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रविवार, 24 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे पर कृष्ण राघव की कलम

गांधी बनाम अण्णा हजारे

कृष्ण राघव


यह तब की बात है जब मैंने अण्णा हजारे को लेकर एक वृत्तचित्र बनाया था, वर्ष 1996 ! आधे घंटे की इस फिल्म का हिंदी में नाम था, 'अगम्य की खोज' और अंग्रेजी में ‘इन सर्च ऑफ यूटोपिया’. प्रसिद्ध महिला पत्रकार सुश्री दीपा गहलोत ने इस विषय को मुझे सुझाया था, इस पर शोध किया था और इसकी पटकथा लिखी थी. मैं अण्णा से तब से जुड़ा हुआ हूं. इस फिल्म को बनाने के लिए मैंने किसी धनकुबेर यानी फाइनेन्सर या स्पांसर का सहारा नहीं लिया था.

anna_hazare_gandhi

यह मेरा अपना पैसा था क्योंकि अण्णा के काम ने मुझे इस कदर प्रभावित किया था कि मैं उसे फिल्म में ढालना चाहता था और फिल्म सराही भी गई, दूरदर्शन ने उसे दिखाया, दो-तीन अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में गई-सराही गई...तब मुझे अण्णा, लाल बहादुर शास्त्री जैसे लगे थे...तब मुझे अण्णा, लाल बहादुर शास्त्री जैसे लगे थे, छोटे कद के बड़े आदमी...तब भी वह मंदिर में वहीं रहते थे.

दरअसल वह मंदिर बनवाया ही इन्होंने था. फौज से जब एक बार छुट्टी पर आए तो गांव के ‘देवस्थान’ की दुर्दशा देखी और दुखी हो गए,जर्जर हो गया था. गांव की आय का प्रमुख साधन एक कुटीर उद्योग था-शराब की भट्टियां...पानी की कमी के कारण खेती का कोई भरोसा न था.जवान पीढ़ी को पढऩे-लिखने के बाद भी काम नहीं था,

लिहाजा अधिकतर लोग अपने गांव व आस-पास के लिए इसी कुटीर उद्योग की ओर मुड़ गए. वे मंदिर की छत से लकडिय़ां निकाल ले जाते और भट्टियों में झोंक देते. अपनी कुंठा से छुटकारा मिलता और जेब में पैसे भी आते. ऐसे में खेमकरण सीमा का वाकया हुआ…भारत-पाकिस्तान युद्ध की विभीषका में इनके सारे साथी मोर्चे पर मारे गए, केवल यह और इनकी क्षत-विक्षत जीप बची जिसके यह ड्राइवर थे. वहां इन्हें एहसास हुआ कि ईश्वर ने यदि केवल इन्हीं को बचाया है तो कोई न कोई कारण अवश्य होगा !

छुट्टी मिली तो रेलवे प्लेटफार्म पर विवेकानंद मिल गए…स्वामी विवेकानंद…एक पुस्तक में. उन्हें पढ़ा और अण्णा बदल गए. गांव की दुर्दशा देखी तो फौज को त्यागपत्र दे दिया. कुछ हजार रकम(शायद बीस हजार थी) लेकर घर आए तो सोचा शुरूवात कहां से हो ? गांव का मिलन स्थल मंदिर ही होता है, सो उसी को सुधारने की सोची. कोई साथ आने को तैयार नहीं किंतु जब अपने ही पैसे से मुट्ठी भर आदमियों के साथ अण्णा को मंदिर के जीर्णोद्धार में जुटे देखा तो गांव वाले चौंक गए, प्रभावित हुए और अण्णा से जुड़ गए. श्रमदान के लिए एक घर से एक व्यक्ति मांगा गया और मंदिर तो बना ही (जिसके एक कमरे में आज भी अण्णा रहते हैं) गांव की सड़कें भी बनी, उनमें ‘अंडर ग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम’ भी बने, यहीं कारण कि रालेगण-सिद्धी की गलियां गीली नहीं रहतीं, उन पर कीचड़ नहीं रहता जो हमारे समूचे भारत के गांवों की गलियों का ‘प्रतीक चिह्न’ हुआ करता है. गलियों में सौर-ऊर्जा से जलने वाले बिजली के खंभे हैं…इत्यादि… और हां, गांव के घरों में हमने ताले लगते नहीं देखे, सारे घर चौबीस घंटे खुले ही रहते हैं.

श्रमदान के असली महत्व का फल ग्रामीणों ने तब चखा, जब ऊपर के पहाड़ों से लेकर गांव की बाहरी सीमा तक अण्णा ने कई छोटे-छोटे बांध बना दिए. गांव का पानी बहकर, बरसात में, अत्यंत वेग से, दूसरी जगहों पर चला तो जाया ही करता था, अपने साथ गांव की मिट्टी भी बहा ले जाता था; बांध बने तो गांव का पानी और मिट्टी, दोनों रूक गए. कुंओं में जल-स्तर बढ़ा, गांव में पानी आया और फसल महकने लगी. सिंचाई के पानी की मांग इतनी बढ़ी कि अण्णा को राशन कार्ड बनाने पड़े. फसल हुई तो पेट भरे, पेट भरे तो अण्णा ने गांव वालों के सामने एक प्रश्न फेंका, खेतों में पानी आ गया और आंखों पानी नहीं आया तो वह मर्द कैसा? मैंने उनके स्कूल के एक बड़े हॉल में एक आदमकद आइने में ऊपर की ओर यह सुक्ति भी लिखी देखी, ‘तेरे दया-धरम नहिं मन में, मुखड़ा क्या देखे दर्पण में!’

इस प्रश्न के उत्तर में गांव वालों के सहयोग से उन्होंने ग्राम-वासियों के लिए एक ‘ग्रेन-बैंक’ खोला. हर घर में हर फसल पर थोड़ा-थोड़ा अन्न इकट्ठा करना प्रारंभ किया जो जरूरतमंदों को ऋण अथवा अनुदान के रूप में मिलने लगा. यहां तक कि आस-पास के गांव वाले भी आने लगे. आज इस ‘ग्रेन बैंक’ में अनाज के बोरों पर बोरे अटे पड़े हैं.
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