैं, तब वे भी हिंदी की अनिवार्यता महसूस करने लगते हैं।

इसी बात को असम शिक्षा बोर्ड ने भी महसूस किया और इसे व्यापक समर्थन भी मिल रहा है। सरकारी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के एक प्राचार्य पवित्र कुमार डेका, डिब्रुगढ़ विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति कमलेश्वर बोरा ने इस प्रसताव का स्वागत किया है। असम के नौजवानों का एक बहुत बड़ा हिस्सा भी हिंदी लिखना, पढ़ना और बोलना चाह रहा है। अनेक विद्यार्थी चाहते हैं कि जल्द से जल्द हिंदी की अनिवार्य पढ़ाई-लिखाई शुरू हो।

तमिलनाडु, आंध्र, करेल, मिजोरम, मेघालय आदि राज्यों में भी हिंदी की पढ़ाई की और आमलोगों का झुकाव देखा जा रहा है। यह एक अच्छी खबर है। मगर अफसोस की बात यह है कि हिंदी भाषी राज्य हिंदी की उपेक्षा कर अंग्रेजी को बढ़ावा देने में लेग हुए हैं। कम से कम हिंदी भाषी राज्यों से अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई खत्म कर दी जाए, और बांग्ला, उडि़या, तेलगु, असमिया, मराठी गुजराती, तमिल आदि एक-एक भाषा को अपना लिया जाए तो निश्चत तौर पर इसका प्रभाव अहिंदी भाषी राज्यों पर पड़ेगा। और, हिंदी को वे तहेदिल से राष्ट्र भाषा के रूप में अपना लेंगे। (समाप्त)

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