यह ब्लॉग खोजें

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे पर कृष्ण राघव - भाग-२

अंध विश्वासों पर भी अण्णा ने काम किया. एक आदमी जो अपने शरीर पर देवी बुलाकर ग्रामीणों को ठगा करता था, उसकी सरे-आम किसी पौधे की हरी संटियों से पिटाई कर उसकी पोल खोली और गांव वालों को अंध विश्वास से मुक्त किया. एक होली पर सबने मिलकर निश्चित किया (उस समय गांव की सरपंच एक महिला ही थी) कि होली में गांव की दुकानों का सारा तंबाकू और सिगरेट-बीड़ी इकट्ठा कर उसकी होली जलाई जाए और उस होली के बाद गांव में तंबाकू आदि नहीं बिकता, न कोई पीता-खाता.

तभी अण्णा ने एक विद्यालय और छात्रावास भी खोला जो महाराष्ट्र के ऐसे बच्चों के लिए था जिन्हें कहीं और दाखिला नहीं मिलता, मसलन शरारती, अपराधी वृत्ति वाले अथवा लगातार फेल होते रहने वाले बच्चे
. पढ़ते हुए बच्चे तो हमने नहीं देखे किंतु कोई बच्चा हमने रोगी अथवा अस्वस्थ नहीं देखा. तंदरूस्त, चाक-चौबंद बच्चे दिन निकलने से पहले उठकर सामूहिक व्यायाम करते, परिसर की सफाई करते,पौधों और वृक्षों में पानी लगाते और अभ्यास के लिए अपने-अपने वृक्ष के नीचे बैठ जाते क्योंकि हर बच्चे के पास देखभाल के लिए एक वृक्ष था. सौर-ऊर्जा से उनके नहाने के लिए गर्म पानी मिलता, उनके दाल और चाववल पकते, कमरों उजाला होता…सब्जी और ज्वार की भाखरी(रोटी)नीचे महिलाएं मिट्टी के तेल की भट्टियों पर बनातीं जिससे लकडिय़ों की आवश्यकता न पड़े. बच्चों के लगाए हुए वृक्षों से, इसीलिए रालेगण-सिद्धी आच्छादित था…इन सभी कार्यों के लिए अण्णा ने आर्थिक सहायता भी अपने ग्राम के लिए जुटाई.

ये थे तब के अण्णा. लालबहादुर शास्त्री से मिलते-जुलते अण्णा. विवेकानंद से प्रभावित अण्णा. गांधी का स्वप्न साकार करते अण्णा.

आज के अण्णा ने बहुत बड़ा दायित्व-बोझ संभाल लिया है…संभाल पाएंगे क्या-समय बताएगा किंतु गांव एवं शहर की युवा-पीढ़ी की आंखों में आई-चमक से भय लगता है. उनके स्वप्न भंग होने का भय लगता है. आसपास के स्कूलों से कतार बांध कर आए स्कूली बच्चों के उत्साह और आश्चर्य से भय लगता है…युवा-पीढ़ी द्वारा अण्णा में विश्वास का कारण जानकर और भी भय लगता है, वे कहते हैं-‘’ हमने गांधी को तो नहीं देखा किंतु वह कैसे होंगे, हम अण्णा को देखकर जान सकते हैं.’’ या फिर उन तालियों और नारों पर भी नजर दौड़ जाती है जिन पर लिखा है या जिन्हें सुना है-
"अण्णा नहीं आंधी है-आज का गांधी है."

अण्णा के लिए शुभकामनाएं, अच्छा लगता है किंतु यह देश की भावी पीढ़ी की आंखों में बस गए निर्दोष, निष्पाप और सच्चे सपनों का सवाल है. ये स्वयं उस कच्ची उम्र के हैं, जिन्हें कच्चे घड़े की तरह पानी में ढहते देर नहीं लगती. उम्रवालों की मुझे परवाह नहीं, वे राजनीतिज्ञ हों कि सामाजिक कार्यकर्ता अथवा खासोआम इंसान. इन्होंने बहुत से आंधी-तूफान देखे हैं, न जाने कितने सावन आए और ये औंधे घड़ों की तरह पड़े रहे. अधिकतर जैसे थे-वैसे ही हैं किंतु ये मासूस, मुलमुले. आंखे खोलते ही ये ‘अण्णा-गांधी’ को देख रहे हैं मानो वेद-पुराण में ‘यदा-यदा हि धर्मस्य...’ वाले अवतार के बारे में पढ़ा हो और अचानक वह इनके सामने आ खड़ा हो.

अण्णा के उपवास छोडऩे के बाद से ही जो नाटक हो रहे हैं, उनके बारे में तो आप जानते ही होंगे-‘कमेटी में ये क्यों नहीं, ये क्यों...?‘, ‘एक जन-लोकपाल के बन जाने से कुछ नहीं होने वाला’, ‘भ्रष्टाचार के बिना, काले-धन के बिना, अण्णा पार्टी चला के दिखाएं’, ‘अण्णा कहीं भी-किसी भी चुनाव में शरद पवार को हरा कर दिखाएं‘, ‘अण्णा ने कुछ मुख्यमंत्रियों की तारीफ क्यों कर दी’ आदि-आदि.

गांव बसते ही लुटेरे आने प्रारंभ हो गए हैं. मैं स्वयं भविष्य को लेकर शंकित हूं. बिसात बिछ गई है, पासे पड़ चुके हैं, जाने कौन जीते. मैं भी देख रहा हूं, देश की भावी-पीढ़ी, नौजवान लडक़े-लड़कियां, स्कूली बच्चे सभी टकटकी लगाए देख रहे हैं. सब अण्णा के सद-उद्देश्य के साथ हैं किंतु ईमानदारी से कहूँ तो मेरे जैसे न जाने कितने हैं जिनके मन में यह प्रश्न भी है, ‘’ देखे क्या होता है ! "

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें